पिछले कई सालों की तरह इस साल भी नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में जाना हुआ मेला घूमना हुआ और लौट आना हुआ। अपने ठिकाने से दिल्ली सचमुच दूर है और वहाँ की यात्रा भी कोई सुगम नहीं फिर भी लगता है कि किताबों की दुनिया में कुछ बिताने के लिए थोड़ी कठिनाई भी झेलनी पड़ जाय तो कोई गम नहीं। मेले से लौटकर हिन्दी की साहित्यिक दुनिया में दीख रहे नएपन को परखने के क्रम में जो कुछ भी गुना - बुना है वह बेतरतीब लिखा है उसे सबके साथ साझा करने का मन है। सवाल यह भी है कि जो मुझे नया लगता है वह क्या सचमुच नया है। जिसे हम/ सब नवता कह / मान रहे हैं वह किस शक्ल में है ? जिस तरह कुछ किताबों के आने से नई विधागत निर्मिति की बात की जा रही है और बेस्टसेलर की अवधारणा के मूर्त अवतरण की चर्चा है उस पर क्या किसी तरह के मूल्य निर्णय की प्रतीक्षा है या कि उसे हम तत्काल घटित होता हुआ देखना चाह रहे हैं; न केवल चाह रहे हैं बल्कि उसे इतिहास के बहीखाते में दर्ज भी कर लेना चाहते हैं। एक और बात किसी भी बात की चर्चा के लिए क्या उसे विचलन और विरूपण कर प्रस्तुत किया जाना जरूरी है? क्या जो कुछ भी शब्दमय होना है उसे चित्रमय किया जाय तभी उसका कोई मूल्य है? क्या परंपरा से छलांग लगाकर भी उसके साथ चले की आपाधापी पर बात नहीं की जानी चाहिए? खैर.....
किताबों की दुनिया में...... : कुछ नोट्स / 01
नई दिल्ली में अभी - अभी संपन्न हुए विश्व पुस्तक मेला को लेकर मैं अपने हिस्से के संवाद पटल पर जिस उपहासात्मक और ऊहात्मक तराके से कुछ- कुछ, बहुत कुछ लिखा , दिखा व पसंद किया जा रहा देख पा रहा हूँ वह हमारी 'निज भाषा उन्नति अहै' वाली हिन्दी के एक नव्यतर हिस्से की लिखत - पढ़त की संस्कृति का झाग - झाग उजाला जैसा कुछ है शायद। मेरी समझ से यह एक अभिनव लोक है; अपने पूर्वलोक से सायास अभिज्ञ होने के उत्सव में लीन- तल्लीन। इस लोक में आभास का भास -वास है। इस लोक में शब्द और उससे जुड़े तमाम चीजों की उपस्थिति उसके चाक्षुष होने से द्विगुणित - बहुगुणित होती दिखाई- सी देती है और जुगत के सहारे एवं उसकी सतत , अहर्निश उपस्थिति में मौज , मजे तथा 'फन' का ऐसा वितान रचती है जो एक साथ लुब्ध भी करता है साथ ही किंचित क्षुब्ध भी।
लुब्ध और क्षुब्ध होने की दोनो तरह की स्थितियों के मध्य मैंने अपने तरीके से किताबॊं और उसके रचने , पढ़ने, बेचने, खरीदने व उसे एक एक कौतुक में बदल देने की दुनिया में स्वयं को खोया, खोजा , पाया और कुछ - कुछ खुद को भूल भी आया। ऊपरी तौर पर यह सबकुछ स्थूल भी है और गतिमान भी। यह किसी मेले के आरंभ , उठान और अवसान की एक घटना भर है; एक ईवेंट, एक आयोजन लेकिन सोचता हूँ कि इसका कोई प्रयोजन भी होता होगा? दूसरों के लिए , जन के लिए , अन्य के लिए जो भी हो सो हो पर अपने तईं सोचना तो होगा ही कि निज के लिए इसका महत्व, मूल्य , मर्म व मतलब क्या है?
