शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

प्रारब्ध और उत्सव : मारिओ विर्ज़

इस ठिकाने पर जर्मन कवि  , कथाकर और अभिनेता मारिओ विर्ज़  की एक  कविता  'इंटरनेट  लाइफ़' का अनुवाद पहले भी पढ़ चुके हैं। आज प्रस्तुत हैं उनकी दो बेहद छोटी कवितायें। मारिओ  के रचनाकर्म का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनकी मशहूर किताबों में 'इट्'ज लेट आइ कांट ब्रीद' , 'आइ काल द वूल्व्स' शामिल हैं।


मारिओ विर्ज़ की दो कवितायें

प्रारब्ध

समुद्रों के
अतल तल में
शयन कर रहे हैं देवगण
और स्वप्न देख रहे हैं
हमारे प्रारब्ध का।

कभी - कभी वे बदलते हैं करवट
और आते हैं तूफान
होती है उथल - पुथल।

उत्सव                                                                                                          

बारिश में 
गुलाबों का धमाल
एक आनंदोत्सव है
मदिरा में डूबी हुई  रात में।
ऐन हमारी खिड़कियों के सामने
वे करते हैं किलोल
तब,  जबकि हम
डूबे हुए होते हैं नींद में।
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(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह  / पेंटिंग : कैरोल शिफ़  की  कृति  'द सी' , गूगल छवि से साभार)

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

क्योंकि वह एक परिवार खड़ा करना चाहते थे : रबिया अल ओसैमी

विश्व कविता से  अपनी  पसंदीदा कविताओं  के अनुवादों के जारी  सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए आइए आज पढ़ते हैं  एक छोटी - सी कविता  जिसका शीर्षक है 'फैमिली फोटो' । अपनी बात और  व्याप्ति में एक बेहद साधारण  और लगभग रोजमर्रा की की दुनिया को देखे जाने की एक निगाह का हमारा जाना - पहचाना दृश्य। लेकिन  इसकी साधारणता में  निहित विशिष्टता इसे कुछ अलग बनाती है ; ऐसा मुझे लगता है। 1975 में जन्मी सना, यमन की युवा कवि रबिया अल ओसैमी की यह कविता हो सकता है कि  आपको पसंद आए :


रबिया अल ओसैमी की कविता
फैमिली फोटो

वह जो खड़े हैं फोटो के बिल्कुल बीचोबीच
वे मेरे पिता है
वे एक परिवार खड़ा करना चाहते थे
ताकि आगे ले जा सकें अपना नाम
और उसका चित्र टांग सकें दीवार पर।

मेरी बड़ी बहन
खड़ी है एकदम दाहिने छोर पर
क्योंकि वह बहुत दूर तक नहीं ले जा सकती थी उनका नाम।

और क्योंकि यही सब मेरे साथ था
इसलिए मैं खड़ी हूँ फोटो के एकदम बायें छोर पर    

पाँच भाई हैं मेरे
जो चिपक कर खड़े हैं मेरे पिता के आजू - बाजू
वे  आगे ले जा सकते हैं उनका नाम
लेकिन बहुत दूर तक नहीं
हालांकि बहुत वजनी नहीं है पिता का नाम
कि उसे ढोने ने लिए
पैदा की जाय लड़कॊ की एक टोली।

और अब उसके बारे में एक उल्लेख
जो खड़ी है मेरी बहन के बगल में
वह मेरी माँ है
बेचारी औरत....वह ब्याही गई मेरे मेरे पिता के संग
क्योंकि वह एक परिवार खड़ा करना चाहते थे
ताकि आगे ले जा सकें अपना नाम
और उसका चित्र टांग सकें दीवार पर।
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(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह  / पेंटिंग : फेथ टे  की  कृति  'गीन चिली पेपर फैमिली '  , गूगल छवि से साभार)

रविवार, 10 नवंबर 2013

मैं एक आदमी को जानता हूँ : येहूदा आमीखाई की दो कवितायें

ठीक है ,  यह कहा जाता है कि जो (चीज) अनुवाद में खो जाए वही कविता है लेकिन यह भी सच है कि अनुवादों के जरिये ही दुनिया भर की कवितायें दुनिया भर की भाषाओं में यात्रा करती रहती हैं और कविता प्रेमियों की सोच - समझ की आवाजाही के वास्ते एक साझा - सहज - समतल  पुल मुहैया कराने का काम करती रहती हैं। अनुवादों ने एक काम यह भी किया है कि बहुत सारे कवियों को उनकी भाषाओं की चौहद्दी से  निकाल  कर उनके  प्रेमियों व पाठकों की निज की भाषा का अपना कवि बना दिया है। हिब्रू भाषा  के  विश्व प्रसिद्ध कवि येहूदा आमीखाई ( १९२४ - २०००) उन कवियों में से हैं  जिन्हें हिन्दी  के कविता  प्रेमियों की बिरादरी  ने बहुत मान दिया है।  इस ठिकाने पर  विश्व कविता के की समृद्ध थाती से  पसंद की गईं कविताओं की  अनुवाद - साझेदारी के सिलसिले को आगे बढ़ाने के क्रम में आज प्रस्तुत हैं उनकी की  दो छोटी कविताये :


