बुधवार, 31 दिसंबर 2008

आओ देखें कि दुआ कैसी हौसला क्या है !



खबर कैसी है वाकया क्या है !
मुद्दआ क्या है माजरा क्या है !

पूछो मत कि हालाते-हाजरा क्या है !
वक्त बेशर्म है हया क्या है !

बदन छलनी कलेजे पे दाग ही दाग,
इस नए साल में नया क्या है !

एक रस्मी-सी रवायत मुबारकबादों की,
वैसे इस रस्म में बुरा क्या है !

सुनते हैं उम्मीद पर कायम है जहाँ,
आओ देखें कि दुआ कैसी हौसला क्या है !

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

हथेलियों में कई तरह की नदियाँ होती हैं


बच्चे कितना कुछ जानते हैं और हमें अक्सर लगता है कि हम और केवल हम ही कितना कुछ जानते हैं। पॊडकास्टिंग कैसे करते हैं? यह मेरे लिए अभी तक एक रहस्य था और इस बाबत कई लोगों से पूछा भी. कई लोगों ने इसे एक कठिन और श्रमसाध्य जुगत बताया. 'अनुनाद' ब्लाग चलाने वाले संभावनाशील युवा कवि और मेरे शहरे - तमन्ना नैनीताल के कुमाऊँ विश्वविद्यालय में उपाचार्य भाई शिरीष कुमार मौर्य ने फोन पर इसके बारे में विस्तार से जानकारी भी दी किन्तु मैं ठहरा मूढ़मति, सो ठीक से समझ न सका. कल एक कार्यक्रम में शामिल होने के सिलसिले में दिनभर घर से बाहर रहा. शाम को जब आया तो पता चला कि बच्चों ने छुट्टी का सदुपयोग करते हुए कंप्यूटर पर खूब कारीगरी की और कुछ आडियो फाइलें तैयार कर लीं. आज सुबह बच्चों ने मुझे यह करतब सिखाया और उसी का प्रतिफल यह पोस्ट है- मेरी पहली पॊडकास्ट. यह कैसी बन पड़ी है , मैं क्या कह सकता हूँ लेकिन बिटिया हिमानी और बेटे अंचल जी को शुक्रिया - थैंक्स - धन्यवाद कहने के साथ ही 'कर्मनाशा' के पाठकों के समक्ष अपनी एक पुरानी कविता 'हथेलियाँ' प्रस्तुत कर रहा हूँ जो त्रैमासिक पत्रिका 'परिवेश' (संपादक : मूलचंद गौतम) के २२वें अंक (जुलाई - सितम्बर १९९५) में प्रकाशित हुई थी -




हथेलियाँ

लोग अपनी हथेलियों का उत्खनन करते है
और निकाल लाते हैं
पुरातात्विक महत्व की कोई वस्तु
वे चकित होते है अतीत के मटमैलेपन पर
और बिना किसी औजार के कर डालते हैं कार्बन - डेटिंग.
साधारण -सी खुरदरी हथेलियों में
कितना कुछ छिपा है इतिहास
वे पहली बार जानते हैं और चमत्कॄत होते हैं.

हथेलियों में कई तरह की नदियाँ होती हैं
कुछ उफनती
कुछ शान्त - मंथर - स्थिर
और कुछ सूखी रेत से भरपूर.
कभी इन्हीं पर चलती होंगीं पालदार नावें
और सतह पर उतराता होगा सिवार.
हथेलियों के किनार नहीं बसते नगर - महानगर
और न ही लगता है कुम्भ - अर्धकुम्भ या सिंहस्थ
बस समय के थपेड़ों से टूटते हैं कगार
और टीलों की तरह उभर आते हैं घठ्ठे.

हथेलियों का इतिहास
हथेलियों की परिधि में है
बस कभी - कभार छिटक आता है वर्तमान
और सिर उठाने लगता है भविष्य.
हथेलियों का उत्खनन करने वाले बहुत चतुर हैं
वे चाहते हैं कि खुली रहें सबकी हथेलियाँ
चाहे अपने सामने या फिर दूसरों के सामने
हथेलियों का बन्द होकर मुठ्ठियों की तरह तनना
उन्हें नागवार लगता है
लेकिन कब तक
खुली - पसरी रहेंगी घठ्ठों वाली हथेलियाँ ?

