'शीतल वाणी' पत्रिका का उदय प्रकाश पर केन्द्रित विशेष अंक किसी तरह डाक की सेवा में घूमता - भटकता -अटकता हुआ मिल (ही) गया। मँझोली मोटाई के सफेद धागे से बँधा लिफाफा बुरी तरह फटा हुआ था । बस किसी तरह इस नाचीज का नाम व पता बचा रह गया था। अभी इसे उलट - पुलट कर देख सका हूँ। ठीकठाक तरीके से पढ़ा जाना बाकी है बेटे अंचल को इसका आवरण इतना अच्छा लगा कि उसने मेरे मोबाइल से इसकी फोटो उतार ली। वह आवरण चित्र साझा है। पहली नजर में यह अंक विशिष्ट लग रहा है....बधाई 'शीतल वाणी' की पूरी टीम को। इस विशिष्ट अंक में एक साधारण - सी बात यह है इसमे मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ है। इसे भी सबके साथ साझा करते हैं...
स्वप्न , यथार्थ और कविता का गेंदा फूल
* सिद्धेश्वर सिंह
गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं
यह 'तिब्बत' कविता का एक अंश है। इसी कविता पर उदय प्रकाश को १९८१ का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इस कविता पर केदारनाथ सिंह का निर्णायक मत है - 'तिब्बत कविता में एक खास किस्म की नवीनता है। हमारे समय की वास्तविकता का जो पहलू इस कविता में उभरा है, वह पहले कभी नहीं पाया गया। कलात्मक प्रौढ़ता और ताजगी के अतिरिक्त इसमें एक खास तरह का अनुशासन भी है। राजनीतिक विषय पर राजनीतिक ढंग से अभिव्यक्ति का कौशल उदय प्रकाश की विशेषता है। इस कविता में तिब्बत का बार - बर दोहराना मंत्र जैसा प्रभाव पैदा करता है।' इस कविता ने उदय प्रकाश को कीर्ति और यश दिया और वे आज हिन्दी कविता के उर्वर प्रदेश में सर्वाधिक चर्चित - प्रतिष्ठित कवि हैं और निरन्तर नया रच रहे हैं जिससे हमरे समय व समाज की तस्वीर विविधवर्णी छवियों के साथ विद्यमान हो रही है। यह सवाल अक्सर उठता है कि उदय प्रकाश कवि के रूप में बड़े हैं अथवा एक कथाकार के रूप में उनकी विशिष्ट जगह है। उदय प्रकाश स्वयं को कवि मानते हैं , मूलत: कवि। उनका मानना है कि ' कविता की सत्ता तमाम बाहरी सत्ताओं का विरोध करती है। वह बहुत गहरे और प्राचीन अर्थों में नैतिक होती है।' यहाँ पर एक बार फिर 'तिब्बत' कविता के आखिरे हिस्से के याद करते हैं जो कविता की सार्वदेशिकता और सर्वकालिकता पर सवाल करती है , संशय की ओर संकेत करती है -
क्या लामा
हमारी तरह ही
रोते हैं पापा ?
