मंगलवार, 10 मार्च 2015

नहीं भूलूंगा अपनी राह

आज प्रस्तुत हैं ट्यूनिशियाई कवि , आलोचक और प्राध्यापक मोहम्मद ग़ाज़ी की तीन कविताओं के हिन्दी अनुवाद। ये कवितायें आधुनिक अरबी साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका 'बनीपाल' से  साभार ली गई हैं और ईसा जे. बोलात के अंग्रेजी अनुवाद पर आधृत है। आइए देखें - पढ़ें इन्हें :


तीन कवितायें : मोहम्म्द ग़ाज़ी

०१- एक सितारा

अपनी कलम पकड़ो और उकेरो एक सितारा
सो जाओ तत्पश्चात
सितारे के उग आयेंगे पंख
और भोर में
वह छोड़ जाएगा एक कोरा कागज़।

०२- घोड़े

जानते हैं
केवल घोड़े
हमारे दु:खों का रहस्य
वसंत के महिमामंडन में।

०३- भटकूंगा नहीं

नहीं भूलूंगा अपनी राह
अंधेरे में
जुगनू की चमक
करेगी मेरा पथप्रदर्शन।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

किताबों की दुनिया में नव्यता का मेलजोल : कुछ नोट्स / 01

पिछले कई सालों की तरह इस साल भी नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में जाना हुआ मेला घूमना हुआ और लौट आना हुआ।  अपने ठिकाने से दिल्ली सचमुच दूर है और वहाँ की यात्रा  भी कोई सुगम नहीं फिर भी लगता है कि किताबों की दुनिया में कुछ बिताने के लिए  थोड़ी कठिनाई भी झेलनी पड़ जाय तो कोई गम नहीं। मेले से लौटकर हिन्दी की  साहित्यिक दुनिया में दीख रहे नएपन को परखने के क्रम में जो कुछ भी गुना - बुना है वह बेतरतीब लिखा है उसे सबके साथ साझा करने का मन है।  सवाल यह भी है कि जो मुझे नया लगता है वह  क्या सचमुच नया है।  जिसे हम/ सब नवता कह / मान रहे हैं वह   किस शक्ल में है ? जिस तरह कुछ किताबों के आने से नई विधागत निर्मिति की बात की जा रही है  और बेस्टसेलर  की अवधारणा के मूर्त अवतरण की  चर्चा है  उस पर क्या किसी तरह के मूल्य निर्णय की  प्रतीक्षा है या कि उसे हम तत्काल घटित होता हुआ देखना चाह रहे हैं; न केवल चाह रहे हैं बल्कि उसे इतिहास के बहीखाते में दर्ज भी कर लेना चाहते हैं। एक और बात किसी भी बात की चर्चा के  लिए  क्या उसे विचलन और विरूपण कर प्रस्तुत किया जाना जरूरी है? क्या जो कुछ भी शब्दमय होना है उसे चित्रमय किया जाय तभी उसका कोई मूल्य है? क्या परंपरा से छलांग लगाकर भी उसके साथ चले की  आपाधापी पर बात नहीं की जानी चाहिए? खैर.....

किताबों की दुनिया में......  : कुछ नोट्स / 01

नई दिल्ली में अभी - अभी  संपन्न हुए विश्व पुस्तक मेला को लेकर मैं अपने हिस्से के संवाद पटल पर जिस उपहासात्मक और ऊहात्मक तराके से कुछ- कुछ, बहुत कुछ लिखा , दिखा व पसंद किया जा रहा देख पा रहा हूँ वह हमारी 'निज भाषा उन्नति अहै' वाली हिन्दी के एक नव्यतर हिस्से की लिखत - पढ़त की संस्कृति का झाग - झाग उजाला जैसा कुछ है शायद। मेरी समझ से यह एक अभिनव लोक है; अपने पूर्वलोक से सायास अभिज्ञ होने के उत्सव में लीन- तल्लीन। इस लोक में आभास का भास -वास है। इस लोक में शब्द और उससे जुड़े तमाम चीजों की उपस्थिति उसके चाक्षुष होने से द्विगुणित - बहुगुणित होती दिखाई- सी देती है और जुगत के सहारे एवं उसकी सतत , अहर्निश उपस्थिति में मौज , मजे तथा 'फन' का ऐसा वितान रचती है जो एक साथ लुब्ध भी करता है साथ ही किंचित क्षुब्ध भी।