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

( हिन्दी की ) अकादमिक बिरादरी में ब्लाग की उपस्थिति व अनूगूँज



अभी बीते कल - परसों ही ( २१ - २२ दिसम्बर २००८ ) 'जनसंचार क्रान्ति में पत्रकारिता का योगदान' विषय पर संपन्न एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में सामिल होने का अवसर मिला . अकादमिक जगत में इस तरह की संगोष्ठियाँ अक्सर होती रहती हैं जिसमें लेक्चरर से रीडर व रीडर से प्रोफेसर - हेड ऒफ डिपार्टमेंट - प्रिंसीपल पद के आकांक्षी शोधार्थी -प्राध्यापक कैरियर - क्वालिफिकेशन में इजाफा, देशाटन - देशदर्शन व मित्रकुल में बढ़ोत्तरी का उद्देश्य लेकर पहुँचते हैं . हाँ , इसके साथ ही अध्ययन - अध्यापन के नये तरीकों - तजुर्बों से रू-ब-रू होने की इच्छा भी रहती है जो कि इन संगोष्ठियों को प्रायोजित करने वाली मूल उद्देश्य होता है. ऐसे मौसम में जबकि कड़ाके की सर्दी ने अपना कारनामा दिखाना शुरू कर दिया है तब उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जैसे कस्बाई शहर में १९६४ में स्थापित उपाधि स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा युवा प्राध्यापक डा० प्रणव शर्मा के संयोजकत्व में आयोजित इस सेमिनार में भी वह सब कुछ हुआ जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है किन्तु एक -दो अंतर ऐसे भी रहे जिसके कारण मुझे यह रपट जैसा कुछ लिखने की अनिवार्यता का अनुभव हो रहा है. पहला तो यह कि देश - विदेश से इसमें शामिल होने वाले प्रतिभागी केवल हिन्दी विषय के ही नहीं थे , न ही सारे पर्चे केवल हिन्दी भाषा में ही पढ़े गये और न ही यह हिन्दी सेवियों और हिन्दी प्रेमियों का कोई सम्मेलन भर बनकर 'अथ' से 'इति' की यात्रा कर पूर्ण हो गया. हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में एक वर्ष से अधिक समय से गंभीरतापूर्वक जुड़े होने के कारण यहाँ का अनुभव कुछ ऐसा रहा कि ब्लागपथ के सम्मानित सहचरों के साथ शेयर करने का मन कर रहा है लेकिन उससे पहले एक किस्सा ; तनिक सुन तो लें-

यह आज से करीब छह - सात महीना पहले की बात होगी. हिन्दी की एक लघु पत्रिका राही मासूम रज़ा के व्यक्तित्व व कॄतित्व पर एक विशेषांक निकालने की तैयारी कर रही थी .उसके कर्मठ युवा संपादक ने मुझसे राही के सिनेमा के संसार पर एक लेख लिखने के लिए कहा जिसे मैंने एक बेहद छोटे -से कस्बे से सटे एक गाँव में रहते हुए व्यवस्थित सार्वजनिक और सांस्थानिक पुस्कालय के अभाव में अपने निजी संग्रह तथा इंटरनेट पर 'विकल बिखरे निरुपाय' संदर्भों का 'समन्वय' करते हुए एक लेख तैयार किया और ईमेल से भेज दिया. वह लेख जैसा भी बन पड़ा था संपादक को ठीकठाक लगा किन्तु लेख के अंत दिए गए उन संदर्भों को उन्होंने प्रकाशित न करने की की बात कही जो विभिन्न ब्लाग्स के हवाले या रेफरेंस थे. मैंने उन्हें आश्वस्त करने की कोशिश की परंतु संपादक का कहना था कि ब्लाग के पते या या उस पर प्रकाशित सामग्री के लिंक को रेफरेंस में दिए जाने को हिन्दी का अकादमिक जगत सहजता से स्वीकार नहीं कर पाएगा. मैंने भी संपादकीय विशेषाधिकार में दखल नहीं दिया और अब वह लेख वैसे ही छपा है, जैसे कि संपादक का मन था फिर भी मुझे यह यकीन जरूर था कि एक न एक दिन हिन्दी का अकादमिक जगत अपने नजरिए में बदलाव अवश्य लाएगा. ऐसा हो भी रहा है, यह बात पीलीभीत के सेमिनार में जाकर पता चली.

