बुधवार, 25 दिसंबर 2013

बीत रहा है यह बड़ा दिन

आज का दिन बीत रहा है। आज का दिन अर्थात 'बड़ा दिन'। बीत ही चुका यह दिन। अभी तो  रात गहरा कर कर अधिया रही है। आइए , आज इस बीतते हुए दिन और बीतती हुई रात के साथ साझा करते है आज ही  कुछ देर पहले लिखी गई यह कविता.... 


बड़ा दिन

बीत रहा है यह बड़ा दिन
तारी है इक बड़ी - सी रात
सोचो तो
क्या किया आज कुछ बड़ा ?

कह दूँ
बिना बोले कोई बड़ा झूठ
देखता रहा
देखा किया
बहुत कुछ चुपचाप कोने में खड़ा।

शामिल 
नहीं हुआ किसी बड़ी बतकही में
सायास चुप्पी भी नहीं साधी बड़ी -सी
आदतन
बुदबुदाता रहा कुछ अस्फुट
नहीं थी वह कोई बड़ी  प्रतिज्ञा

कोई बड़ी प्रार्थना
न ही था वह कोई बड़ा प्रतिरोध।

बस शामिल रहा
एक बड़े दिन के  रीतते बडप्पन में
सोचता रहा कि लिखी जानी है एक बड़ी कविता
और पूरे दिन 

अनमना सा
सहेजता रहा 

तमाम बड़े हाथों से बरती गई 
एक छोटी - सी कलम
और पृथ्वी के आकार से भी बड़ा एक सादा कागज

अभी तो

बीत रहा है यह बड़ा दिन 
अभी तो
तारी है इक बड़ी - सी रात

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( * चित्र : मयंक गुप्ता की पेंटिंग 'एन्स्लेव्ड' , गूगल छवि से साभार )

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

अगर मैं मर जाऊँ

संसार के अलग - अलग हिस्सों  की कविताओं के अनुवाद की साझेदारी के क्रम में आइए आज पढ़ते हैं सीरियाई  कवि लीना टिब्बी ( जन्म:१९६३) को। उनका पहला कविता संग्रह १९८९ में प्रकाशित हुआ था। विश्व कविता के पटल पर उनकी सक्रियता निरन्तर उपस्थिति दर्ज कराती है।  कई भाषाओं में उनके कवि कर्म का अनुवाद हो चुका है।प्रस्तुत  है लीना  की यह एक छोटी- सी कविता:

लीना टिब्बी की कविता
अगर मैं मर जाऊँ

अगर मैं मर जाऊँ
कौन भेजेगा मेरे लिए शुभकामनाओं के संदेश
कौन पोंछेगा मेरे माथे से बोझ की लकीरें
कौन मूँदेगा मेरी आँखें।

अगर मैं मर जाऊँ
कौन बुदबुदाएगा मेरे कान में अपनी प्राथनायें                                                                      
कौन रखेगा मेरा सिर अपने तकिए पर
अगर मैं मर जाऊँ
कौन दिलासा देगा मेरी माँ को
और  छिप - छिपकर रोएगा।

अगर मैं मर जाऊँ
अगर मैं  जल्दी से मर जाऊँ
तो कौन निकालेगा तुम्हारे हृदय से मेरा हृदय ?
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 * (अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह  / चित्र : डेविड काप्सन की  कृति  'डेथ  एंड  रिबर्थ ', गूगल छवि से साभार)

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

मैंने अभी तक क्यों नहीं बनाया कोई झाड़ू ?

यह एक छोटी -सी चीज हुआ करती है ; बेहद मामूली ,नितान्त नगण्य। अक्सर इसे निगाहों से दूर छिपाकर , अलोप कर रखा जाता है। अक्सर यह भी लगता है यह बेहद जरूरी चीज भी है। तमाम कूड़ा - कर्कट को साफ करने , बुहारने की बात जब आती है तो याद आता है झाड़ू। एक शब्द के रूप में इसकी अभिधा तो है ही अपनी अन्यान्य (शब्द) शक्तियों के रूप में यह लक्षणा और व्यंजना के बहुविध रूपों में भी हमारे हिस्से की दुनिया में उपस्थित है। आजकल समाचार - विचार की चाक्षुष दुनिया में यह पर्याप्त चर्चा  में है। खैर, आइए ; विश्व कविता के वृहत्तर संसार में प्रविष्ट होते हुए आज पढ़ते हैं साहित्य के  नोबेल पुरस्कार से सम्मानित  चिली  के महान कवि  पाब्लो नेरुदा  (१९०४-१९७३) की  यह कविता : 



पाब्लो नेरुदा की कविता
दोषी

अपने आप को दोषी घोषित करता हूँ मैं
कि दिए गए इन हाथों से
नहीं बनाया एक झाड़ू तक।

मैंने अभी तक क्यों नहीं बनाया कोई झाड़ू ?

मुझे किसलिए दिए गए थे ये हाथ ?

आखिर किस बात के लिए अच्छे हैं वे
यदि मैं अब तक यही करता रहा कि
निहारता रहा कण के घूर्णन को
सुनता रहा हवा को
और पृथ्वी पर बिखरे बेशुमार हरेपने से
इकठ्ठा नहीं किया सींकों को
एक झाड़ू बनाने के निमित्त।
मैंने धूप में सूखने किए नहीं पसारा सींकों को
उनको बाँधा नहीं
एक सुनहले गठ्ठर में
पीले स्कर्ट में हिलगाया नहीं छड़ी को
ताकि बन जाए रास्तों को बुहारने के लिए एक झाड़ू।

तो , इसी तरह चल रहा है सब
आखिर किस तरह निभेगा मेरा जीवन
बिना देखे , बिना सीखे
बिना इकठ्ठा किए, बिना बाँधे
आधारभूत चीजों को ?

अब बहुत देर हो गई इन्कार किए
मेरे पास समय था
था समय
अब भी हाथ कुछ अभाव अनुभव कर रहे हैं
तो किस तरह मैं
लक्ष्य तय करूँगा महानता के वास्ते
अगर मैं समर्थ नहीं था कभी
कि बना सकूँ कोई झाड़ू
कम से कम एक अदद झाड़ू?
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* (अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह  / चित्र : सर्जियो बुरानी  की  फोटोकृति  , गूगल छवि से साभार)
** इसी ब्लॉग पर पढ़ें नेरुदा की एक और कविता  तुम्हारे पाँव

रविवार, 1 दिसंबर 2013

महान प्रेम : अन्ना स्विर

पोलिश कवि अन्ना स्विर की कुछ कविताओं के अनुवाद इस ठिकाने पर आप पहले भी पढ़ चुके हैं। आइए , आज साझा करते हैं उनकी एक और कविता जो  अपने कलेवर और  अपनी काया  में बहुत  छोटी है , लघु है लेकिन  मुझे लगता है  कि इसका अंतरंग बहुत गहरा है ....


अन्ना स्विर की कविता
महान प्रेम

वह साठ बरस की है
वह जिए जा रही है
अपने जीवन का महान प्रेम।

वह गलबहियां डाले
टहल रही है
अपने प्रियतम संग
हवा में लहरा रहे हैं उसके केश
कहता है उसका प्रियतम :
'मोतियों की तरह हैं तुम्हारे केश'।

उनके बच्चे कहते है :
'बेवकूफ बूढ़े़'।
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(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह  / पेंटिंग : जोआन ब्रेकवोल्ड   की  कृति  'ओल्ड कपल ' , गूगल छवि से साभार)