हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि बल्ली सिंह चीमा के साठ वर्ष पूरे पर उनके मित्रों ने ०८ सितम्बर २०१२ को नई दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में एक बहुत ही आत्मीय , सादा और गरिमापूर्ण आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम की रपट 'कबाड़ख़ाना' पर पढ़ी जा सकती है। इस अवसर पर एक स्मारिका का प्रकाशन भी किया गया जिसका संपादन डा० प्रकाश चौधरी ने किया है। इसी स्मारिका के लिए मैंने 'साधारण की असाधारणता और बल्ली सिंह चीमा की कवि छवि' शीर्षक एक आलेख लिखा था जो किंचित संशोधित शीर्षक के साथ वहाँ प्रकाशित हुआ है। आज वही आलेख यहाँ सबके साथ साझा है....
साधारण की असाधारणता और कवि छवि
* सिद्धेश्वर सिंह
स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कविता में दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी और बल्ली सिंह चीमा की एक ऐसी त्रयी है जिसने अपनी ग़ज़लो के जरिए हिन्दी पट्टी की पूरी पीढ़ी को अपने तरीके से प्रभावित किया है और निरन्तर कर रही है। देखा जाय तो जिसे हिन्दी कविता की मुख्यधारा कहा जाता है उसमें ये कवि बहुत उल्लेखनीय नहीं माने जाते हैं और न ही हिन्दी कविता की चर्चा - परिचर्चा और पढ़ाई - लिखाई के परिदृश्य पर उनकी उपस्थिति को रेखांकित किया गया है। इन तीनो कवियों में सबसे पहली समानता यह है कि इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए जिस काव्यरूप को चुना है वह हिन्दी ग़ज़ल के नाम से जानी जाती है । निश्चित रूप से ग़ज़ल हिन्दी का पारम्परिक काव्यरूप नहीं है लेकिन वह हिन्दी के लिए नितान्त नई भी नहीं है। कबीर से लेकर भारतेन्दु , निराला , शमशेर और अन्यान्य कवियों ने इसे अपनाया है और शब्दों की मितव्ययिता तथा अभिव्यक्ति की अपार संभावना से युक्त इस विधा को सचमुच हिन्दी का अपना बना दिया है। दुष्यंत कुमार ने इसे कवित्व और कथ्य के स्तर पर नव्यता दी तथा काव्यभाषा को जनभाषा बनाकर जन की बात कही तो दूसरी ओर अदम गोंडवी ने एक कदम और आगे बढ़कर बिल्कुल खुले रूप में सामान्यजन के सुख - दुख को वाणी दी। इसी क्रम में बल्ली सिंह चीमा की ग़ज़लें भी भाव व भाषा की दृष्टि से अपना एक एक विशिष्ट स्थान रखती हैं और निरन्तर चर्चा में बनी हुई हैं।
बल्ली सिंह चीमा कवि हैं यह कहने - सुनने के बजाय यह अधिक कहने - सुनने को मिलता है कि वह एक 'किसान कवि' हैं, एक ऐसा किसान जो खेतों में फसल तो बोता है कविता की खेती भी करता है। हिन्दी कविता की परम्परा में बल्ली सिंह चीमा का एक विशिष्ट स्थान है और उनके प्रशंसकों की एक बहुत बड़ी कतार है तो इसके पीछे क्या वजह हो सकती है? क्या इसके पीछे स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज की विसंगतियाँ , असमानतायें और वे विद्रूपतायें है जो उनके कथ्य का अविभाज्य हिस्सा बनती हैं? क्या यह