शनिवार, 12 जून 2010

रोहतांग : अपने - अपने हिस्से का हिमालय


यात्रा की थकान व खुमारी के उतरने के बाद स्मृतियों के उतराने और उन्हें उलीचने -समेटने - सहेजने के क्रम में मोबाइल और कैमरे से ली गईं तस्वीरों को एडिट करने की जुगत के बीच आज दोपहर के आलस्य में कुछ लिखा गया है। पता नही ये कवितायें हैं या कवितानुमा ट्रेवेलाग की कोई पीठिका मात्र. अब जो भी है , जैसा भी है आपके समक्ष है . आइए देखें :

रोहतांग : ०१

यहाँ सब कुछ शुभ्र है
सब कुछ धवल
बीच में बह रही है
सड़कनुमा एक काली लकीर।

ऊपर दमक रहा है
ऊष्मा से उन्मत्त सूर्य
जिसके ताप से तरल होती जा रही है
हिमगिरि की सदियों पुरानी अचल देह।

सैलानियों के चेहरे पर
दर्प है ऊँचाई की नाप- जोख का
पसरा है
विकल बेसुध वैभव विलास।

मैं भ्रम में हूँ
या कोई जादू है जीता जागता
इस छोर से उस छोर तक
रचता हुआ अपना मायावी साम्राज्य.

रोहतांग : ०२

बर्फ़ की जमी हुई तह के पार्श्व में
सुलग रही है आग
स्वाद में रूपायित हो रहा है सौन्दर्य
भूने जा रहे हैं कोमल भुट्टे।

हवा में पसरी है
डीजल और पेट्रोल के धुयें की गंध
लगा हुआ है मीलों लम्बा जाम
आँखें थक गई हैं
ऐसे मौके पर कविता का क्या काम?

किसी के पास अवकाश नहीं
हर कोई आपाधापी में है
बटोरता हुआ
अपने - अपने हिस्से का हिम
अपने - अपने हिस्से का हिमालय.

7 टिप्‍पणियां:

Jandunia ने कहा…

सार्थक पोस्ट

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

यात्र के रंगों में रंगी दोनों ही रचनाएँ बहुत बढ़िया हैं!

माधव( Madhav) ने कहा…

please post some more pics

अजेय ने कहा…

arey, ekdam aisa hi tha is bar rotang...........

मुनीश ( munish ) ने कहा…

Uttam ! Sach mein badhiya !

शरद कोकास ने कहा…

अपने हिस्से का हिम
अपने हिस्से का हिमालय
वाह क्या बात है