मंगलवार, 29 जनवरी 2013

प्रतिसंसार में कुछ सांसारिक संवाद

इसी संसार में एक बनता हुआ प्रतिसंसार है। कभी - कभी लगता है कि इसे 'बनता हुआ' कहना कहीं खुद को 'बनाना' तो नहीं है ; एक मुहावरे का वाक्य प्रयोग करते हुए स्वयं को भुलावे में रखने जैसा कुछ तो नहीं? अपने आसपास देखता  हूँ तो पाता हूँ कि  नेट ने कुछ लोगों के लिए  एक ऐसा प्रतिसंसार रच दिया है जो हमारे रोजमर्रा के संसार को दूर से देखने का विधान  निर्मित करने के उपक्रम में  सतत संलग्न है। आज  प्रस्तुत हैं इसी  नेट प्रसंग पर कुछ  कथायें, संवाद की शक्ल में....


प्रतिसंसार में कुछ सांसारिक संवाद

 01: मिलन

- सुनो , कुछ बात करते हैं।
- यहाँ ? आमने - सामने?
- तो फिर..!
- घर पहुँचकर बात करते हैं न नेट पर।
- अभी बस्स  चुप रहो और बात करो।
- किया।
- क्या?
- बात , सुना नहीं क्या?
- नहीं।
- तो फिर भाड़ में जाओ।
- गया।
- कहाँ?
- भाड़ में , देखा नहीं क्या?
- नहीं।
- तो क्या करें?
- मिलते हैं न नेट पर।

 02 : साझेदारी

- कल मैंने कुछ शेयर किया था।
- क्या?
- दु:ख।
- किसका?
- अपना।
- किससे?
- खुद से।
- कहाँ?
- नेट पर।

 03 : मित्रता

- हजार से ऊपर हैं मेरे  मित्रों की संख्या
- नेट पर न ?
- हाँ।
- और नेट से बाहर?
- ........
- मुझसे दोस्ती करोगे?
- यह किसी फ़िल्म का नाम है। मैंने देखी थी शायद।
- मुझसे दोस्ती करोगे?
- हाँ, नेट पर।
- और नेट से बाहर?
- .....यह बताउंगा , नेट पर।
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(चित्र : जॉर्डन इसिप की पेंटिंग 'लांग शाट' / गूगल छवि से साभार)

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

निरर्थकता के सौर मंडल में

आज छुट्टी है। आज सर्दी कुछ कम है।आज बारिश का दिन भी है।आज  कई तरह के वाजिब बहाने मौजूद हो सकते हैं घर से बाहर न निकलने के। यह भी उम्मीद है  लिखत - पढ़त वाले पेंडिंग कुछ काम आज के दिन निपटा दिए जायें और साथ  यह  विकल्प भी खुला है कि आज  कुछ न किया जाय; कुछ भी नहीं। हो सकता है कि अकेले देर तक टिपटिप करती  बारिश को देखा -सुना जाय शायद इसी बहाने अपने भीतर की बारिश को महसूस किए जा सकने का अवसर मिल सके। इस बात का एक दूसरा सिरा यह भी हो सकता है कि इस बात पर विचार किया जाय कि बाहर की बारिश से अपने भीतर की बारिश को देखने- सुनने की वांछित  यात्रा एक तरह से जीवन - जगत के बहुविध  झंझावातों से बचाव व विचलन का शरण्य तो नहीं है ? आज लगभग डेढ़ बरस पहले लिखी अपनी  एक कविता साझा करने का मन है जो अपने  कस्बे के  एक प्रमुख चिकित्सक से वार्तालाप - गपशप के बाद कुछ  यूं ही बनी थी। आइए,  पढ़ते - देखते हैं यह कविता ....


काम :०२

जब हम कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं
तब भी कर रहे होते हैं एक अनिवार्य काम।

बिस्तर पर
जब लेटे होते हैं निश्चेष्ट श्लथ  सुप्त शान्त
तब भी
चौबीस घंटे में पूरी कर आते हैं
पच्चीस लाख किलोमीटर की यात्रा।
पृथ्वी करती रहती है अपना काम
करती रहती है सूर्य की प्रदक्षिणा
और उसी के साथ पीछे छूटते जाते हैं
दूरी दर्शने वाले पच्चीस लाख मील के पत्थर।

यह लगभग नई जानकारी थी मेरे लिए
जो डा० भटनागर ने यूँ ही दी थी आपसी वार्तालाप में
उन्हें पता है पृथ्वी और उस पर सवार
जीवधारियों के जीवन का रहस्य
तभी तो डाक्साब के चेहरे पर खिली रहती है
सब कुछ जान लेने के बाद खिली रहने वाली मुस्कान।

आशय शायद यह कि
कुछ न करना भी कुछ करना है
एक यात्रा है जो चलती रहती है अविराम
अब मैं खुश हूँ
दायित्व बोझ से हो गया हूँ लगभग निर्भार
कि कुछ न करते हुए भी
किए जा रहा हूँ कुछ काम
लोभ लिप्सा व लालच के लालित्य में
उभ - चुभ करती इस पृथ्वी पर
निश्चेष्ट श्लथ  सुप्त शान्त
बस आ- जा रही है साँस।

फिर भी संशय है
अपनी हर हरकत पर
अपने हर काम पर
हर निर्णय पर
निरर्थकता के सौर मंडल में
हस्तक्षेप विहीन परिपथ पर
बस किए जा रहा हूँ प्रदक्षिणा - परिक्रमा  चुपचाप।