'जनसंचार क्रान्ति में पत्रकारिता का योगदान' विषय पर संपन्न इस सेमिनार में तीन तकनीकी सत्रों में जनसंचार के विविध आयामों , उपकरणों , हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास -वर्तमान-भविष्य, प्रमुख पत्रकारों के व्यक्तित्व - कॄतित्व आकलन ,प्रिंट- इलेक्ट्रानिक मीडिया की संभावनायें तथा सीमायें, प्रचार सामग्री की प्रस्तुति में समाचार - विचार के नेपथ्य में चले जाने पर चिन्ता , भाषा और प्रौद्योगिकी, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन और हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका, जनसंचार और पत्रकारिता के अध्ययन -अध्यापन - पाठ्यक्रम की दशा - दिशा, पत्रकारिता की स्थानीयता - अंतर्राष्ट्रीयता - तात्कालिकता, पत्रकारिता से जुड़ी संस्थायें और उनकी भूमिका, पत्रकारिता की भाषा का स्वरूप आदि - इत्यादि विषयों / उपविषयों पर पचास से अधिक शोधपत्र पढ़े गए ; उदघाटन -समापन में संयोजकीय -अध्यक्षीय भाषण में जो कुछ कहा गया सो अलग. इस सेमिनार में ब्लाग और उससे जुड़े क्षेत्रों पर चार शोधपत्र प्रस्तुत किए -

१- हिन्दी विभाग,लखनऊ विश्वविद्यालय के रीडर डा० पवन अग्रवाल ने 'इंटरनेट पर विकसित जनसंचार की आधुनिक विधायें' शीर्षक अपने आलेख में पोर्टल , ब्लागजीन, एग्रीगेटर्स, माइक्रोब्लागिंग,पॊडकास्टिंग,आर्केड,विकीपीडिया आदि का उल्लेख करते हुए कहा कि " नवीन विधाओं ने जनसंचार और शिक्षा के क्षेत्र में नवीन आयाम विकसित किए हैं। तोष का विषय यह है कि हिन्दी भाषा भी इससे अछूती नहीं है और इन नवीन विधाओं से जुड़कर अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अपना प्रभाव बना रही है."

२- बस्ती के युवा हिन्दी प्राध्यापक डा०बलजीत कुमार श्रीवास्तव ने 'जनसंचार की नई विधा : ब्लागिंग' शीर्षक अपने आलेख में हिन्दी के कुछ चर्चित ब्लागों का उल्लेख करते हुए प्रमुख साहित्यकार -ब्लागरों और सिनेमा की दुनिया के ब्लागरों की चर्चा करने के साथ ही इस बात को रेखांकित किया कि " पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में ब्लाग अभिव्यक्ति का स्वंत्र माध्यम बनकर उभरा है और इसने इंटरनेट पर हिन्दी भाषा भाषित्यों की नई संभावनाओं को अंतर्राष्ट्रीय परिदॄश्य में उकेरा है।"

३- डा० मधु प्रभा सिंह की प्रस्तुति 'ब्लागिंग : अभिव्यक्ति का एक उभरता सशक्त माध्यम' के माध्यम से यह सामने आया कि भोंपू, नगाड़ों, डुगडुगी ,शिलालेखों आदि से प्रारंभ हुई पत्रकारिता को इंटरनेट तक पहुँचा दिया गया है और ब्लागिंग न्यू मीडिया की अद्वितीय परिघटना के रूप में स्वीकॄत हो रही है।ब्लागिंग ने जन अभिव्यक्ति को एक सशक्त मंच दिया है. यह अपनी सीमा के बावजूद अनौपचारिक किन्तु नागरिक पत्रकारिता का ठोस माध्यम है.

४- 'हिन्दी ब्लाग : वैकल्पिक पत्रकारिता का वर्तमान और भविष्य' शीर्षक से एक अन्य आलेख इन पंक्तियों के लेखक ने प्रस्तुत किया जिसका प्रारंभिक रूप 'कर्मनाशा' के पन्नों पर का अक्टूबर माह में लगा दिया था जिसका लिंक यह है.

हिन्दी के अकादमिक सेमिनारों में ब्लागिंग के महत्व को स्वीकार कर उस पर शोधपत्र प्रस्तुत किए जाने लगे हैं और वह चर्चा- परिचर्चा का मुद्दा बन रही है ,यह मुझे पहली बार देखने को मिला. कुछ समाचार पत्रों जैसे 'अमर उजाला' आदि के दैनिक 'ब्लाग कोना' जैसे स्तंभों और कई लोकप्रिय पत्रिकाओं में ब्लाग पर आवरण कथा तथा अन्य संदर्भों के कारण ब्लाग अब अन्चीन्हा और अपरिचित माध्यम नहीं रह गया है. हिन्दी अकादमिक बिरादरी , जिस पर यह अरोप लगता रहा है कि वह न केवल नई तकनीक से प्राय: बचने की कोशिश करती रहती है अपितु हिन्दी भाषा और साहित्य के शिक्षण - प्रशिक्षण में नवीनता के नकार के लिए कथित रूप से कुख्यात रही है अब वह ब्लाग जैसे नव्य और बनते हुए माध्यम पर बात कर रही है तो इसका स्वागत अवश्य किया जाना चाहिए.