मेले के केन्द्र से लौटकर परिधि पर अपने काम- काज की दैनंदिन निरंतरता में शामिल होते हुए संचार के साधन- संसाधनों की माया से मिले इस फेनिल सतह पर किताब की बात को मैं पंत के शब्दों में 'देख रहा हूँ ग्रामीण नयन से' और निराला के शब्दों को याद करते हुए खुद से ही कह रहा हूँ कि ' यह है हिन्दी का स्नेहोपहार' ।
अपनी बात कहने लिए दूसरे की बात याद आए और दूसरे की कही बात अपनी लगे। मुझे एक पाठक के रूप में हमेशा लगता है कि किताबें हमें संवाद का लगभग ऐसा ही कुछ सलीका सिखाने की कोशिश करती हैं। ऐसा होने को चरितार्थ करने में ही उनका होना है। किताबों की दुनिया तात्कालिकता व त्वरितता कि दुनिया नहीं है। इस काम के पढ़ने - लिखने वालों ने अख़बार का ईजाद किया है और वह रोज बनता है , बँटता है और बेकार हो जाता है। किताब की निर्मिति , व्याप्ति और उसकी परिणति इससे भिन्न है। इसीलिए वह वस्तु होते हुए भी वस्तु नहीं है वरन एक विचार भी है जिसका होना और जिसके होने को सहेजना , सराहना एवं सतत सचल रखने की सोचना , करना साथ ही करते हुए दिखाई देना अच्छा लगता है।
गुणीजन कह गए हैं कि कुछ भी स्थिर नहीं है। सबकुछ परिवर्तनशील है। सबकुछ जैसा है उसी में उसके नया होने की गुंजाइश है।नए का स्वागत भी किया जाना चाहिए और उसे थम कर , ठहर कर, थिर होकर देखा भी जाना चाहिए कि इसमें नया क्या है? भारतेन्दु और उनके खेवे के लोग बहुत पहले कह गए हैं कि 'हिन्दी नई चाल में ढली'। अब दुनिया है तो नई चाल में चलेगी ही और भाषा है तो नई चाल में ढलेगी ही। पिछले साल मेले में घूमते - डोलते जिन तरह के नएपन को देखा - निरखा था वह इस बार और स्पष्ट हुआ है इसीलिए मैं इसे जान - समझकर झाग - झाग उजाला कह रहा हूँ कि यह एक ऐसी सतह है जो बन रही है, अपनी व्युत्पत्ति में वर्तमान है। यह पहले कुछ ज्यादा आभासी थी अबकी यह ज्यादा भास्वर हुई है किताब की शक्ल में भी और किताब से जुड़े तमाम तरह के कार्यव्यापार में भी।
हिन्दी के किताबों की दुनिया और उससे जुड़े सबसे बड़े मेले में मेरी निगाह ने देखा कि किताबों की कमी नहीं, विविधता पहले अधिक मुखर हुई है। नए माध्यम अपनी नव्यता में नए लेखक भी लाए हैं और नए पाठक सह प्रशंसक भी। इस बात को परिमाण - प्राचुर्य के रूप में देखने लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। मेले में इसकी धमक साफ सुनाई - दिखाई दे जाती है। नई रचनाशीलता ने सृजन की नई सक्रियता के सहचर -सहउत्पाद के रूप में नए किस्म का 'पब्लिक स्फीयर' भी निर्मित किया है जो मुझ जैसे परंपरागत पाठक को थोड़ा असहज भी करता है और उत्साहित भी। यह सतत वर्तमान काल की एक ऐसी कथा है जो बन रही है लेकिन प्रश्न है कि क्या यह कुछ बना भी रही है?
किताबें बनी रहें। उनका लोकार्पण विमोचन बना रहे। उनको खरीदने - पढ़ने वाले बने रहें। किताबों से बने , बनाए जा रहे सेलेब्रिटी और उनके फैन्स- फालोअर्स बने रहें। मेला बना रहे । मेले के बहाने मेलजोल , भेट - मुलाकात का सिलसिला बना रहे। जो खरीदा - बटोरा है उसे उसे पढ़ - गुनकर कुछ कहने - सुनने की बात बनी रहे। और सबसे जरूरी चीज...सहमति - असहमति के लिए स्पेस बना रहे।
फिर भी ; तमाम अन्य बातों के समान- असमान रहने के साथ ही बकौल शमशेर 'बात बोलेगी' के बतर्ज...
किताब बोलेगी
हम नही
भेद खोलेगी, किताब ही....।