येहूदा आमीखाई  की दो कवितायें  
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

 01- किसी को भूलना

किसी को भूलना
जैसे कि  बत्ती बंद करना भूल जाना पिछवाड़े की
सो , वह जली रहती है
सारा - सारा दिन अगले दिन।

लेकिन यह रोशनी ही है
जो कि आपको दिलाती है याद।

02- मैं एक आदमी को जानता हूँ

मैं एक आदमी को जानता हूँ
जिसने तस्वीर उतारी उस दृश्य की
जो कि उसे दिखा उस कमरे की खिड़की से
जहाँ किया गया था प्यार

उसने तस्वीर उतारी
लेकिन उस स्त्री के चेहरे की  नहीं
जिससे इसी जगह किया गया था प्यार।

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

मैंने कविताओं का शिकार करना ठीक समझा

विश्व कविता के अपने पसंदीदा अनुवादों  के क्रम को अग्रसर करते हुए आज प्रस्तुत हैं ईथोपिया के युवा कवि ब्यूक्तू सेयुम की दो कवितायें। वे न केवल  कवि हैं बल्कि हास्य के अच्छे  पर्फ़ार्मर और कथाकार भी हैं। 2008 में उन्हे सर्वश्रेष्ठ युवा कवि का  राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। 'इन सर्च आफ फैट ' कविता संग्रह के जरिए कविता प्रेमियों की  चर्चा में आए इस कवि  की कुछ कवितायें आप यहाँ पढ़ेंगे  और जल्द ही उनका एक इंटरव्यू भी । आइए , आज  पढ़ते - देखते हैं ये  बेहद छोटी दो कवितायें जिनकी  ऊपरी गठन तो छरहरी व कृशकाय है  लेकिन  उनके भीतर  की कहन या कथ्य  की बात इतनी मामूली भी नहीं है जितनी कि वह दिखाई देती है  या कि जिसे  अपने रोजमर्रा के कार्य - व्यापार में हम  बहुत साधारणता से देखने के कायल अथवा अभ्यस्त हैं :


ब्यूक्तू सेयुम की दो कवितायें

01- ब्रह्मांड की सजावट करते हुए

भीड़ में
लोगों के जंगल में पलायन करने के बनिस्बत
जहाँ मुमकिन थी मेरी देह की दुर्गत
मैंने कविताओं का शिकार करना ठीक समझा
और खुले हाथ खर्च करता रहा कविता को।

लेकिन
कविताओं से ज्यादा ईमानदार हैं मक्खियाँ
जबकि
मैं सजावट करता रहा ब्रह्मांड की
उन्होंने मुझे दिखा दिया
कि धूल और गर्द - गुबार से भरा  पड़ा है मेरा कमरा।

02- सड़क जो कहीं नहीं जाती                                                                                                                                           
कोई है
जो दीखना चाहता है बहुत जल्दबाजी में
कोई है
जो दीखना चाहता है बहुत तेजी में
कोई है
जो ड्राइव करता है बढ़िया तरीके से कार
कोई है
जो पहनता है डिजाइनर जूते
और कोई है , जो है बिल्कुल नंगे पांव।

ये सारे बुद्धिजीवी और अंगूठाछाप
सड़क पर यात्रा कर रहे हैं अनवरत
ऊपर से नीचे
इस छोर से उस छोर तक
हो गया है जबरदस्त भीड़- भड़क्का
देखो तो
वे कैसे डोल रहे हैं आगे - पीछे , पीछे - आगे
और किसी को भी  दरकार नहीं कि मिले गंतव्य।
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(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह  / पेंटिंग : सैम फ्रांसिस   की  कृति  'अनटाइटल्ड'  , गूगल छवि से साभार)