नगरों -महानगरों में इस प्रकार के कार्यक्रम प्राय: होते रहते हैं और वहाँ सब कुछ भव्य तो होता ही है ढ़ेर सारे 'बड़े नाम' भी आयोजन का हिस्सा बनते हैं लेकिन पीलीभीत जैसे छोटे कद के शहर में एक बड़े कद का सफल आयोजन संपन्न करने के लिए ' मिश्र - शुक्ल - शर्मा ' की इस इस त्रयी ( प्राचार्य : डा० रामशरण मिश्र, हिन्दी विभागाध्यक्ष : डा० रमेशचंद्र शुक्ल और संगोष्ठी संयोजक : डा० प्रणव शर्मा) के साथ उपाधि स्नातकोत्तर महाविद्यालय के सभी प्राध्यापक और कर्मचारी बधाई के पात्र हैं . समापन अवसर पर जब मुझसे कुछ बोलने के लिए कहा गया तो बाबा मीर तक़ी 'मीर' याद आ गए , उन्होंने अपने एक शे'र में लखनऊ के ऐश्वर्य और विद्वता के मुकाबले कमतरी आँकने के लिए किसी शहर का नाम लेना चाहा था तो उन्हें पीलीभीत की याद आई थी किन्तु इस सेमिनार से लौटते हुए मुझे यह कल्पना करने में आनंद आता रहा कि आज अगर 'मीर' होते और इस संगोष्ठी में सम्मलित हुए होते तो लखनऊ से कमतरी का इजहार करने के वास्ते शायद किसी और जगह का नाम लेते पीलीभीत का तो कतई नहीं, और कुछ यूँ न कहते -

शफ़क़ से हैं दरो - दीवार ज़र्द शामो - शहर,
हुआ है लखनऊ इस रहगुजर में पीलीभीत.


शनिवार, 20 दिसंबर 2008

कौन ?

???????
हम
साथ - साथ
तुम मुखर
मैं मौन
पूछ रहा हूं स्वयं से
तुम कौन?
मैं कौन?
?????
(चित्र परिचय : छत से जंगल और आती हुई शाम / बिटिया हिमानी द्वारा लिया गया )

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

पिया बाज पियाला पिया जाए ना : दो जुदा रंग



( अभी एकाध दिन पहले भाई प्रशांत प्रियदर्शी ने अपने ब्लाग 'मेरी छोटी सी दुनिया' पर इसी पोस्ट के शीर्षक से मिलती - जुलती एक सुरीली पोस्ट लगाई थी जिस पर उन्होंने 'कबाड़ियों' का जिक्र किया था. कबाड़ी कबीले का एक अदना सदस्य होने नाते मैंने एक टिप्पणी की थी और प्रशांत जी का बड़प्पन देखिए कि उन्होंने उसका जिक्र करते हुए अपनी पोस्ट में तत्काल कुछ जोड़ / घटाव किया साथ ही एक प्यारा सा मेल इस नाचीज को लिखा. अपनी टिप्पणी में मैने वादा किया था कि 'पिया बाज पियाला पिया जाए ना' का जो रूप मेरे संग्रह में है जिसे जल्द ही 'कबाड़खाना' या 'कर्मनाशा' पेश करँगा . आज की यह पोस्ट उसी टिप्पणी और मेल के मिलेजुले सिलसिले से बन पाई है जिसे बहुत प्रेम के साथ पी० डी० भाई यानि प्रशांत प्रियदर्शी और निरन्तर समॄद्ध होते जा रहे हिन्दी ब्लाग की छोटी-सी दुनिया के सभी सम्मानित साथियों की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ.)

पिया सूँ रात जगी है सो दिखती है सुधन सरखुश.
मदन सरखुश , सयन सरखुश , अंजन सरखुश,नयन सरखुश.