वह भाषा है जो जन की भाषा है जिसमें कवित्व कोई दूसरी दुनिया और दूसरी भाषा नहीं है? क्या यह विचारों के उथल - पुथल से भरे हमारे समकाल में व्याप्त वह जनपक्षधरता है जो तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद अब भी उम्मीद से भरी हुई है? क्या यह धूमिल की काव्य परंपरा है जिसमें कविता एक वायवीय कर्म न होकर भाषा में आदमी होने की तमीज है? बहुत सारे सवाल हो सकते हैं और उनके बहुत सारे जवाब भी तलाशे जा सकते हैं। काफी लंबे समय से बल्ली सिंह चीमा की कविताओं को पढ़ते - सुनते - गुनते हुए बार - बार लगता है उनके कवि का विकास निरन्तर हुआ है और कविता को लेकर उनकी जो भी सार्वजनिक छवि हिन्दी में निर्मित हुई है वह बहुत कुछ उन कारणों से भी है जो प्राय: कविता से बाहर की चीजें हैं ; दूसरे शब्दों में कहें तो ये वे चीजे हैं जो जो उनके काव्य के कथ्य में तो हैं ही, कथ्य के बाहर के संदर्भों में भी विद्यमान हैं। इसलिए जब भी उनकी कविताओं की बात होती है तो प्राय: भाव - विचार और कथ्य का उल्लेख ही प्रधान हो जाता है। यहाँ पर यह भी प्रश्न उठता है कि यदि हम कविता में कथ्य पर उंगली न रक्खें , उसके महत्व को स्वीकार अपने आसपास प्रसंगों और पारिस्थितिकी से न जोड़ें तो क्या उसे मात्र एक कलारूप मानकर जीवन - जगत के संदर्भॊं से विलग कर 'काव्य विनोद' तक सीमित कर दें? इसी के साथ जुड़ा हुआ एक प्रश्न यह भी है कि बल्ली सिंह चीमा की कविता क्या केवल अपने कथ्य एवं समकालीन संदर्भॊं की प्रस्तुति के कारण बड़ी है या उसमें सामयिक - संदर्भ निरपेक्ष होकर कालजयी होने की सचमुच ताकत निहित है जो देश- काल के परे भी कुछ कहने और कहलवाने में सहज सक्षम है?
कविता में सामयिक , समकालीन व तात्कलिक संदर्भों का होना कोई नया प्रसंग नहीं है। यह एक प्रकार से ऐसी ताकत होती है जो कवि को जन से सीधे - सीधे जोड़ देती है और जनता को लगता है कि कवि भी उसकी ही तरह एक सामान्य इंसान है और कविता कोई ऐसा विशिष्ट सांस्कृतिक कर्म नहीं है जिसका अपने समय व समाज से कोई लेना देना नहीं है। इस संदर्भ में हम अपने आसपास नागार्जुन की बहुत सी कविताओं को सहज ही याद कर सकते हैं लेकिन क्या यही सत्य है कि नागार्जुन की कविता की समग्र पहचान क्या ऐसी ही कविताओं से निर्मित होती है? दूसरी बात यह भी है कि एक लंबे समय के गुजर जाने के बाद परवर्ती पीढ़ी यदि किसी कविता को पढ़ती है तो क्या उसे अनिवार्यत: ऐतिहासिक संदर्भों को तलाशना ही होगा? आइए , इस संदर्भ में बल्ली सिंह चीमा की कविता से एक छोटा - सा उदाहरण चुनते है :
मार्क्स कहे कुछ और, कमरेड कुछ और
इसीलिए चर्चित हुआ 'कामरेड का कोट'।
