रविवार, 15 मार्च 2009

भला कहीं होती भी होगी जल की उलटी दौर..

अपने निकट के इतिहास के बारे में हमारी जानकारी प्राय: कम ही है, बहुत बड़े फलक की बात न करते हुए यह मैं अपनी जानकारी और अध्ययन की सीमा में रहते हुए हिन्दी साहित्य के बारे में कह रहा हूँ. क्या यह सत्य नहीं है कि प्राचीन और मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के बारे में हम अगर कुछ जानना चाहें तो वह सहज ही उपलब्ध हो जाता है किन्तु १९वीं -२०सवीं सदी के साहित्य और साहित्यकारों के बारे में यदि कोई संदर्भ चाहिए तो वह आसानी से मिलना मुश्किल ही होता है. अब ऐसे में कोई यह काम थोड़ा आसान कर दे तो अच्छा लगता है. कुछ ऐसा ही काम जगदीश्वर चतुर्वेदी और सुधा सिंह ने 'स्त्री-काव्यधारा' जैसी किताब के माध्यम से किया है. उनके द्वारा संपादित यह संकलन बहुत काम का है.

आज प्रस्तुत है उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जन्मी और बीसवी सदी के आरंभिक दशकों में सक्रिय गोपाल देवी की एक कविता - 'भेड़ और भेड़िया' . याद रहे ऐसे समय में जब तमाम तरह के अवरोधों के बावजूद लगभग सभी स्त्रियाँ रचनात्मक धरातल पर आकर छायावादी मुख्य स्वर के संग चल रहे कोरस का अनाम अंग बनती दिखाई देती हैं तब कुछ नाम अपने काम के कारण अलग से देखे व पहचाने जाते हैं. गोपाल देवी उनमें एक प्रमुख और बड़ा नाम है. प्रस्तुत है 'स्त्री-काव्यधारा' से साभार उनकी एक कविता - 'भेड़ और भेड़िया '....

भेड़ और भेड़िया / गोपाल देवी

नदी किनारे भेड़ खड़ी एक सुख से पीती थी पानी.
एक भेड़िये ने लख उसको मन में पाप बुद्धि ठानी..
बिना किसी अपराध भला मैं इसका कैसे करूँ हनन.
उसे मरने को वह जी में लगा सोचने नया यतन..

कर विचार आकर समीप यों बोला कपट भरी बानी.
"अरी भेड़ तू बड़ी दुष्ट है क्यों करती गँदला पानी.."
क्रोध भरी लख आँख बिचारी भेड़ रही टुक वहाँ सहम.
बोली,"क्यों अपराध लगाते हो चित लाते नहीं रहम..
मैं तो पीती हूँ पानी तुम से नीचे की ओर.
भला कहीं होती भी होगी जल की उलटी दौर.."

सुन कर उसके बचन भेड़िया फिर बोला उससे ऐसे -
"पारसाल उस पेड़ तले तूने गाली दी थी कैसे ?"

डर कर भेड़ विनय से बोली मन में उसको जालिम जान.
"मैं तो आठ महीने की भी नहीं हुई हूँ कॄपानिधान !..

"कहाँ तलक तेरे अपराधों को दुष्टा मैं कहा करूँ.
तू करती है बहस वॄथा मैं भूख कहाँ तक सहा करूँ..
तू न सही तेरी माँ होगी" यों कहकर वह झपट पड़ा.
भेड़ बिचारी निरपराध को तुरत खा गया खड़ा -खड़ा.

जो जालिम होता है उससे बस नहीं चलता एक.
करने को वह जुल्म बहाने लेता ढूँढ़ अनेक..

और अगर अब हिन्दी साहित्य के इतिहास में ही उतरने का मन है देख लें कि तो एक तरह से इसी बोधकथा- कविता की एक आधुनिक काव्य प्रस्तुति गोरख पांडेय (१९४५ - १९८९) के यहाँ भी मौजूद है उनकी प्रसिद्ध कविता 'भेड़िया' में पेश है इसी का एक अंश -

पानी पिये
नदी के उस पार या इस पार
आगे-नीचे की ओर
या पीछे और ऊपर
पिये या न पिये
जूठा हो ही जाता है पानी
भेड़ गुनहगार ठहरती है
यकीनन भेड़िया होता है
ख़ून के स्वाद का तर्क.

(तस्वीर में है क्लोनिंग के जरिए बनाई गई भेड़ डॉली - चित्र बीबीसी से साभार)

6 टिप्‍पणियां:

sandhyagupta ने कहा…

Pahli baar aapka blog dekha.Ek achche anubhav ke liye dhanywaad.

महेन ने कहा…

वाह! कहाँ से खोज लाये आप ये?

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

बाँटने का शुक्रिया....!

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

जगदीश्वर चतुर्वेदी और सुधा सिंह ji ka shukriya....!!

Haan sayad ab shirsak nazar aa raha ho...??

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

गलती करे भेड़िया,
लेकिन सजा भेड़ ही पाती।
जिसकी लाठी भैंस उसी की,
दुनिया में हो जाती।।

बदल गयीं हैं रस्म आजकल,
उलट गयीं हैं चाल।
सच्चे अब झूठे कहलाते,
दुष्ट हो रहे मालामाल।।

Ek ziddi dhun ने कहा…

गोपाल देवी जी से उनकी कविताकेजरिये परिचय कराने के लिए आभार।मुझे लगता है कि सुबहही कुछहाथ आ गयाहै। इसमें से कुछ और पढ़ाइएगा