रविवार, 3 नवंबर 2013

उल्लू :रस्किन बांड की कविता

आज दीपावली है  या अब यों कहें कि दीपावली अब हो ली है। अब जबकि लगभग आधी रात हो चली है और पटाखों का शोर कुछ कम हो गया है लेकिन  बाहर की जगमग में कोई कमी नहीं आई है और  अपन घर के अंदर की अपनी  छोटी - सी  दुनिया में  कुछ लिखत - पढ़त  के काम में  लगे  - से हैं  तो  उपेक्षित  समझे , माने जाने वाले  पक्षी  उल्लू पर बहुत  प्यार आ रहा है और यह एक छोटी- सी कविता के  कारण  संभव हो  पा रहा है नहीं तो हमारे आसपास की दुनिया में  रात के इस पाखी उल्लू को अशुभ, अशगुन , असुंदर मानने - मनवाने की एक लंबी परिपाटी है । समाज  में  इससे डरने - डराने के  तरह - तरह के संदर्भ व प्रसंग विद्यमान हैं  जो भाषा में , मुहावरों में  , साहित्य में  , सोच - समझ की सरणि में  लगभग सब जगह दिखाई दे जाते हैं । आज की अहर्निश जगमग में हो सकता है उल्लू कहीं दुबका पड़ा हो या  आज के खास दिन किसी दैवीय सत्ता के वाहन के रूप में काम आ रहा हो ....। जो भी हो , आइए आज पढ़ते  - देखते हैं  हमारे समय  के , हमारी  हिन्दुस्तानी   अंग्रेजी  के  बड़े  लेखक रस्किन बाड की यह एक छोटी - सी कविता :


रस्किन बांड की कविता
उल्लू

निशि के इस निस्तब्ध निविड़ में
जब सब कुछ रहता है शान्त
उधर पहाड़ी के घन वन में
उड़ चलता है चुपके -चुपके 
वन  का चंचल चौकीदार
बूढ़े़ - से एक चीड वृक्ष पर
बैठ - ठहर  करता आराम।

दोस्ताना है उसका होना
रात्रिचर पाखी की लुक- छिप
नहीं  करे कुछ भी नुकसान
मयूर - ध्वनि से कहीं नर्म है
उसका रोदन जो  करुणार्द्र।

तब क्यों जग को लगता है डर
सुनकर उल्लू की आवाज
यदि मनुष्य संवाद करें तो
नहीं कोई इसमें अपवाद
तो उल्लू भी चिल्ला सकते है
यह है उनका निज अधिकार।

मुझ पर तनिक नहीं करता है
उनका रोना जादू टोना
मैं तो यही समझता हूँ कि
वे कहते है -
'कितनी अच्छी है रात है लोगो
सब है भला , ठीक है सब कुछ
डरना नही चैन से सोना।'
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(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह  / पेंटिंग : शिजुन  एच० मन्स   की  कृति  'गर्ल  विद आउल'  , गूगल छवि से साभार)

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

तुम्हारी आँखें कहती हैं रुको

पिछली पोस्ट के क्रम को आगे बढ़ाते हुए  विश्व कविता के प्रेमियों और पाठकों के लिए आज  एक बार फिर प्रस्तुत है तुर्की कवि  - गीतकार अहमेत इल्कान की यह एक  और कविता :

तुम्हारी आँखें कहती हैं रुको
( अहमेत इल्कान की कविता )

किस किस्म की विदाई है यह , किस किस्म की अलविदा
तुम्हारी आँखें कहती हैं रुको , तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान
तुंहारी छवि है कुंजियाँ , तुम्हारी आँखे ताले
तुम्हारी बाँहें कहती हैं खुलो, तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान।

बिछोह है वह नदी जो नहीं पलटती उद्गम की ओर
अकेलापन है एक उजड़ा वीरान नगर
कौन जाने कितना- कितना प्रेम मिल गया खाक़ में
तुम्हारी आँखें कहती हैं रुको, तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान।

यदि मैं चला गया तो  होगा नहीं पुनरागमन
यदि मैंने कह दी मन की बात दु:खता रहेगा दिल
तुम्हें अब तक समझ सका न मैं, हो जाऊँगा पागल
तुम्हारी आँखें कहती हैं रुको , तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान।

क्या दीवारों पर चस्पा कर दिए गए हमारे चित्र?
क्या सबके लिए हमारा नाम हो गया अजूबा?
कहो , किस जतन से गुजर रही हैं पगलायी रातें?
स्मृतियाँ कहती हैं रुको , तुम्हारे अधर कहते हैं प्रस्थान।

यह किस्सा भी खत्म हो जाएगा बहुत जल्द
प्रेम ने तहस नहस कर दिया सारा संकोच , सब मान
फिर हिजाज़* से सिसकियाँ भरेंगे सुर
गीत कहते हैं रुको , तुम्हारे अधर  कहते हैं प्रस्थान।
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* जगह / क्षेत्र का नाम
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह  / पेंटिंग :  भारवि  त्रिवेदी  की  कृति  'बेस्ट फ़्रेंड्स' , गूगल छवि से साभार)