मान लीजिए कि ये दो पंक्तियाँ आज के उस पाठक के सामने प्रस्तुत हैं जो हिन्दी कविता का अपेक्षाकृत नया पाठक तो है ही आज की बदली हुई दुनिया में देशकाल को देखने समझने का उसका नजरिया भी वह नही है जो कविता की उत्सभूमि है तब यह पंक्ति क्या कहती व संप्रेषित करती हुई जान पड़ेगी है? क्या इसे स्पष्ट करने के किए किताबों - पत्रिकाओं के नए संस्करण में यह लिखा जाना चाहिए कि इस पंक्ति का संदर्भ प्रेमचंद द्वारा स्थापित पत्रिका 'हंस' के राजेन्द्र यादव द्वरा संपादित नए नए रूप के अमुक अंक में प्रकशित कहानीकार सृंजय की लंबी कहानी 'कामरेड का कोट' से जुड़ता है जो मार्क्सवाद के व्यावहारिक द्वंद्व को एक साधारण कार्यकर्ता के माध्यम से प्रस्तुत बेधक तरीके से करती है अथवा यह कहा जाय कि मार्क्सवाद के संदर्भ में विचार व क्रिया की द्वंद्वात्मकता यहाँ इन पंक्तियों में प्रस्तुत हुई है? निश्चित रूप से इस काव्य पंक्ति में 'कामरेड का कोट' से कहीं अधिक व स्पष्ट संदेश कामरेड का कृत्य है। दूसरे शब्दों में यह कहने व करने का वह विभेद है जो हमारे समय को लगातार जटिल , जनविमुख और जर्जर बनाता जा रहा है। आइए यहीं पर बल्ली सिंह चीमा की एक और पंक्ति को देखते हुए आगे बढ़ते हैं: :
अब भी लू में जल रहे हैं जिस्म अपने साथियो,
आइए, मिलजुल के कुछ ठंडी हवा पैदा करें।
यह पंक्ति भी एक साधारण पंक्ति है जिसमें मिलजुल कर लू में जलते हुए जिस्मों के लिए ठंडी हवा पैदा करने की बात की गई है। यह तो इस पंक्ति का सामान्य अर्थ है जो काव्यार्थ में ढलकर दलित शोषित जनता की एकता और जहाँ कहीं भी अन्याय , अनीति व असमानता है उसके विरुद्ध निरन्तर संघर्ष की बात को प्रकट करती है। इस पंक्ति में साधारणता व सार्वदेशिकता तथा सार्वकालिकता है जो इसे एक काव्य पंक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करता है क्योंकि यह कहीं भी कभी लागू होने वाला सत्य बन जाता है । एक अच्छी कविता की यही पहचान है कि वह जिस बात को कहना चाहती है वह सदैव एक जैसी रहती है क्योंकि उसकी बात मनुष्यता के पक्ष में होती है ; देशकाल व सामयिकता से निरपेक्ष सार्वजनीन व सार्वकालिक। यह अलग बात है कि उसमें सामयिक संदर्भ खोजे जा सकते हैं किन्तु वे संदर्भ बात को विस्तार देने वाले हों , उसे सीमित करने वाले नहीं। ऐसा कहने के पीछे आशय यह नहीं है कि बल्ली सिंह चीमा की कविताओं में कालजयिता के तत्व बहुत कम हैं और उनकी कविता मुख्यत: सामयिकता से पूर्ण है। बात यह है कि हमारे आज के काव्य परिदृश्य पर बल्ली सिंह चीमा की जो कवि छवि निर्मित होती रही है वह मुख्यत: उन ग़ज़लों पर आधारित है जो कथ्य के स्तर पर अत्यधिक मुखर और वाचाल दिखाई देती हैं। वैसे यह कोई नई बात भी नहीं है हिन्दी की जनवादी कविता या हिन्दी में जो कवि जनकवि माने जाते हैं उनकी कविता के साथ इस तरह की बात बहुत पहले से होती रही है। यह प्रसंग पर तो निर्भर करता ही है , पाठ भी इसमें कम महत्वपूर्ण नहीं है।