लुब्ध और क्षुब्ध होने की दोनो तरह की स्थितियों के मध्य मैंने अपने तरीके से किताबॊं और उसके रचने , पढ़ने, बेचने, खरीदने व उसे एक एक कौतुक में बदल देने की दुनिया में स्वयं को खोया, खोजा , पाया और कुछ - कुछ खुद को भूल भी आया। ऊपरी तौर पर यह सबकुछ स्थूल भी है और गतिमान भी। यह किसी मेले के आरंभ , उठान और अवसान की एक घटना भर है; एक ईवेंट, एक आयोजन लेकिन सोचता हूँ कि इसका कोई प्रयोजन भी होता होगा? दूसरों के लिए ,  जन के लिए , अन्य के लिए जो भी हो सो हो पर अपने तईं सोचना तो होगा ही कि निज के लिए इसका महत्व, मूल्य , मर्म व मतलब क्या है?

मेले के केन्द्र से लौटकर परिधि पर अपने काम- काज की दैनंदिन निरंतरता में शामिल होते हुए संचार के साधन- संसाधनों की माया से मिले इस फेनिल सतह पर किताब की बात को मैं पंत के शब्दों में 'देख रहा हूँ ग्रामीण नयन से' और निराला के शब्दों को याद करते हुए खुद से ही कह रहा हूँ कि ' यह है हिन्दी का स्नेहोपहार' ।

अपनी बात कहने लिए दूसरे की बात याद आए और दूसरे की कही बात अपनी लगे। मुझे एक पाठक के रूप में हमेशा लगता है कि किताबें हमें संवाद का लगभग ऐसा ही कुछ सलीका सिखाने की कोशिश करती हैं। ऐसा होने को चरितार्थ करने में ही उनका होना है। किताबों की दुनिया तात्कालिकता व त्वरितता कि दुनिया नहीं है। इस काम के पढ़ने - लिखने वालों ने अख़बार का ईजाद किया है और वह रोज बनता है , बँटता है और बेकार हो जाता है। किताब की निर्मिति , व्याप्ति और उसकी परिणति इससे भिन्न है। इसीलिए वह वस्तु होते हुए भी वस्तु नहीं है वरन एक विचार भी है जिसका होना और जिसके होने को सहेजना , सराहना एवं सतत सचल रखने की सोचना , करना साथ ही करते हुए दिखाई देना अच्छा लगता है।

गुणीजन कह गए हैं कि कुछ भी स्थिर नहीं है। सबकुछ परिवर्तनशील है। सबकुछ जैसा है उसी में उसके नया होने की गुंजाइश है।नए का स्वागत भी किया जाना चाहिए और उसे थम कर , ठहर कर, थिर होकर देखा भी जाना चाहिए कि इसमें नया क्या है? भारतेन्दु और उनके खेवे के लोग बहुत पहले कह गए हैं कि 'हिन्दी नई चाल में ढली'। अब दुनिया है तो नई चाल में चलेगी ही और भाषा है तो नई चाल में ढलेगी ही। पिछले साल मेले में घूमते - डोलते जिन तरह के नएपन को देखा - निरखा था वह इस बार और स्पष्ट हुआ है इसीलिए मैं इसे जान - समझकर झाग - झाग उजाला कह रहा हूँ कि यह एक ऐसी सतह है जो बन रही है, अपनी व्युत्पत्ति में वर्तमान है। यह पहले कुछ ज्यादा आभासी थी अबकी यह ज्यादा भास्वर हुई है किताब की शक्ल में भी और किताब से जुड़े तमाम तरह के कार्यव्यापार में भी।