एक बार नब्ज़ तो देख लो डाक्साब !
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( चित्र :  बेन विल की कलाकृति 'द जर्नी फारवर्ड' / गूगल छवि से साभार)

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

जैसे गुरुत्वाकर्षण को मुंह चिढाते हैं हीलियम से भरे गुब्बारे : अंजू शर्मा

अध्ययन और अभिव्यक्ति की साझेदारी के इस वेब ठिकाने पर 'कवि साथी' क्रम में आज प्रस्तुत हैं युवा कवि अंजू शर्मा की दो कवितायें। अपनी सहज सोच और विशिष्ट कहन की त्वरा से उन्होंने  इधर बीच हिन्दी के कविता संसार में ऐसी उपस्थिति दर्ज की है जिसे लगातार रेखांकित किया जा रहा है। एक कार्यकर्ता के रूप में वह 'डायलाग' , लिखावट’ आदि कई संस्थाओं से जुड़कर दिल्ली की साहित्यिक सक्रियता में शामिल हैं जिसकी अनुगूँज अक्सर दूर तक सुनाई दे जाती है। इसके साथ ही वह एक  ब्लॉगर के रूप में .’कुछ दिल ने कहा’, ‘दिल की बात’ और 'उड़ान अंतर्मन की' जैसे ब्लॉग्स का सफल संचालन करती हैं। हाल ही में अंजू जी को   'इला त्रिवेणी सम्मान २०१२' से सम्मानित किया गया है। आइए , आज पढ़ते हैं उनकी दो कवितायें....


०१- हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज 

सोचती हूँ मुक्ति पा ही लूँ
अपने नाम के पीछे लगे इन दो अक्षरों से
जिनका अक्सर स्वागत किया जाता है
माथे पर पड़ी कुछ आड़ी रेखाओं से

जड़ों से उखड़ कर
अलग अलग दिशाओं में
गए मेरे पूर्वज
तिनके तिनके जमा कर
घोंसला ज़माने की जुगत में
कभी नहीं ढो पाए मनु की समझदारी

मेरी रगों में दौड़ता उनका लहू
नहीं बना मेरे लिए
पश्चाताप का कारण
जन्मना तिलक के वाहक
त्रिशंकु से लटकते रहे वर्णों के मध्य
समय समय पर
तराजू और तलवार को थामते
वे अक्सर बदलते रहे
ब्रह्मा के अस्पर्श्य पाँव में

सदा मनु की विरासत नकारते हुए
वे नहीं तय कर पाए
जन्म और कर्म के बीच की दूरी का
अवांछित सफ़र
कर्म से कबीर और रैदास बने
मेरे परिजनों के लिए
क्षीण होती तिलक की लालिमा या
फीके पड़ते जनेऊ का रंग
नहीं छू पाए चिंता के वाजिब स्तर को

हाशिये पर गए जनेऊ और शिखा
नहीं कर पाए कभी
दो जून की रोजी का प्रबंध,
क्योंकि वर्णों की चक्की से
नहीं निकलता है
जून भर अनाज
निकलती है तो
केवल लानतें
शर्म से झुके सर
बेवजह हताशा और
अवसाद

बोझ बनते प्रतीक चिन्हों को
नकारते और
अनकिये कृत्यों का परिणाम भोगते
केवल और केवल कर्मों पर आधारित
उनके कल और आज ने
सदा ही प्रतिध्वनित किया
हमें बक्श दो मनु, हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज ....

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०२- कामना

हमारे रिश्ते के बीच
ऊब की धुंध में डूबते तमाम पुल
टूट जाने से पहले
खो जाना चाहती हूँ मंझधार में
शायद
कभी कभी डूबना
पार लगने से कहीं ज्यादा
पुरसुकून होता है

बेपरवाह गुजरने की ख्वाहिश
ऊँगली थामे है
उन सभी पुरखतर रास्तों पर
जहाँ लगे होते हैं साईनबोर्ड निषेध के
जंग खाए परों को तौलकर
भर लेना चाहती हूँ एक दुस्साहसी उड़ान
आसमान के अंतिम छोर तक
हंसकर, झटकते हुए सर को,
ठीक वैसे ही
जैसे गुरुत्वाकर्षण को मुंह चिढाते हैं
हीलियम से भरे गुब्बारे

यूँ जानती हूँ कि
हर भटकते कदम के इर्द गिर्द
लम्बवत पड़ी होती हैं आचार-सहितायें
ये भी कि
हर मनभावन रास्ता नहीं जाता है
तयशुदा मंजिल को
ये भी कि हर तयशुदा रास्ते के
इर्द-गिर्द नहीं उगते हैं
जंगली कामनाओं के पेड

किन्तु टूटकर प्यार करने
और दीवानावार हो
मजनू हो जाने वाली
तमाम आदिम इच्छाओं के बोझिल पाँव
कभी कभी झटकना चाहते हैं
संकोच और जन्मजात संस्कार की बेड़ियाँ,

ता-उम्र नाक की सीध में चलते
हर सतर राजपथ से ऊबकर
उम्र की इस दोपहर में
बो देना चाहती हूँ हम दोनों के बीच
सालों पहले जिए अजनबीपन और रोमांच के बीज
कुछ देर फिर से उसी हाथ को थामकर
भूल जाना चाहती हूँ हर रास्ता
हटा लेना चाहती हूँ नज़रें तयशुदा मंजिल से,
दौड़ना चाहती हूँ बेसाख्ता पथरीले रास्तों पर
शाम के धुंधलके में खोने से ठीक पहले
आज मैं प्यार में पागल होना चाहती हूँ....