बल्ली सिंह चीमा के अब तक चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी चर्चा- प्रशंसा भी खूब हुई है। उन्हें कई पुरस्कार व सम्मान भी मिल चुके हैं। वे हिन्दी के सचमुच लोकप्रिय और लोककवि हैं। आज के ऐसे समय में जब पूरे साहित्यिक परिदृश्य से गाँव जैसी चीज लगभग तिरोहित होती जा रही है तब वह निश्चित्त रूप से हमारे उन कवियों में से हैं जो सहज भाषा में आमजन की बात कहने में सक्षम हैं। यह सच है उनकी शुरुआती कविताओं में एक खास किस्म की अनगढ़ता विद्यमान थी जो उन्हें एक तरह से भीड़ में अलग से पहचाने जाने का कारण भी बनी और कम से कम कवित्व में अधिक - अधिक सहज संप्रेषणीयता उनकी ताकत बनी ; वह दौर अब जा चुका है। जनता की लड़ाई भी अब उतनी सीधी व सपाट दिखाई देने वाली नहीं है तब कवि बल्ली सिंह चीमा को पढ़ना और हिन्दी कविता के बड़े परिदृश्य पर उनकी उपस्थिति की छाप को ऐतिहासिकता के आईने में देखने की कोशिश करने पर यह साफ दिखाई देता है कि एक कवि के रूप में बल्ली सिंह चीमा विकसित हुए हैं और निरन्तर विकासमान हैं। यह विकास उनकी अपनी टेक से विचलन या विपर्यय नहीं है। हिन्दी में हुआ यह है कि कुछ चुनिंदा जिन ग़ज़लों के आधार पर बल्ली सिंह चीमा की कवि छवि निर्मित हुई है वह उनके एक विपुल काव्य संसार को छोड़कर निर्मित हुई है जिसमें प्रकृति है , प्रेम है और जीवन के कठिन जीवन क्रियाकलापों से निकला जीवन दर्शन है। इधर की लिखी गज़लों में बल्ली सिंह चीमा अपनी पुरानी टेक के आसपास ही हैं क्योंकि वही उनकी केन्द्रीयता भी है फिर भी न केवल कथ्य के स्तर पर बल्कि शिल्प के स्तर भी वह अपनी कवि छवि को तोड़ने में सतत संलग्न , सक्रिय व सन्नध दिखाई देते हैं। यह एक बड़ी और अच्छी बात है क्योंकि एक पाठक की हैसियत से मैं इसे सामयिकता से कालजयिता की ओर अग्रसर एक यात्रा के रूप में देखकर प्रसन्न हूँ और आश्वस्त भी। और अंत में बल्ली सिंह चीमा की यह नई गज़ल जो सचमुच नई है और परंपरा का निर्वाह करते हुए नव्यता की नई राहें भी अन्वेषित करती जान पड़ती है :
यूँ मिला आज वो मुझसे कि खफ़ा हो जैसे
मैंने महसूस किया मेरी खता हो जैसे।
तुम मिले हो तो ये दर -दर पे भटकना छूटा
एक बेकार को कुछ काम मिला हो जैसे।
जिंदगी छोड़ के जायेगी न जीने देगी
मैंने इसका कोई नुकसान किया हो जैसे।
वो तो आदेश पे आदेश दिये जाता है
सिर्फ़ मेरा नहीं दुनिया का का खुदा हो जैसे।
तेरे होठों पे मेरा नाम खुदा खैर करे
एक मस्जिद पे श्रीराम लिखा हो जैसे।
मेरे कानों में बजी प्यार भरी धुन 'बल्ली'
उसने हौले से मेरा नाम लिया हो जैसे।
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( * ऊपर स्मारिका की विमोचन छवि में दिखाई दे रहे हैं : बायें से वीरेन डंगवाल, से० रा० यात्री, बल्ली सिंह चीमा, मंगलेश डबराल, पंकज बिष्ट,रामकुमार कृषक और जसवीर चावला। स्मारिका अब पीडीएफ में भी उपलब्ध है यदि कोई मित्र इसे देखना - बाँचना - पढ़ना चाहते हैं तो अपना ई मेल पता दे सकते हैं। उनके साथ पूरी स्मारिका साझा कर हमें खुशी होगी )