शनिवार, 23 मार्च 2013

चाभियों की तरह गुम हो जाते है वादे : रीता पेत्रो की कवितायें

रीता पेत्रो  आधुनिक अल्बानियाई कविता की एक  प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उनका जन्म राजधानी  तिराना में 13 मार्च, 1962 को हुआ था। अस्सी के दशक में उन्होंने तिराना विश्वविद्यालय से  अल्बानियाई भाषा और साहित्य प्रभाग में अध्ययन कर डिग्री हासिल की तथा 1993 में यूनानी दर्शन और संस्कृति में एथेंस विश्वविद्यालय में विशेषज्ञता प्राप्त की। वह लंबे समय तक  स्कूल बुक पब्लिशिंग हाउस में साहित्य संपादन का  काम कर चुकी हैं तथा भाषा और साहित्य से संबंधित प्रशिक्षण कार्यक्रमों में  भी उनकी सक्रिय भागीदारी  रही है। उनके तीन कविता संग्रह ( 'डिफेम्ड वर्स' , 'द टेस्ट आफ इंस्टिंक्ट' और ' दे आर सिंगिंग लाइव डाउन हियर') प्रकाशित हुए हैं  और विश्व की कई भाषाओं में कवितायें अनूदित हुई हैं। रीता पेत्रो की  कवितायें  कलेवर व काया के स्तर पर बड़ी न होकर विचार व संवेदना के सूक्ष्म स्तर पर बड़ी दिखाई देती हैं ; भले ही वे प्राय: ऊपरी तौर पर देह और दैहिकता की बात करने में झिझक नहीं रखतीं किन्तु वहाँ अगर  प्रेम, राग और हर्ष की स्थूल छवियाँ हैं दूसरी ओर विषाद, विराग, दु:ख और पीड़ा की अनुगूँज भी। आइए ,आज  साझा करते हैं रीता पेत्रो की पाँच कवितायें......


रीता पेत्रो की  पाँच कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

०१- तुम्हारे बिना

इस घर में
जो है खाली और जमाव की हद तक ठंडा
मुझे देती है गर्माहट
केवल तुम्हारी जैकेट।

०२- मत चाहो प्रतिज्ञायें

मुझसे मत चाहो प्रतिज्ञायें
चाभियों की तरह गुम हो जाते है वादे

मुझसे मत चाहो सतत प्रेम
पास ही दुबकी पड़ी हैं
अनंतता और मत्यु की छायायें

मत चाहो कि मैं कहूँ अनकहे शब्द
चीजों से कहीं ज्यादा अर्थ नहीं होता शब्दों का

चाहो तो बस इतना
कि मैं परिवर्तित कर सकूँ
तुम्हारे जीवन का एक क्षण।

०३- हमने पी कॉफ़ी                                                                      

हमने पी कॉफ़ी
कप के तल में बाकी रह गई थोड़ी तलछट

हमने पी सिग्रेट
कॉफ़ी की तलछट में बाकी रह गई थोड़ी  राख़

हमने उच्चारे कुछ शब्द
मेरी आवाज बाकी रह गई खाली गिलास में

हमने नहीं किया प्यार
मेरी उम्मीद बाकी रह गई
मेरे हृदय के तल - अतल में।

०४- रहने दो मुझे

रहने दो मुझे जैसी हूँ मैं
अगर नींद मुझे पकड़  लेती है पेड़ों के बीच
हो सकता मैंने पहने हों आधे - अधूरे कपड़े
रहने दो मुझे जैसी हूँ मैं।

पे्ड़ों को और मुझे भी
भाता है पहनने और निर्वसन होने का कौतुक
वे सूर्य के समक्ष करते हैं यह काम
और मैं तुम्हारे।

०५- पूर्णत्व

ईश्वर... एक पुरुष
उसने अपने आँसू में रच डाली दुनिया
दुनिया...एक स्त्री
उसने अपने दु:ख में दिया इसे पूर्णत्व।
______
(चित्र :रेनी स्वान की पेंटिंग 'लवर्स'/गूगल छवि से साभार)

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

'तालीमे - निसवाँ' : 'अकबर' इलाहाबादी की स्त्री -सुबोधिनी


आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन  मन है कि आधुनिक उर्दू कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक बड़े नाम 'अकबर' इलाहाबादी ( १८४६ - १९२१ ) की स्त्री - सुबोधिनी की बात की जाय। हालांकि अकबर साहब ने 'स्त्री - सुबोधिनी' शीर्षक कोई ग़ज़ल , नज़्म या किताब नही लिखी है लेकिन याद करें कि आज से कुछेक साल पहले अपने ग़ज़ल गायक पंकज उधास साहब जब 'निकलो ना बेनकाब जमाना खराब है' गाया करते थे तो भूमिका या 'दो शब्द' के रूप में क्या कहते थे? याद आया? यदि नहीं तो देख  कर याद करने की कोशिश करें एक बार :