कविता का कम सवाल खड़े करना है, हर किस्म का सवाल हर किस्म का संशय और यह सब कुछ जिस माध्यम में घटित होता है वह भाषा है। भाषा मनुष्य जगत के विकास की समसे जीवंत निशानदेही है। उसी में सबकुछ घटित होता है और उसी में सबकुछ खत्म। उसी में कुछ बचता है और उसी में भविष्य की निर्मिति होती है। हमरा होना भाषा में है और हममे ही विद्यमान रहती है भाषा। कवि का काम भाषा के भीतर उतर कर एक ऐसे संसार का निर्माण करना होता है जो हमें अपनी - सी तो लगे ही दूसरों की बात भी उसमें ध्वनित हो साथ दिक्कल में वह स्थायी होने के जादू का निर्माण करे और जादू जादुई भी लगे और वास्तविक यथार्थ भी। आज की कविता को इस नजरिए से देखने पर कवि उदय प्रकाश के महत्व बोध होता है और उनका यह कहना सही लगता है कि 'लेखक भाषा का अदिवासी है।' साहित्य अकादेमी द्वारा ‘मोहन दास’ को दिये गये पुरस्कार को स्वीकार करते हुए उन्होम्ने कहा था - 'आज इतने वर्षों के बाद भी मुझे लगता है कि मैं इस भाषा, जो कि हिंदी है, के भीतर, रहते-लिखते हुए, वही काम अब भी निरंतर कर रहा हूं। जब कि जिन्हें इस काम को भाषेतर या व्यावहारिक सामाजिक धरातल पर संगठित और सामूहिक तरीके से करना था, उसे उन्होंने तज दिया है। इसके लिए दोषी किसी को ठहराना सही नहीं होगा। वह समूची सभ्यता का आकस्मिक स्तब्धकारी बदलाव था। मनुष्यता के प्रति प्रतिज्ञाओं से विचलन की यह परिघटना संभवतः पूंजी और तकनीक की ताकत से अनुचर बना डाली गई सभ्यता का छल था। मुझे ऐसा लगता है कि इतिहास में कई-कई बार ऐसा हुआ है कि सबसे आखीर में, जब सारा शोर, नाट्य और प्रपंच अपना अर्थ और अपनी विश्वसनीयता खो देता है, तब हमेशा इस सबसे दूर खड़ा, अपने निर्वासन, दंड, अवमानना और असुरक्षा में घिरा वह अकेला कोई लेखक ही होता है, जो करुणा, नैतिकता और न्याय के पक्ष में किसी एकालाप या स्वगत में बोलता रहता है या कागज़ पर कुछ लिखता रहता है।'
इससे क्या फ़र्क पड़ता है कि किसी नदी या नक्षत्र
पवन या पहाड़ पेड़ या पखेरू पीर या फ़कीर की
भाषा क्या है ?
एक पाठक की हैसियत से बार - बार सोचना पड़ता है कि उदय प्रकाश की कविताओं में ऐसा क्या है जो उन्हें हमारे समय का एक जरूरी कवि बनाता है।वह ऐसा क्या कहते हैं वे अपने शब्दों के माध्यम से कि रोजाना देखी , सुनी, समझी और बरती जा रही चीजें नए तरीके से दिखाई देते हैं या नए तरीके से देखे जाने की माँग करने लगती हैं। उनकी कविताओं में वही दुनिया है जो हमारे आसपास की दुनिया है। इस बात को इस तरह से भी कहा जा सकता है कवि के शब्दों से रचा गया संसार कोई दूसरा संसार नहीं होता बल्कि कवि की दुनियावी आँख चीजों के होने व न होने को इस दुनिया के बाहर और परे भी देख लेने में सक्षम होती है। यही एक प्रकार से कविता की सार्वदेशिकता और सार्वकालिकता है। उदय प्रकाश के शुरूआती संग्रह 'अबूतर कबूतर' में अपेक्षाकृत छॊटे कलेवर की कवितायें है जिनमें बहुत कम शब्दों में एक विचार प्रकट होता है और सीधे - सीधे अपनी बात रखता है उदाहरण के लिए 'डाकिया' , 'वसंत' , 'पिंजड़ा' , ,'दिल्ली' जैसी कविताओं में विचार की इकहरी सरणि है जो बहुत कम शब्दों में कहने की पूर्णता को प्राप्त करती है। इस प्रसंग में 'तिब्बत' के महत्व पर बात करने का मन इसलिए हो आता है कि यह कविता शब्दों की मितव्ययिता का बहुत अच्छा उदाहरंअ है।कविता के केन्द्र में 'तिब्बत' है जो किसी स्थान का बोध कराने की बजाय एक विचार या स्वप्न का बोध कराता है। यह एक ऐसा विचार या स्वप्न है जो जो भाषा में व्यक्त करने बाद भी कुछ न कुछ छूट जाता है संभवत: इसी बात को ध्यान में रखकर कवि एक बच्चे के प्रश्न के माध्यम से तिब्बत के प्रश्न को प्रश्न की तरह ही उपस्थित करता है -
क्या लामा
हमारी तरह ही
रोते हैं
पापा ?
