रविवार, 9 मई 2010

मातृत्व : तनी हुई रस्सी पर


***  सुन रहा हूँ। आज सुबह से ही अखबार ,इंटरनेट और टीवी पर देख रहा हूँ कि आज 'मदर्स डे' है। इतने - इतने 'डे' हो गए हैं कि हिसाब रखना कठिन हो गया है और असल बात तो यह भी है कि हिसाब तो तभी रखा जाय जब जरूरत हो। दिन में कई बार सोचा कि चलो अपन भी 'मदर्स डे' पर कुछ लिखें लेकिन हो न सका। क्यों ? पता नहीं ! मेरे लिए तो 'मदर्स डे' 'जिऊतिया' के दिन होता है जिसे पढ़े लिखे लोगों की भाषा में 'मातृ नवमी' या 'जीवपुत्रिका व्रत' कहते हैं। खैर , जब सारी दुनिया ( ! ) 'मदर्स डे' सेलीब्रेट कर रही है अपन भी पीछे क्यों रहें। आज और अभी जब यह दिन बीत रहा है तब मातृत्व के प्रति पूरे आदर के साथ रूसी भाषा की प्रमुख कवयित्री वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३ ) की एक बेहद छोटी - सी कविता का अनुवाद प्रस्तुत है :









वेरा पावलोवा की कविता
मातृत्व*
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

चल रही हूँ मैं
तनी हुई रस्सी पर
दोनो हाथों में बच्चे थामे
ताकि बना रहे संतुलन।
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* शीर्षक अनुवादक / पोस्ट लेखक द्वारा दिया गया है। वेरा की कुछ और कवितायें व विस्तृत परिचय अगली पोस्ट में।

4 टिप्‍पणियां:

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

किसी धारिता मापनेवाले पात्र में भरे
1 लीटर गर्मागर्म लोहे की तरह
मातृत्व पर आधारित
सारी लंबी-चौड़ी कविताओं पर भारी रही
देखने में नन्ही-सी लगती यह कविता!
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मुझको सबसे अच्छा लगता : अपनी माँ का मुखड़ा!

Udan Tashtari ने कहा…

जबरदस्त!!

डॉ .अनुराग ने कहा…

adhbhut!!!vaise shayd maine ise pahle padha hua .shayad aapke hi blog par ya kahi.....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

कविता जरूर सुन्दर होगी परन्तु अनुवाद तो बहुत ही नायाब है!