बेपर्दा नजर आईं जो कल चंद बीबियाँ।
'अकबर' ज़मीं में ग़ैरते -क़ौमी से गड़ गया ।

पूछा जो उनसे आपका पर्दा वो क्या हुआ?
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया।

'अकबर' इलाहाबादी ने अपनी बात को कहने के लिए व्यंग्य की शैली अपनाई है। वे आधुनिक उर्दू कविता में व्यंग्य व तंज की ,चुटीली, चुभती पैनी धार के लिए  लिए अलग से जाने - पहचाने - याद किए  भी जाते हैं। अपने विचारों की परिवर्तनीयता की गुंजाइश के लिए उनके यहाँ पर्याप्त स्थान है। अपनी एक नज़्म 'कब तक' में वे 'परदे के चलन' के बारे में अपने विचारों को बदलते भी दिखाई देते हैं :

बिठाई जायेंगी पर्दे में बीबियाँ कब तक!
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक!

जनाबे -हज़रते - अकबर हैं हामि - ए - पर्दा,
मगर वो कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक 
!


'अकबर' इलाहाबादी की एक नज़्म है 'तालीमे - निसवाँ' जिसे बोलचाल की भाषा में समझने के लिए ' स्त्री - शिक्षा' कहा जा सकता है। इस नज़्म में उन्होंने स्त्री शिक्षा, जो उस समय के सुधारवादी युग की एक बड़ी मुहिम थी व साथ ही 'ललनाओं' और 'बीबियों' के बिगड़्ने का बायस मान लिए जाने के कारण आलोचना - प्रत्यालोचना का मैदान भी , के बाबत अपने विचार रखे हैं। यहाँ पर स्त्री शिक्षा या भारत में स्त्री विमर्श को लेकर कोई एकेडेमिक किस्म का लेख नहीं लिखा जा रहा है सो इतना भर कहना पर्याप्त होगा कि जहाँ एक ओर स्त्री शिक्षा के तमाम हामी अपने काम में लगे थे वहीं दूसरी ओर इसके बरक्स सुधारवादियों के एक गुट ने इसमें थोड़ी कतर - ब्योंत करते हुए बीच का एक रास्ता (!) निकालना चाहा था कि स्त्रियाँ पढ़े , आगे भी बढ़े किन्तु कुछ दिए गए / तय किए गए नियमों व शर्तों के अनुरूप ही। इसके तईं कई- कई  तरह की 'स्त्री - सुबोधिनी' मार्का किताबें , कितबियाँ , पोथियाँ व कवितायें - नज़्में लिखी गईं। अगर एकाध का उल्लेख करने की अनुमति हो तो डिप्टी नजीर अहमद के उपन्यास 'मिरातुल उरूस उर्फ अकबरी असगरी की कहानी' को याद किया किया जा सकता है। इस तरह की कविताओं की संख्या तो बहुत है उन पर अलग से। 'तालीमे - निसवाँ' भी इसी सिलसिले की एक नज़्म है जिसे आधुनिक भारत में स्त्री शिक्षा की एक सुबोधिनी के तौर पर देखा जा सकता है।यह अपने इतिहास में झाँकने का वह दस्तावेज है जिसे अनदेखा करना उचित नहीं। इस नज़्म के बहाने इस स्त्री शिक्षा के मुद्दे पर उर्दू और हिन्दी साहित्य को रू- ब- रू रखकर इतिहास के आईने में अपने समय व समाज की शक्ल भी देखी जा सकती है व आज की स्थिति को बीते हुए कल के आलोक में देखा जा सकता है।

आज महिला दिवस  के  मौके पर अपने हिस्से की साझी दुनिया और अपनी साझी भाषा कें भंडार को खँगालते हुए 'तालीमे - निसवाँ' के कुछ अंश आपस में साझा करते हैं, इस उम्मीद के साथ कि इस पृथ्वी को 'म से मर्द' और 'औ से औरत' के रहने के वास्ते चीरकर आधा - आधा नहीं किया जा सकता। दोनो को यहीं इकट्ठे यहीं रहना है इसी दुनिया में - इसी पृथ्वी पर - गुइयाँ - संघाती - मीत - दोस्त - साथी बनकर।