दुनिया में सब जगह एक तरह का ही रोना है और एक तरह का ही हँसना। मानवीय सोच और उसका प्रकटीकरण सब जगह एक जैसा ही है। यह अलग बात है कि दुनिया में ढेर सारी अलग - अलग भाषायें है , अलग - अलग भूगोल में बोली जाने वाली और अलग - अलग पारिस्थितिकी निर्मित तथा निरन्तर निर्माणशील फिर भी विचार , स्वप्न और यथार्थ सब जगह एक जैसा ही है।एक बड़े कवि की पहचान यह है कि वह समय और स्थान के सीमान्त में भी रहे और उसका अतिक्रमण भी करे। इस बिन्दु पर सबसे बड़ी सावधानी यह होती है ऐसा करते हुए कविता इतनी 'लोकल' न हो जाय कि दूसरे भूगोल में वह अपरिचित व अन्य या इतर लगे और न ही इतनी 'ग्लोबल' हो जाय कि किसी भी किस्म की स्थानिकता या स्थानिक पहचान से निरपेक्ष होकर किसी दूसरी ही दुनिया की चीज लगने लगे। यहाँ पर एक बार फिर 'तिब्बत' को याद किया जा सकता है। पहली दृष्टि में या ऊपरी तौर पर इस कविता में 'तिब्बत' एक भूगोल की तरह उपस्थित होता है, एक ऐसा भूगोल जो एक ही समय में इतिहास में भी है और उसके बाहर भी लेकिन गैसे - जैसे हम हम कविता के भीतर उतरते जाते हैं वैसे - वैसे 'तिब्बत' एक आंकाक्षा , एक स्वप्न के रूप में रूपायित होता जाता है। यह धिइरे - धीरे एक ऐसे स्वप्न का रूप धारण कर लेता है जो इतिह्गास और भूगोल की सीमाओं में बाहर जाकर मनुष्य मात्र की स्मृति ,आकांक्षा, स्वतंत्रता और स्वप्न का प्रतीक बन जाता है। इस कविता में आया गेंदे का फूल बहुत गहरी अर्थवता रखता है। वह एक साथ स्वप्न और यथार्थ दोनो लोकों में विद्यमान रहता है और आकाक्षा की असीमितता और अनंतता को प्रकट करते हे कहता है -
गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं
पापा ?