हिन्दी के किताबों की दुनिया और उससे जुड़े सबसे बड़े मेले में मेरी निगाह ने देखा कि किताबों की कमी नहीं, विविधता पहले अधिक मुखर हुई है। नए माध्यम अपनी नव्यता में नए लेखक भी लाए हैं और नए पाठक सह प्रशंसक भी। इस बात को परिमाण - प्राचुर्य के रूप में देखने लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। मेले में इसकी धमक साफ सुनाई - दिखाई दे जाती है। नई रचनाशीलता ने सृजन की नई सक्रियता के सहचर -सहउत्पाद के रूप में नए किस्म का 'पब्लिक स्फीयर' भी निर्मित किया है जो मुझ जैसे परंपरागत पाठक को थोड़ा असहज भी करता है और उत्साहित भी। यह सतत वर्तमान काल की एक ऐसी कथा है जो बन रही है लेकिन प्रश्न है कि क्या यह कुछ बना भी रही है?

किताबें बनी रहें। उनका लोकार्पण विमोचन बना रहे। उनको खरीदने - पढ़ने वाले बने रहें। किताबों से बने , बनाए जा रहे सेलेब्रिटी और उनके फैन्स- फालोअर्स बने रहें। मेला बना रहे । मेले के बहाने मेलजोल , भेट - मुलाकात का सिलसिला बना रहे। जो खरीदा - बटोरा है उसे उसे पढ़ - गुनकर कुछ कहने - सुनने की बात बनी रहे। और सबसे जरूरी चीज...सहमति - असहमति के लिए स्पेस बना रहे।

फिर भी ; तमाम अन्य बातों के समान- असमान रहने के साथ ही बकौल शमशेर 'बात बोलेगी' के बतर्ज...
किताब बोलेगी
हम नही
भेद खोलेगी, किताब ही....।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

बच्चों का कोई देश नहीं होता

अतौल बहरामुग्लू ( जन्म : 13 अप्रेल  1942 )  तुर्की के एक चर्चित कवि हैं। वे  तुर्की लेखक संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं । अब तक  उनकी बीस किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं और दुनिया की कई भाषाओं में उनके काम का अनुवाद हुआ है। उन्होंने नाजिम हिकमत व्लादिमीर मायकोवस्की की कविताओं के तुलनात्मक अध्ययन पर विश्वविद्यालय की  स्नातकोत्तर उपाधि हासिल की। अतौल तुर्की के न केवल एक बड़े कार्यकर्ता हैं बलिकि अन्य कई अनुशासनों और राजनीतिक - सामाजिक मोर्चों पर पर भी सक्रिय हैं। उन्होंने लर्मन्तोव , तुर्गनेव, पुश्किन,  चेख़व , गोर्की , लुई अरागां , ब्रेख़्ट, नेरुदा , यानिस रित्सोस जैसे विश्व प्रसिद्ध साहित्यकरों की रचनाओं का अनुवाद किया है। फि़लहाल वे इस्तांबुल विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर के रूप में काम करते हैं और पत्र- पत्रिकाओं में सामयिक विषयों पर लिखते हैं। उनकी महत्वपूर्ण किताबों में ' वन डे डेफिनेटली' ,' माई सैड कंट्री' , 'माई ब्यूटिफुल लैंड' , ''लेटर्स टु माई डॉटर' ' अ लिविंग पोएट्री' चर्चित - समदृत हैं।


अतौल बहरामुग्लू की कविता
बच्चों का  कोई देश नहीं होता
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

बच्चों का  कोई देश नहीं होता
इसे मैंने पहली बार अपने वतन से दूर रहकर महसूस किया
बच्चों का कोई देश नहीं होता
जिस तरह वे संभालते हैं अपना सिर वह होता है एक जैसा
जिस तरह वे टकटकी लगाए देखते हैं, एक जैसी जिज्ञासा लगती है उनकी आँखों मे
जब वे रोते हैं एक जैसी होती है उनकी आवाज की लय।

बच्चे मानवता का प्रस्फुटन हैं
गुलाबों में सबसे प्यारे गुलाब, सबसे अच्छी गुलाब की कलियाँ
कुछ होते हैं रोशनी के सबसे सच्चे टुकड़े
कुछ होते हैं कल छौंहे काले द्राक्ष।

