अभी बीते कल - परसों ही ( २१ - २२ दिसम्बर २००८ ) 'जनसंचार क्रान्ति में पत्रकारिता का योगदान' विषय पर संपन्न एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में सामिल होने का अवसर मिला . अकादमिक जगत में इस तरह की संगोष्ठियाँ अक्सर होती रहती हैं जिसमें लेक्चरर से रीडर व रीडर से प्रोफेसर - हेड ऒफ डिपार्टमेंट - प्रिंसीपल पद के आकांक्षी शोधार्थी -प्राध्यापक कैरियर - क्वालिफिकेशन में इजाफा, देशाटन - देशदर्शन व मित्रकुल में बढ़ोत्तरी का उद्देश्य लेकर पहुँचते हैं . हाँ , इसके साथ ही अध्ययन - अध्यापन के नये तरीकों - तजुर्बों से रू-ब-रू होने की इच्छा भी रहती है जो कि इन संगोष्ठियों को प्रायोजित करने वाली मूल उद्देश्य होता है. ऐसे मौसम में जबकि कड़ाके की सर्दी ने अपना कारनामा दिखाना शुरू कर दिया है तब उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जैसे कस्बाई शहर में १९६४ में स्थापित उपाधि स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा युवा प्राध्यापक डा० प्रणव शर्मा के संयोजकत्व में आयोजित इस सेमिनार में भी वह सब कुछ हुआ जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है किन्तु एक -दो अंतर ऐसे भी रहे जिसके कारण मुझे यह रपट जैसा कुछ लिखने की अनिवार्यता का अनुभव हो रहा है. पहला तो यह कि देश - विदेश से इसमें शामिल होने वाले प्रतिभागी केवल हिन्दी विषय के ही नहीं थे , न ही सारे पर्चे केवल हिन्दी भाषा में ही पढ़े गये और न ही यह हिन्दी सेवियों और हिन्दी प्रेमियों का कोई सम्मेलन भर बनकर 'अथ' से 'इति' की यात्रा कर पूर्ण हो गया. हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में एक वर्ष से अधिक समय से गंभीरतापूर्वक जुड़े होने के कारण यहाँ का अनुभव कुछ ऐसा रहा कि ब्लागपथ के सम्मानित सहचरों के साथ शेयर करने का मन कर रहा है लेकिन उससे पहले एक किस्सा ; तनिक सुन तो लें-
यह आज से करीब छह - सात महीना पहले की बात होगी. हिन्दी की एक लघु पत्रिका राही मासूम रज़ा के व्यक्तित्व व कॄतित्व पर एक विशेषांक निकालने की तैयारी कर रही थी .उसके कर्मठ युवा संपादक ने मुझसे राही के सिनेमा के संसार पर एक लेख लिखने के लिए कहा जिसे मैंने एक बेहद छोटे -से कस्बे से सटे एक गाँव में रहते हुए व्यवस्थित सार्वजनिक और सांस्थानिक पुस्कालय के अभाव में अपने निजी संग्रह तथा इंटरनेट पर 'विकल बिखरे निरुपाय' संदर्भों का 'समन्वय' करते हुए एक लेख तैयार किया और ईमेल से भेज दिया. वह लेख जैसा भी बन पड़ा था संपादक को ठीकठाक लगा किन्तु लेख के अंत दिए गए उन संदर्भों को उन्होंने प्रकाशित न करने की की बात कही जो विभिन्न ब्लाग्स के हवाले या रेफरेंस थे. मैंने उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की परंतु संपादक का कहना था कि ब्लाग के पते या या उस पर प्रकाशित सामग्री के लिंक को रेफरेंस में दिए जाने को हिन्दी का अकादमिक जगत सहजता से स्वीकार नहीं कर पाएगा. मैंने भी संपादकीय विशेषाधिकार में दखल नहीं दिया और अब वह लेख वैसे ही छपा है, जैसे कि संपादक का मन था फिर भी मुझे यह यकीन जरूर था कि एक न एक दिन हिन्दी का अकादमिक जगत अपने नजरिए में बदलाव अवश्य लाएगा. ऐसा हो भी रहा है, यह बात पीलीभीत के सेमिनार में जाकर पता चली.
'जनसंचार क्रान्ति में पत्रकारिता का योगदान' विषय पर संपन्न इस सेमिनार में तीन तकनीकी सत्रों में जनसंचार के विविध आयामों , उपकरणों , हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास -वर्तमान-भविष्य, प्रमुख पत्रकारों के व्यक्तित्व - कॄतित्व आकलन ,प्रिंट- इलेक्ट्रानिक मीडिया की संभावनायें तथा सीमायें, प्रचार सामग्री की प्रस्तुति में समाचार - विचार के नेपथ्य में चले जाने पर चिन्ता , भाषा और प्रौद्योगिकी, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन और हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका, जनसंचार और पत्रकारिता के अध्ययन -अध्यापन - पाठ्यक्रम की दशा - दिशा, पत्रकारिता की स्थानीयता - अंतर्राष्ट्रीयता - तात्कालिकता, पत्रकारिता से जुड़ी संस्थायें और उनकी भूमिका, पत्रकारिता की भाषा का स्वरूप आदि - इत्यादि विषयों / उपविषयों पर पचास से अधिक शोधपत्र पढ़े गए ; उदघाटन -समापन में संयोजकीय -अध्यक्षीय भाषण में जो कुछ कहा गया सो अलग. इस सेमिनार में ब्लाग और उससे जुड़े क्षेत्रों पर चार शोधपत्र प्रस्तुत किए -
१- हिन्दी विभाग,लखनऊ विश्वविद्यालय के रीडर डा० पवन अग्रवाल ने 'इंटरनेट पर विकसित जनसंचार की आधुनिक विधायें' शीर्षक अपने आलेख में पोर्टल , ब्लागजीन, एग्रीगेटर्स, माइक्रोब्लागिंग,पॊडकास्टिंग,आर्केड,विकीपीडिया आदि का उल्लेख करते हुए कहा कि " नवीन विधाओं ने जनसंचार और शिक्षा के क्षेत्र में नवीन आयाम विकसित किए हैं। तोष का विषय यह है कि हिन्दी भाषा भी इससे अछूती नहीं है और इन नवीन विधाओं से जुड़कर अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपना प्रभाव बना रही है."