हम समय के जिस हिस्से में रहते हैं वहाँ चीजें इकहरी नहीं हैं, सब एक दूसरे में गुंफित और एक दूसरे को बनाती - बिगाड़ती हुई।जिस तरह गेंदे के एक फूल में बहुत सारे फूल होते हैं उसी तरह उदय प्रकाश की कविता में कई कवितायें दिखाई देती हैं। जब वह 'वसंत' की बात कर रहे होते हैं तब वह केवल वसंत नहीं होता। इसी तरह 'दिल्ली' केवल दिल्ली नहीं होती और न ही 'कुतुबमीनार' केवल कुतुबमीनार।'तिब्बत' के संदर्भ में भी निस्संकोच यही कहा जा सकता है कि तिब्बत केवल तिब्बत नहीं है। कलेवर में एक छोटी - सी लगने वाली यह कविता सचमुच बहुत बड़ी कविता है। यह आज से तीस - बत्तीस साल पहले जब आई थी तब दुनिया इतनी 'छोटी' नहीं थी। दुनिया को देखने के नजरिए भी इतने छोटे नहीं थे।आज की तरह सब कुछ तात्कालिकता की त्वरा से से तय नहीं होता था और सबसे बड़ी बात यह कि प्रयत्न , प्रयास , प्रतिरोध और परिवर्तन जैसे शब्दों के प्रति 'पवित्रता' का भाव तिरोहित में कहीं न कहीं संकोच व झिझक बची हुई थी। आज के संसार पर बात करते हुए उदय प्रकाश कहते हैं - ' लेकिन आज के समय में, धरती का कोई छोर, कोई कोना, कोई जंगल, कोई पहाड़ तक ऐसा निरापद नहीं रहने दिया गया हैं, जिसमें सत्ता और उपभोग, वैभव और लोभ से निस्संग कोई नागरिक कहीं रह-बस सके. आज के मामूली मनुष्य का हर ठिकाना, हर मकान, हर घर आज उजाड़ दिए जाने के कगार पर हैं. उस पर चौतरफा हमले हैं.' सवाल उठता है कि मानवता पर लगातार हो रहे इस चौतरफा हमले वाले देश - काल में साहित्य या कविता की क्या भूमिका है? क्या वह शरण्य है, क्या वह लेखक का घर है , क्या भाषा की चारदीवारी में सिमटी एक 'दूसरी' दुनिया है? उदय प्रकाश की कविताओं को पढ़ते हुए बार - बार लगता है कि उनकी कवितायें मनुष्य के अस्तित्व के सचमुच होने की वकालत करती हैं और इस रास्ते में निरन्तर बढ़ते जा रहे संकटों की ओर इशारा करती हैं।उनका यह इशारा बहुत 'लाउड' नहीं है और न ही इतना मद्धिम भी कि शोर और सन्नाटे में अपनी उपस्थिति दर्ज न करा सके मसलन 'एक भाषा हुआ करती है' कविता की में वह जब वह नाना प्रकार के प्रसंगों और संदर्भों के जरिए हमारे समकाल का एक विशद चित्रण प्रस्तुत करते हैं तब बार - बार भाषा की ओर लौटते हैं , उसके होने को रेखांकित करते हैं और भाषा की स्थानिक चौहद्दी से बाहर जाकर वैश्विक हो जाते हैं -
एक भाषा हुआ करती है
जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूं `आंसू´ से मिलता जुलता कोई शब्द
हर बार बहने लगती है रक्त की धार
उदय प्रकाश की कवितायें वे कवितायें हैं जो हिन्दी कविता के प्रदेश को और उर्वर बनाती हैं।इस भूमि की उर्वरा को बनाने - बचाने - बढ़ाने की दिशा में सार्थक हस्तक्षेप करती हैं।साथ ही कविता को नितान्त निजता , विचार के इकहरेपन और अस्थिर उपस्थिति से मुक्ति का उदाहरण भी प्रस्तुत करती हैं। वे बहुत साफगोई से किन्तु भाषा की गूढ़ - गझिन कताई - बुनाई से स्वयं तो दूर रहती ही हैं और अपने पाठक के मन:संसार को भी सीमित और तात्कालिक होने की सरलता से मुक्त करती हैं।जिस तरह 'तिब्बत' कविता में लामा मंत्र नहीं पढ़ते , फुसफुसाते हैं - तिब्बत..तिब्बत वैसे ही उदय प्रकाश की कवितायें हमारे मन के कोने आँतरों में फुसफुसाती हैं कविता ..कविता और हमें अपने समय तथा समाज के स्वप्न व यथार्थ को देखने - समझने की एक खिड़की खुलती दिखाई देने लगती देती है।
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'शीतल वाणी': संपादक: डॉ वीरेन्द्र आजम सम्पादक शीतल वाणी , 2C / 755 पत्रकार लेन प्रद्युमन नगर मल्हीपुर रोड सहारनपुर 247001 (u p ) मोबाइल नंबर 09412131404/इस अंक का मूल्य : 100 रुपये