पिताओ, उन्हें अपने मस्तिष्क से निकल न जाने दो
माताओ, संभालो - सहेजो अपने बच्चों को
चुप करो उन्हें, चुप करो मत बात करने दो उनसे
जो बातें करते हैं युद्ध और बर्बादी की

आओ हम छोड़ दें ताकि वे बढ़ सकें भावावेश में
ताकि वे अंकुरित हों और उग सके पौधों की तरह
वे तुम्हारे नहीं, हमारे नहीं, किसी एक के भी नहीं
सबके हैं , पूरी दुनिया के
वे हैं मनुष्यता की आँख की पुतलियाँ।

मैंने यह पहली बार अपने वतन से दूर महसूस किया
कि बच्चों का कोई देश नहीं होता
बच्चे मनुष्यता का प्रस्फुटन हैं
और हमारे भविष्य की एक नन्ही उम्मीद।

रविवार, 30 नवंबर 2014

नीली नदी एक बहती है : अपर्णा अनेकवर्णा की कवितायें

सबसे पहले तो 'कर्मनाशा' के पाठकों और प्रेमियों से इस बात के लिए क्षमा कि अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी के काम  में इस बीच लंबा व्यवधान व विराम हो गया है। यह आगे जारी न रहे ऐसी पूरी कोशिश रहेगी। इस ठिकाने पर  साझेदारी के क्रम को गति देते हुए आज प्रस्तुत हैं अपर्णा अनेकवर्णा की तीन कवितायें। कुछ ब्लॉग्स तथा फेसबुक पर  उनकी सृजनात्मक उपस्थिति से रू-ब-रू होते  मेरी इच्छा थी कि गहन संवेदना की  सहज अभिव्यक्ति करने वाले इस रचनाकार से  कविता प्रेमियों को मिलवाया जाय। इस काम में देर हुई है उसके लिए पुन: क्षमा चाहते हुए  प्रस्तुत हैं अपर्णा अनेकवर्णा की तीन ये कवितायें...... और हाँ , उनकी एक कविता  पर आधारित सुंदर पोस्ट भाई पंकज  दीक्षित ने  तैयार किया है। तो  आइए , पढ़ते हैं ये कवितायें.....


अपर्णा अनेकवर्णा की तीन कवितायें

* प्रेत-ग्राम 

वो डूबता दिन.. कैसा लाल होता था..
ठीक मेरी बांयी ओर..
दूर उस गाँव के पीठ पीछे जा छुपता था
सूरज.. तनिक सा झाँक रहता..
किसी शर्मीले बच्चे की तरह

दिन भर अपने खेतों पर बिता..
'समय माई' को बताशा-कपूर चढ़ा..
जब लौटते थे हम शहर की ओर
यही दृश्य होता हर बार..
ठीक मेरी बांयी ओर..

मुझे क्यों लगता..
जैसे कोई प्रेत-ग्राम हो
मायावी सा.. जन-शून्य..
घर ही घर दीखते.. आस पास..
कृषि-हीन.. बंजर ज़मीन..

शायद भोर से ही झींगुर
ही बोला करते वहां...
सिहरा देता वो उजड़ा सौंदर्य..
डरती.. और मंत्रमुग्ध ताका भी करती..
लपकती थीं कई कथाएं.. मुंह बाये..

कुछ भी कल्पित कहाँ था..
वो सच ही तो था.. हर गाँव का
कुकुरमुत्ते सा उग आया था..
कौन बचा था जवान.. किसान..
सब मजूरा बन बिदेस सिधारे

बची थीं चंद बूढी हड्डियां..
उनको संभालती जवान बहुएं..
जवान बहुओं की निगरानी में..
वही.. चंद बूढी हड्डियां...
और घर वापसी के स्मृति चिन्ह..
धूल-धुसरित कुछ बच्चे..

महानगर.. सउदिया...
लील गए सारे किसान.. जवान..
रह गए पीछे.. बस ये कुछ प्रेत-ग्राम..

