सोमवार, 8 मार्च 2010

वह अब भी पत्थर तोड़ रही है

आज पुरानी डायरी से अपनी एक पुरानी कविता ...





वह अब भी
इलाहाबाद के पथ पर
पत्थर तोड़ रही है।
और अब भी
ढेर सारे निराला उस पर कविता लिख रहे हैं।
अब भी
नहीं उगा है कोई छायादार वृक्ष
जिसके तले
उसका बैठना किया जा सके स्वीकार।
उसके हाथ का गुरु हथौड़ा
अब भी प्रहार किए जा रहा है बार - बार।

लेकिन एक अन्तर है
जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता
धीरे - धीरे
ऊपर उठ रहे हैं उसके नत नयन
और समूचे इलाहाबाद को दो फाँक करते हुए
कहीं दूर देख रहे हैं।
अपने खुरदरे हाथों के जोर से
वह कूट - पीस कर एक कर देना चाहती है
दुनिया के तमाम छोटे - बड़े पत्थर ।

8 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

क्या बात है..गजब!

Himanshu Pandey ने कहा…

बेहतर नज़र !
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर बेहतर उपहार!
आभार ।

निर्मला कपिला ने कहा…

कहीं दूर देख रहे हैं।
अपने खुरदरे हाथों के जोर से
वह कूट - पीस कर एक कर देना चाहती है
दुनिया के तमाम छोटे - बड़े पत्थर ।
बहुत गहरे भाव लिये सुन्दर रचना । आभार

Pratibha Katiyar ने कहा…

wah!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

amazing........main to vismit hun in bhawnaaon ke nikat

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

वह तब भी पत्थर तोड़ रही थी!
वह अब भी पत्थर तोड़ रही है!
वह कब तक पत्थर तोड़ेगी?
--
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर
क्या इससे भी बेहतर गिफ़्ट है किसी के पास?

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

निराला जी की सशक्त अभिव्यक्ति!
प्रस्तुति के लिए आभार!
नारी-दिवस पर मातृ-शक्ति को नमन!

शरद कोकास ने कहा…

क्या बात है सिद्धेश्वर भाई .. हमने भी कभी कोशिश की थी लेकिन वह पन्ना ही कहीं गुम हो गया ।