बुधवार, 4 अप्रैल 2012

भाषा की काया से इतर और अन्य

हर साल की तरह इस साल  भी  माह अप्रेल लगभग क्रूर महीने की तरह ही आया है और उम्मीद यही दिखती है  कि वह मई (और शायद जून को भी ) अपनी तरह का ही बना लेगा , अपने ही रंग में रंग लेगा। मार्च के दूसरे पखवाड़े से लेकर अब तक खूब यात्रायें हुई हैं पहाड़ों की। नौकरी की जिम्मेदारियों के साथ घूमना फिरना और लिखत - पढ़त भी खूब हुई है। यात्रा पर जाने से पहले तय - सा है कि लैपटाप साथ नहीं होगा। होंगें कामधाम के कागज पत्तर , कविता की एक - दो किताबें और मोबाइल  के स्मति पटल पर कुछ  पुराना पसंदीदा - कुछ नया गीत संगीत। कुछ कवितायें भी इस बीच बनी हैं। हाँ , उन्हें बनना ही कहा जाएगा। परसों जब शाम को खेतों की तरफ से घूम - टहल कर लौट रहा था तब कुछ - कुछ बना था कविता जैसा। कल भी वह दिन भर संग - संग डोलता रहा। कल रात सोने से पहले एक मित्र से निर्मल वर्मा  के उपन्यास 'वे दिन' पर चैट करते हुए 'दूसरी दुनिया' और आभासी दुनिया पर  अच्छी  बतकही हुई थी। भीतर - बाहर कई दिनों से जो कविता जैसा कुछ घुमड़ रहा था वह आज साँझ को वह प्रकट  - सा हुआ है कागज - कंप्यूटर पर कविता की शक्ल में। आइए , इसे साझा करते हैं...

फेसबुक स्माइली (ज)


एक दीवार है अदृश्य
दीवारों  को ढहाने के उपक्रम में
खड़ी करती हुई  एक और दीवार।
इसकी छाया में देह हो जाती है विदेह
शरीर हो जाता है अशरीर
बाधक नहीं बनता दिक्काल
सतत आवाजाही की जा सकती है
इस पार से उस पार आरपार।

भाषा की काया से इतर और अन्य
कुछ चिप्पियाँ है गोलाकार
जिनमें वास करते हैं हर्ष - विषाद
और उभचुभ करता है
तरह - तरह का मन:संसार
एक क्रीड़ा है
जिससे उपजता है जादू
एक क्रम है
जिससे टूटता है व्यतिक्रम
एक भ्रम है
जिसमें जारी है यथार्थ का करोबार।

इस गोलाकार पृथ्वी
और गोल दीखते आकाश के तले
एक दीवार है
जिस चिपकीं कुछ चिप्पियाँ है गोलाकार
दीवार जो  है अदृश्य
दीवार जो  है दृश्यमान
यह एक दीवार - जिस पर छिपती उघड़ती  है
भीतर की खुशी बाहर का हाहाकार।

हम मनुज
हम देह
हम मन
हम दीवार !
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6 टिप्‍पणियां:

स्वप्नदर्शी ने कहा…

bahut pyarii!

रीनू तलवाड़ ने कहा…

Bahut sundar kavita!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

चित्र देककर ही भाव जाग जायें..
बहुत सुन्दर कविता।

Arpita ने कहा…

वाह!!!!!!क्या गजब लिखी हुई कविता....:)

बाबुषा ने कहा…

:-)

Onkar ने कहा…

bahut gahari kavita