तालीमे - निसवाँ / 'अकबर' इलाहाबादी( कुछ चुनिन्दा अंश )

तालीम औरतों को भी देनी जरूर है।
लड़की जो बेपढ़ी है तो वो बेशऊर है।

हुस्ने - मआशरत में सरासर फ़ितूर है।
और इसमें वालिदैन का बेशक कुसूर है।

उन पर ये फ़र्ज़ है कि करें कोई बन्दोबस्त।
छोड़ें न लड़कियों को जहालत में शादो - मस्त।

लेकिन जरूर है मुनासिब हो तरबियत।
जिससे बिरादरी में बढ़े कद्रो - मंजिलत।

आज़ादियाँ मिज़ाज में आयें , न तमकनत।
हो वह तरीक़: जिसमें नेकी- ओ- मसलहत।

तालीम है हिसाब की भी वाजिबात से।
दीवार पर निशान तो हैं वाहियात से।

ये क्या, ज़ियादा गिन न सके पाँच सात से।
लाज़िम है काम ले वो क़लम और दवात से।

घर का हिसाब सीख लें खु़द आप जोड़ना।
अच्छा नहीं है ग़ैर पर यह काम छोड़ना।

खाना पकाना जब नहीं आया तो क्या मजा!
जौहर है औरतों के लिए यह बहुत बड़ा।

लंदन के भी रिसालों में मैंने यही पढ़ा।
मतबख़ से रहना चाहिए लेडी का सिलसिला।

सीना पिरोना औरतों का खास है हुनर।
दर्जी की चोरियों से हिफ़ाजत पे हो नजर।

औरत के दिल में शौक हो इस बात का अगर।
कपड़ों से बच्चे जाते हैं गुल की तरह सँवर।

सबसे ज़ियादा फ़िक्र है सेहत की लाजिमी।
सेहत नहीं दुरुस्त तो बेकार जिन्दगी।

खाने भी बेज़रर हों सफ़ा हो लिबास भी।
आफ़त है हो जो घर की सफ़ाई में कुछ कमी।

तालीम की तरफ अभी और इक क़दम बढ़ें ।
सेहत के हिफ़्ज़ जो क़वायद हैं वो पढ़ें ।

पब्लिक में क्या जरूर कि जाकर तनी रहो।
तक़लीदे - मग़रिबी पे अबस क्यों ठनी रहो।

दाता ने धन दिया है तो दिल की ग़नी रहो।
पढ़ लिख के अपने घर की ही देवी बनी रहो।

मशरिक़ की चाल ढाल का मामूल और है।
मग़रिब के नाज़ो - रक़्स का स्कूल और है।

दुनिया में लज़्ज़तें हैं नुमाइश है शान है।
उनकी तलब में हिर्स में सारा जहान है।

'अकबर' से सुनो कि जो उसका बयान है।
दुनिया की ज़िन्दगी फ़क़त इक इम्तिहान है।

* -------------
हुस्ने - मआशरत में = सामाजिक आचार विचार में
शादो - मस्त = प्रसन्न और मस्त
तरबियत = पालन पोषण
क़द्रो -मंजिलत = सम्मान
तमकनत = घमंड
रिसालों = पत्रिकाओं
मतबख़ = पाक कला
बेज़रर =हानि रहित
हिफ़्ज़ = सुरक्षा , रखरखाव
तक़लीदे - मग़रिबी = पश्चिम की नक़ल
अबस = व्यर्थ
ग़नी = दानी
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( चित्र : अंजलि इला मेनन की कुछ पेटिंग्स,  साभार गूगल छवि )

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

घेराबंदी से घिरे शहर के बहिरंग : वेरा पावलोवा

समकालीन रूसी कविता की एक प्रमुख हस्ताक्षर वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३ )  की बहुत सी कवितायें आप इस ठिकाने पर और अन्यत्र  पढ़ चुके है। आज इसी क्रम में प्रस्तुत हैं उनकी दो ( और) कवितायें। वेरा की कवितायें अक्सर कलेवर में बहुत ही कृशकाय होती हैं लेकिन उनके भीतर जो विचार , प्रसंग व स्थिति(यों) की सरणि विद्यमान होती है वह न केवल कई तहों में बुनी हुई रहती है बल्कि कई तहों को खोलने वाली भी होती है।  उनके यहाँ प्रेम सतह पर है; जो स्थूल भी है और उघड़ा हुआ भी  लेकिन उसी के भीतर विषाद व विराग का 'रिजोनेंस' भी  सतत उपस्थित है। उनकी कविताओं के कोई शीषक भी नहीं होते हैं प्राय:। उनकी अधिकांश कविताओं से साक्षात होते हुए पहली नजर में उन्हें  स्त्रीवादी ,  इहलौकिकतावादी , क्षणवादी , देहवादी और न जाने क्या - क्या कहा जा सकता है और इससे आगे बढ़कर  यह भी कहा जा सकता है कि अक्सर उनके प्रेम की सीमा व विस्तार का दायरा 'इरोटिसिज्म'  तक (भी )तक पहुँच जाता है। जो भी हो, उनकी कविताओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता, आइए देखते - पढ़ते हैं ये दो कवितायें....