२- बस्ती के युवा हिन्दी प्राध्यापक डा०बलजीत कुमार श्रीवास्तव ने 'जनसंचार की नई विधा : ब्लागिंग' शीर्षक अपने आलेख में हिन्दी के कुछ चर्चित ब्लागों का उल्लेख करते हुए प्रमुख साहित्यकार -ब्लागरों और सिनेमा की दुनिया के ब्लागरों की चर्चा करने के साथ ही इस बात को रेखांकित किया कि " पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में ब्लाग अभिव्यक्ति का स्वंत्र माध्यम बनकर उभरा है और इसने इंटरनेट पर हिन्दी भाषा भाषित्यों की नई संभावनाओं को अंतर्राष्ट्रीय परिदॄश्य में उकेरा है।"
३- डा० मधु प्रभा सिंह की प्रस्तुति 'ब्लागिंग : अभिव्यक्ति का एक उभरता सशक्त माध्यम' के माध्यम से यह सामने आया कि भोंपू, नगाड़ों, डुगडुगी ,शिलालेखों आदि से प्रारंभ हुई पत्रकारिता को इंटरनेट तक पहुँचा दिया गया है और ब्लागिंग न्यू मीडिया की अद्वितीय परिघटना के रूप में स्वीकॄत हो रही है।ब्लागिंग ने जन अभिव्यक्ति को एक सशक्त मंच दिया है. यह अपनी सीमा के बावजूद अनौपचारिक किन्तु नागरिक पत्रकारिता का ठोस माध्यम है.
४- 'हिन्दी ब्लाग : वैकल्पिक पत्रकारिता का वर्तमान और भविष्य' शीर्षक से एक अन्य आलेख इन पंक्तियों के लेखक ने प्रस्तुत किया जिसका प्रारंभिक रूप 'कर्मनाशा' के पन्नों पर का अक्टूबर माह में लगा दिया था जिसका
लिंक यह है.
हिन्दी के अकादमिक सेमिनारों में ब्लागिंग के महत्व को स्वीकार कर उस पर शोधपत्र प्रस्तुत किए जाने लगे हैं और वह चर्चा- परिचर्चा का मुद्दा बन रही है ,यह मुझे पहली बार देखने को मिला. कुछ समाचार पत्रों जैसे 'अमर उजाला' आदि के दैनिक 'ब्लाग कोना' जैसे स्तंभों और कई लोकप्रिय पत्रिकाओं में ब्लाग पर आवरण कथा तथा अन्य संदर्भों के कारण ब्लाग अब अन्चीन्हा और अपरिचित माध्यम नहीं रह गया है. हिन्दी अकादमिक बिरादरी , जिस पर यह अरोप लगता रहा है कि वह न केवल नई तकनीक से प्राय: बचने की कोशिश करती रहती है अपितु हिन्दी भाषा और साहित्य के शिक्षण - प्रशिक्षण में नवीनता के नकार के लिए कथित रूप से कुख्यात रही है अब वह ब्लाग जैसे नव्य और बनते हुए माध्यम पर बात कर रही है तो इसका स्वागत अवश्य किया जाना चाहिए.
नगरों -महानगरों में इस प्रकार के कार्यक्रम प्राय: होते रहते हैं और वहाँ सब कुछ भव्य तो होता ही है ढ़ेर सारे 'बड़े नाम' भी आयोजन का हिस्सा बनते हैं लेकिन पीलीभीत जैसे छोटे कद के शहर में एक बड़े कद का सफल आयोजन संपन्न करने के लिए ' मिश्र - शुक्ल - शर्मा ' की इस इस त्रयी ( प्राचार्य : डा० रामशरण मिश्र, हिन्दी विभागाध्यक्ष : डा० रमेशचंद्र शुक्ल और संगोष्ठी संयोजक : डा० प्रणव शर्मा) के साथ उपाधि स्नातकोत्तर महाविद्यालय के सभी प्राध्यापक और कर्मचारी बधाई के पात्र हैं . समापन अवसर पर जब मुझसे कुछ बोलने के लिए कहा गया तो बाबा मीर तक़ी 'मीर' याद आ गए , उन्होंने अपने एक शे'र में लखनऊ के ऐश्वर्य और विद्वता के मुकाबले कमतरी आँकने के लिए किसी शहर का नाम लेना चाहा था तो उन्हें पीलीभीत की याद आई थी किन्तु इस सेमिनार से लौटते हुए मुझे यह कल्पना करने में आनंद आता रहा कि आज अगर 'मीर' होते और इस संगोष्ठी में सम्मलित हुए होते तो लखनऊ से कमतरी का इजहार करने के वास्ते शायद किसी और जगह का नाम लेते पीलीभीत का तो कतई नहीं, और कुछ यूँ न कहते -
शफ़क़ से हैं दरो - दीवार ज़र्द शामो - शहर,
हुआ है लखनऊ इस रहगुजर में पीलीभीत.