शनिवार, 3 अप्रैल 2010

एक स्त्री की कर्मकथा


विश्व कविता के पाठकों और प्रेमियों के लिए आज एक और महत्वपूर्ण कविता का अनुवाद। स्त्री स्वाधीनता आन्दोलन के सौ बरस पूरे होने के उपलक्ष्य में भारत और पूरी दुनिया में स्त्री के संघर्ष और सृजन को रेखांकित करने के उद्देश्य से तमाम तरह के कार्यक्रमों का सिलसिला चल रहा है । इस तरह के एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम में पिछले सप्ताह ही भाग लेकर लौटा हूँ , उस पर अलग से एक विस्तृत रपट लिखनी है किन्तु आज और अभी तो बस एक कविता जो मुझे बहुत पसंद है।विश्व कविता के पाठकों और प्रेमियों के लिए माया एंजीलोऊ कोई नया व अपरिचित नाम नहीं है। 'स्टिल आइ राइज' , 'आल गाड्स चिल्ड्रेन नीड ट्रेवेलिंग शूज' ,'आइ नो व्हाई केज्ड बर्ड सिंग्स' जैसी किताबों की रचनाकार इस स्त्री का जीवन सिर्फ एक कवि होने के दायरे में सीमित न होकर बहुरूपी व विविधवर्णी है जिसमें संगीत , सिनेमा , अभिनय , अध्यापन और बहुत कुछ है। उनकी कविताओं में मुखर स्त्री स्वर को देखना एक सहज , सजग , सचेत स्त्री अनुभव से गुजरना होता है। तो आइए देखते - पढ़ते हैं अमेरिकी कवि डा० माया एंजीलोऊ की यह कविता और एक स्त्री के रोजमर्रा के काम को देखें परखें......


माया एंजीलोऊ की कविता
एक स्त्री की कर्मकथा
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

मुझे करनी है बच्चों की देखभाल
अभी कपड़ों को तहैय्या करना है करीने से
फर्श पर झाड़ू - पोंछा लगाना है
और बाज़ार से खरीद कर ले आना है खाने पीने का सामान।

अभी तलने को रखा पड़ा है चिकन
छुटके को नहलाना धुलाना पोंछना भी है
खाने के वक्त
देना ही होगा सबको संग - साथ।

अभी बाकी है
बगीचे की निराई - गुड़ाई
कमीजों पर करनी है इस्त्री
और बच्चों को पहनाना है स्कूली ड्रेस।

काटना भी तो है इस मुए कैन को
और एक बार फिर से
बुहारना ही होगा यह झोंपड़ा
अरे ! बीमार की तीमारदारी तो रह ही गई
अभी बीनना - बटोरना है इधर उधर बिखरे रूई के टुकड़ों को।

धूप ! तुम मुझमें चमक भर जाओ
बारिश ! बरस जाओ मुझ पर
ओस की बूँदों ! मुझ पर हौले - हौले गिरो
और भौंहों में भर दो थोड़ी ठंडक ।

आँधियों ! मुझे यहाँ से दूर उड़ा ले जाओ
तेज हवाओं के जोर से धकेल दो दूर
करने दो अनंत आकाश में तैराकी तब तक
जब तक कि आ न जाए मेरे जी को आराम।

बर्फ़ के फाहों ! मुझ पर आहिस्ता - आहिस्ता गिरो
अपनी उजली धवल चादरें उढ़ाकर
मुझे बर्फीले चुंबन दे जाओ
और सुला दो आज रात चैन से भरी नींद।

सूरज , बारिश , झुके हुए आसमान
पर्वतों , समुद्रों , पत्तियों , पत्थरों
चमकते सितारों और दिप - दिप करते चाँद
तुम्हीं सब तो हो मेरे अपने
तुम्हीं सब तो हो मेरे हमराज़।

5 टिप्‍पणियां:

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

बेहतरीन कविता...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत बढ़िया अनुवाद!

डॉ. साहिब!
हमें भी अनुवाद करने की प्रेरणा आप ही से मिली है!
अभी तो हम सीख ही रहे हैं!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

exellent

रश्मि प्रभा... ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
सुशील छौक्कर ने कहा…

एक अच्छी रचना से परिचय कराने के लिए आपका और सिद्धेश्वर जी का शुक्रिया। वाकई आप काबिले तारीफ काम कर रहे है।