दक्षिण देशीय उर्दू काव्य के आरंभिक युग में सुलतान मुहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह 'मआनी' (१५५० - १६११) अपने पूर्ववर्ती कवियों से इसलिए अलग दिखाई देते हैं कि सिद्धान्तों के प्रतिपादन और विषयबाहुल्य के निरूपण की अपेक्षा उन्होंने न केवल मानवीय पक्ष को प्रमुखता दी है बल्कि खालिस देसी रूपकों व उपमाओं का प्रयोग करते हुए दक़नी को फ़ारसी के प्रभाव से मुक्त कर एक ऐसी काव्यभाषा की प्रस्तुति की जो हिन्दी के बहुत निकट थी. उन्होंने देसी कथानकों , देसी चरित्रों , देसी वस्त्राभूषणों और देसी रीति - रिवाजों ही नहीं वरन अपने आसपास के त्योहारों ,फलों - फूलों - तरकारियों . चिड़ियों पर भी कविता रचना की है. इस नजरिये से वे नजीर अकबरादी के जोड़ के कवि माने जाते हैं.प्रथमदॄष्टया दोनों में एक स्पष्ट अंतर यह हो सकता है 'मआनी' सुलतान थे और नजीर साधारणजन के असाधारण जनकवि.

दिल माँग खुदा किन कि खुदा काम दिवेगा.
तुमनन कि मुरादन के भरे जाम दिवेगा
.

गोलकुंडा के कुतुबशाही वंश के इस कवि , नगर निर्माता और प्रेमी नरेश का शासनकाल १५८० से १६११ तक रहा . उनकी भाषा सत्रहवीं शताब्दी की उर्दू है - एक तरह से आधुनिक उर्दू और हिन्दी की उत्स-भूमि. इस दॄष्टि से वे आज की हिदुस्तानी भाषा के निर्माताओं में से हैं. 'उर्दू साहित्य कोश' ( कमल नसीम) के हवाले से यह एक रोचक जानकारी मिलती है कि क़ुली क़ुतुबशाह उर्दू के पहले कवि हैं जिनका दीवान प्रकाशित हुआ. इस कवि-शासक ने अपनी प्रेयसी भागमती के नाम प किस 'भागनगर' या 'भाग्यनगर' का निर्माण करवाया उसे आज सारी दुनिया आई० टी० के गढ़ हैदराबाद के नाम से जानती है.अपने इस 'प्रेमनगर' से बेइंतहा मोहब्बत करने वाला यह शायर दुआ करता है कि मेरा शहर लोगों से वैसे ही भरा - पूरा रहे जिस तरह पानी मछलियों से भरा - पूरा रहता है -

मेरा शह्र लोगाँ सूँ मामूर कर ,
रखाया जूँ दरिया में मिन या समी.



रचना : क़ुली कुतुबशाह
स्वर : तलत अजीज और जगजीत कौर
संगीत : खय्याम
अलबम : 'सुनहरे वरक़'

'पिया बाज पियाला पिया जाए ना' गीत के कई एक संगीतबद्ध रूप उपलब्ध होंगे. मुझे अपने सीमित संसार में केवल तीन रूपों की जानकारी अभी तक है. पहला तो 'हुस्न--जानां' वाला रूप जिसे प्रशांत कल सुनवा चुके हैं. दूसरा रूप आप ऊपर देख -सुन रहे हैं और एक अन्य रूप फ़िल्म 'भागमती : द क्वीन ऒफ़ फ़ॊरचून्स' (निर्देशक : अशोक कौल) में संकलित है जिसे रवीन्द्र जैन के संगीत निर्देशन में रूपकुमार राठौड़ और आशा भोंसले ने गाया है. यह तीसरा रूप एक तरह से 'पिया बाज पियाला पिया जाए ना' का 'अन्य रूप' इसलिए भी है यह क़ुली क़ुतुबशाह की रचना का प्रक्षिप्त , परिवर्धित अथवा इंप्रोवाइज्ड रूप है. आज की दुनिया में यह कोई नया प्रयोग नहीं है. अत: इसे सुन लेने में कोई हज्र नहीं है. तो लीजिए प्रस्तुत है - 'जिया जाए अम्मां जिया जाए ना...



टिप्पणी : यदि क़ुली कुतुबशाह के बारे में कुछ पढ़ने का मन हो तो 'Prince, Poet, Lover, Builder : Muhammad Quli Qutb Shah The Founder of Hyderabad' ( Narendra Luther) और 'Muhammad -Quli -Qutb Shah : Founder of Haidarabad' ( Haroon Khan Sherwani ) जैसी कुछ किताबें देखी जा सकती हैं.

