शनिवार, 24 सितंबर 2011

यह कोई निरर्थक जुमला नहीं है

अन्ना अख़्मातोवा (जून ११, १८८९ - मार्च ५, १९६६) की कवितायें आप 'कर्मनाशा' पर कई बार पढ़ चुके हैं। रूसी साहित्य  के इस जगमगाते सितारे से अपनी  पहचान  बहुत आत्मीय है  और उसके काव्य संसार में विचरण  करना भला लगता है। आइए आज देखते - पढ़ते हैं अन्ना की दो कवितायें: 




अन्ना अख़्मातोवा  की दो कवितायें 
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)


01-लुब्ध नहीं करता है झील के पिछवाड़े का चाँद

लुब्ध नहीं करता है झील के पिछवाड़े का चाँद
और खुलता है
एक सूने , प्रकाशमान घर की खिड़की की तरह
जहाँ कुछ ग़मगीन चीजें घटित हो चुकी हैं

गोया
लाया गया है घर का मालिक मुर्दा - बेजान
मालकिन भाग गई है अपने यार के साथ
एक छोटी बच्ची खो गई है कहीं
और उसके जूते पाए गए हैं चरमराती चारपाई के नीचे.

हम देख नहीं पा रहे हैं
महसूस कर रहे हैं बेतुकी बातें -
उदासी
बाजों - उल्लुओं की आवाजें
और बगीचे की उमस के बीच
गरजती , कोलाहल करती  हुई हवा...
- मगर हम
 नहीं करते हैं कोई बातचीत.

02- तुम किस तरह देख सकोगे नेवा की जानिब ?

कहो
तुम किस तरह देख सकोगे नेवा की जानिब ?
तुम किस तरह लाँघ सकोगे  इसके पुल ?
यह कोई निरर्थक जुमला नहीं है
जबसे  आए हो तुम मेरे निकट
एक दुखी इंसान की मिल गई है मुझे पहचान.

नुकीले पंख पसारे मँडरा रही हैं काली परियाँ
कयामत का दिन आता जा रहा है पास
और बर्फ के भीतर
गुलाबों की तरह खिल रही है
रसभरी जैसे सुर्ख रंगों वाली आतिशबाजी.

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

ज़मानो में गम हैं कई,
कहाँ से लायें नज़रें नई।

ghughutibasuti ने कहा…

हर कविता पर टिप्पणी नहीं की जा सकती. कुछ को बस पढ़ा और सराहा जा सकता है.
घुघूतीबासूती