गुरुवार, 20 सितंबर 2012

कर्मनाशा से गुजरते हुए

इस बीच पत्र पत्रिकाओं में मेरे कविता संग्रह ' कर्मनाशा' की कुछ समीक्षायें आई है / आ रही हैं। सही बात है कि इनसे समीक्षाओं से को देखकर  अपने सोचे -सहेजे लिखे को दूसरों के नजरिए से देखने में  मदद अवश्य मिलती है।हिन्दी की लिखने - पढ़ने वालों की बिरादरी में पुस्तक समीक्षायें अमूमन गद्य में ही लिखी जाती है। आज मैं 'कर्मनाशा' की एक समीक्षा जो गद्य से इतर है और कविता के निकट  है , को सबके साथ साझा करना चाह रहा हूँ। वैसे देखा जाय तो यह समीक्षा भी नहीं है ; यह एक आत्मीय की , मित्र की सहज प्रतिक्रिया है ; ऐसे मित्र की से जिसके साथ लंबे समय  पढ़े - पढ़ाये, सोचे - समझे को साझा करते एक उम्र बीत गई है और हम साथ - साथ हैं। यहाँ पर यह भी कहा जा सकता है कि आपसी संवाद को साझा या सार्वजनिक करना कोई  अच्छी बात तो नहीं है।  डा०  प्रकाश चौधरी मेरे मित्र हैं, सखा हैं और फिलहाल गाजियाबाद के एम०एम०एच० कालेज में  फिजिक्स के एसोशिएट प्रोफ़ेसर के रूप में काम कर हैं ।उन्होंने मेरी किताब पर लिखी यह प्रतिक्रिया फेसबुक पर  साझा किया था। मैं तो बस उनकी  साझेदारी के काम को थोड़ा और आग्रसर कर रहा हूँ बस।  डा० प्रकाश लम्बे समय से सहित्य  - संपादन- थिएटर-  संस्कृति- समाज से जुडी़ गतिविधियों में सक्रिय जुड़ाव रखते हैं। आइए, देखते हैं  कविता की किताब की यह एक काव्यात्मक  समीक्षा या काव्य -  प्रतिक्रिया...

कर्मनाशा से गुजरते हुए .....

सरसों के खेत
और नहाती स्त्रियों के
सानिध्य मे
नदी अपवित्र नहीं हो सकती ....
तभी तुम
बचा लाते हो दाज्यू ढूंढती लड़की को
दिल्ली के शिकंजो से.

और हां
वो कांच की खिड़की
पर आंसू की लकीर...
माफ़ करना, लड़की के नहीं
कर्मनाशा के नायक के हैं - तुम्हारे हैं
जो कीमत चुका रहे हैं - कविता कहने की.

स्मृतियों-विस्मृतियों के बीच
बहती तुम्हारी कर्मनाशा
स्वप्निल पहाड़ों, जादुई विस्तारों से
होते हुए
धूल - गंध और गुबार तक .
बहती जरूर है.

चटख धूप में
ढलवां छत पर पसरी बर्फ,
नीले आकाश में
नए गीत लिखते
नुकीले देवदार वृक्ष,
चाय के गिलास से उठती भाप की लय,
धुएं के छल्ले बनाते गोल होंठ,
फिर भला अमलतास
क्यों न दे
तुम्हें भरपूर उर्जा,
कि तुम रचो अपनी कर्मनाशा का भरा-पूरा संसार.
-----
- प्रकाश चौधरी

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर!

देवदत्त प्रसून ने कहा…

'कुमान्यत' पर करके चोट!
काढे दागों जैसे खोट !!
रचना का उद्देश्य अच्छा है |

देवदत्त प्रसून ने कहा…

'कुमान्यता'पर की है चोट !
'कुविश्वास' के काढे खोट !!

रविकर ने कहा…



आभार ।।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

काव्यात्मक समीक्षा..पठनीयम्..

Asha Joglekar ने कहा…

इस काव्यत्मक समीक्षा को हमारे साथ बांटने का आभार ।