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी

पिछले कुछ दिनों से जी कुछ उचटा - सा है. इसलिए ब्लाग पर आना और कुछ लिखना हो नहीं पा रहा है. लगता है कि कहीं कुछ खो - सा गया है.

भाई विजयशंकर चतुर्वेदी ने 'कबाड़खाना' पर आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह 'ज़फ़र' पर तीन पोस्ट्स की एक बहुत अच्छी सीरीज पेश की है. इस 'बदनसीब' शायर से मेरा रिश्ता बहुत गहरा और पुराना है . ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते समय 'ज़फ़र' की शायरी ने इतना प्रभावित किया था कि अर्थशास्त्र की कापी में 'दो गज जमीं भी न मिली' वाली ग़ज़ल उतार डाली थी और भरी क्लास में नालायक - नाकारा की उपाधि पाई थी. और तो और उसी अंदाज में कुछ खुद भी लिखने की कोशिश की थी. यह सब बिगड़ने के शुरुआती दिन थे..

आज भाई विजयशंकर जी की पोस्ट पढ़कर 'ज़फ़र' की शायरी का सुरूर बेतरह तारी है. आइए सुनते हैं यह ग़ज़ल -स्वर है रूना लैला का...


बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी .
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ।


ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार,
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी ।


उसकी आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू ,
कि तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी.

चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन ,
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी


बुधवार, 10 दिसंबर 2008

छाप तिलक : एक बार और











यह गीत
जो भी रूप धारण कर सामने आए
हर बार भाए ।
बाबा अमीर खुसरो
आज से बरसों - बरस पहले
हिन्दी को नए चाल में
तुम्हीं तो लाए।






छाप तिलक / लता मंगेशकर और आशा भोंसले
फिल्म : मैं तुलसी तेरे आंगन की (१९७८)

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

मीठी चित्र पहेली - इस मिठाई का नाम बतायें !



बीत गई कब की दीवाली.
खील - बताशे -दीपों वाली..

खूब हुआ था धूम -धड़ाका.
मन में अंकित है वह खाका..

तरह - तरह के थे पकवान.
मन ललचाए कर के ध्यान..

जिस मीठे का चित्र लगा है .
उसके स्वाद ने खूब ठगा है..

करूँ याद मुख आए लार.
नाम बतायें इसका यार।

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

हिन्दवी - हिन्दी की पढ़ाई लिखाई बरास्ता 'छाप तिलक ...

आज से लगभग सात सौ बरस पहले की भाषा और ऐसी सरल ऐसी आमफहम ... आज प्रचलित हिन्दी भाषा का ऐसा स्पष्ट रूप....बीच के इतने वर्षों में यह कितने - कितने चोले बदलती रही और 'बहता नीर' बनकर अविराम बह रही है.-

सजन सकारे जाँयगे नैन मरेंगे रोय.
विधना ऐसी रैन कर ,भोर कभी ना होय..

अमीर खुसरो ( १२५३ - १३२५ ) का ध्यान आते ही मुझे एटा जिसे का वह छोटा - कस्बा पटियाली दिखाई देने लगता है जहाँ मैं आज तक गया नहीं. मुझे भारतीय इतिहास के वे पात्र भी इखाई देने लगते हैं जिनके दरबारों उनकी शायरी के नायाब नमूने गूँजते रहे होंगे .इतिहास की चलनी से जो भी छनकर हमारे पास तक पहुँचा है वह कितना अमूल्य है यह संगीतकारों ने बखूबी महसूस कराया है. उर्दू की पढाई - लिखाई की कोई ठोस जानकारी मेरे पास नहीं है किन्तु हिन्दी के उच्च स्तरीय पाठ्यक्रम की अपनी जानकारी और अनुभव के आधार पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि 'हिन्दवी' से 'हिन्दी' की यात्रा में इस महान साहित्यकार को हिन्दी की पढ़ने -लिखने वाली बिरादरी ने उतना मान - ध्यान नहीं दिया जितना कि संगीतकारों ने.

आज बस इतना ही हिन्दी - उर्दू - हिन्दुस्तानी के उद्भव और विकास और भाषा के सवाल पर विवाद और वैषम्य के मसले पर फिर कभी.. आइये सुनते हैं बारम्बार साधी ,सुनी और सराही गई यह रचना - छाप तिलक सब छीनी.... हिन्दुस्तानी शायरी के प्रणम्य पुरखे अमीर खुसरो के शब्द और उस्ताद नुसरत फतेह अली खान साहब का स्वर...