मंगलवार, 9 नवंबर 2010

एस.एम.एस बन जाते हैं कँवल

इस समय आधी से अधिक गुजर चुकी रात। रोज की तरह खुद से कहने जा रहा हूँ कि 'चलो अब सो जाओ रे भाई'... क्योंकि सुबह काम पर जाना है। कामकाज के बीच खुद से बतियाना अक्सर कम ही हो पाता है।आज अभी कुछ देर पहले खुद से एक संवाद हुआ है। यह कविता के फार्म में ग़ज़ल भी हो सकती है और नहीं भी क्योंकि 'कवित विवेक एक नहिं मोरे' ..खैर..




आत्म संवाद

चल अकेला, बस यूं ही चलता चल।
बदलना चाहता नहीं , मत बदल।

माना कि आज थोड़ी मुश्किल है,
देखना कल होगी, कुछ राह सहल।

नेमतें लाई है यह बारिश की झड़ी,
डूब जायेंगे सभी सहरा - दलदल।

उसको देखा तो छाँव - सा पाया,
वर्ना छाई थी तेज धूप मुसलसल।

जब भी बजता है मेरा मोबाइल,
एस.एम.एस बन जाते हैं कँवल।

खुद को हलकान किए रहता हूँ,
आओ कुछ बात करें पल - दो पल।

4 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

माना कि आज थोड़ी मुश्किल है,
देखना कल होगी, कुछ राह सहल।
बिलकुल सही कहा। धन्यवाद।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मैं पल दो पल का शायर हूँ।

अनुपमा पाठक ने कहा…

aatm samvad bahut bada sambal hote hain!
sundar rachna!

Dorothy ने कहा…

"माना कि आज थोड़ी मुश्किल है,
देखना कल होगी, कुछ राह सहल।"

आशा का उजास फ़ैलाती खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार
सादर,