वेरा पावलोवा की दो कवितायें
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)     


52

पीठ पर मेरी भार
गर्भ में मेरे एक प्रकाश.
अब मुझ में रहो,
उगाओ जड़ें.

जब तुम हो उपरिवत
मुझे हो रहा है भान
विजयी व गर्वित होने का
मानो  तुम्हें बाहर निकाल रही हूँ मैं
घेराबंदी से घिरे  शहर के बहिरंग।.

30                                                                         

प्रेम के बाद निढाल पसरते हुए:

"देखो
भर गई है सारी की सारी छत
सितारों से"

"और हो सकता है
उनमें से किसी एक पर
वास करता हो जीवन"
--
(चित्र : निकोलस क्रैग की चित्रकृति, गूगल छवि से साभार)

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

क्या पता कैलेन्डर को

तुम्हें निहारता रहा
बस यूँ ही
देर तक।

सहसा
सुनाई दी
वसन्त की धमक।

आज बारिश नहीं हुई। आज दिन भर लगभग ठीकठाक -सी धूप खिली रही। जाड़े की 'टापुर टुपुर' वाली नहीं तेज वाली  बारिश में दो दिन की जंगल व पहाड़ की यात्रा से लौटकर देह को  आज  थोड़ी  तपन , थोड़ी राहत मिली। परसों वसंतपंचमी के दिन  सुनने को मिला था कि क्या सचमुच वसंत आ गया? आमों पर बौर नहीं आए अभी। जंगल में डोलती तेज हवा को  (अब भी ) पेड़ों से पत्ते गिराते हुए देखा जा सकता है। कुछ - कुछ उफनाए बरसाती नाले का साक्षात्कार हमने भी किया कल और परसों। अपने भीतर व आसपास वसंत के होने उसके आगमन को महसूस करते हुए स्थूल रूप में वसंत के न होने को भी देखा, देख रहा हूँ 'ग्रामीण नयन से।' वसन्त है, उसके होने पर कोई शुबहा नहीं है लेकिन वह उस रूप में धूप में , मौसम में, खेत में , जंगल , पहाड़ , मैदान में नहीं दीखता है  जैसा कि कभी वह प्रत्यक्ष हुआ करता था। बार - बार सोचने का मन होता है कि कहीं हमारी लालसाओं और लोभ नें वसुन्धरा पर अवसरानुकूल उसके प्रकट होने की राह छेंकी है ? आज से दो साल पहले  इसी तरह की सर्दी के बीच वसन्त को याद करते हुए एक कविता लिखी थी जो 'नवगीत की पाठशाला' ब्लॉग पर प्रकाशित भी हुई थी आज उसे यहाँ 'कर्मनाशा' पर साझा कर रहा हूँ , आइए इसे देख्ते हैं......


आ गया वसंत

शिशिर का हुआ नहीं अन्त
कह रही है तिथि कि आ गया वसन्त !

क्या पता कैलेन्डर को
सर्दी की मार क्या है।
कोहरा कुहासा और
चुभती बयार क्या है।
काटते हैं दिन एक एक गिन
याद नहीं कुछ भी कि तीज क्या त्यौहार क्या है।

वह तो एक कागज है निर्जीव निष्प्राण
हम जैसे प्राणियों के कष्ट हैं अनन्त।

माना कि व्योम में
हैं उड़ रहीं पतंगें।
और महाकुम्भ में
हो रहा हर गंगे।
फिर भी हर नगर हर ग्राम में
कम नहीं हुईं अब भी जाड़े की तरंगें।

बोलो ऋतुराज क्या करें हम आज
माँग रहे गर्माहट सब दिग - दिगन्त ।

माना इस समय को
जाना है जायेगा ही।
यह भी यकीन है
कि मधुमास आयेगा ही।
फिर भी अभी और दिन भी
जाड़े का जाड़ापन ही जी भर जलायेगा ही।

आओ ओस पोंछ दें पुष्पमय सवारी की
मठ से अब निकलेंगे वसन्त बन महन्त।
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