** डर

आज रात में भी डर नहीं लगता..
आज जंगल झींगुर का शोर..
सियार की पुकार नहीं..
आज जंगल माँ की गोद है..
माँ कहाँ गयी होगी..
कांपता है मन और
निचला होंठ मन की तरह ही
कांपने लगता है..
बाकी के दो चेहरे धुंधलाने लगते हैं..

बस वो शोर गूंजता रहता है
बकरियां जिबह हो रही हैं शायद..
उन्हें भूख लगी हो शायद..
शायद वो इसलिए नाराज़ हैं
बकरियां रोती भी हैं क्या?
बड़ी सी लाल पीली रौशनी..
रंग रही है रात

भुनी महक से पहले कभी कै नहीं हुयी..
आज सालों बाद मुनीर ने निकर गीली की..
क्यों.. कौन... कुछ नहीं समझ आ रहा..

सब बहुत नज़दीक है..
बहुत..
मेरे 'कम्फर्ट-जोन' में दखल करता..
आँखें खुल जाती हैं..
अभी पढ़कर रखा अख़बार उठाकर
रद्दी के ढेर में पटक आती हूँ..
शब्द वहां से भी मुझे ललकार रहे हैं
जिनके अर्थ से कतरा रही हूँ..
मुझे दिन भी तो शुरू करना है..

*** नदी चुपचाप बहती है 

नीली नदी एक बहती है
चुपचाप..
सरस्वती है वो.. दिखती नहीं..
बस दुखती रहती है..

सब यूँ याद करते हैं जैसे बीत गयी हो...
नहीं खबर.. न परवाह किसी को भी कि..
धकियाई गयी है सिमट जाने को
अब हर ओर से खुद को बटोर..
अकेली ही बहती रहती है..

नित नए.. रंग बदलते जहां में..
अपना पुरातन मन लिए एक गठरी में..
बदहवास भागी थी..
कहीं जगह मिले...

हर उस हाथ को चूम लिया
जिसने अपना हाथ भिगोया..
फिर ठगी देखती रही..
राही उठ चल दिया था..

पानी पी कर उठे मुसाफिर..
कब रुके हैं नदियों के पास?
उन्हें सफर की चिंता और मंज़िलों की तलाश है
नदियां बस प्यास बुझाती हैं
यात्रा की क्लांति सोख कर
पुनर्नवा कर देती हैं...

और जाने वाले को..
स्नेह से ताकती रहती हैं
जानती हैं.. वो लौटेंगे..
फिर से चले जाने के लिए..

पर सरस्वती सूख गयी..
पृथु-पुत्रों का रूखपन सहन नहीं कर सकी
माँ की कोख में लौट गयी..
अब विगत से बहुत दूर..
चुप चाप बहती रहती है...

दिखती नहीं.. सिर्फ दुखती रहती है..
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अपर्णा अनेकवर्णा मूल रूप से गोरखपुर की हैं। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य से एम०ए० किया है और लगभग सात वर्षों तक 'पर्पल आर्क फिल्म्स' में प्रोडक्शन असिस्टेंट तथा 'डेल्ही मिडडे'  में एक पत्रकार के रूप में कार्यरत रहीं। विवाहोपरांत गृहणी का जीवन, अपनी बेटी रेवा और पति निलेश भगत के साथ नयी दिल्ली में व्यतीत कर रही हैं। साहित्य पढने में रूचि शुरू से रही है। लगभग ढेढ़ वर्ष पूर्व लेखन प्रारंभ किया। हिन्दी व अंग्रेजी में समान अधिकार के साथ  कवितायें लिखने वाली अपर्णा एक कुशल अनुवादक भी हैं। इससे पूर्व इनकी कवितायेँ 'गुलमोहर' काव्य संकलन, 'कथादेश' (मई, २०१४) तथा 'गाथांतर' (अप्रैल-जून, २०१४) में प्रकाशित हो चुकी हैं. उनका रचनाकर्म 'गाथांतर', 'स्त्रीकाल', 'पहली बार' जैसे महत्वपूर्ण ब्लॉग्स पर  साझा हुआ है। उनके  दो संकलन जल्द ही  प्रकाशित होने जा रहे हैं।