शनिवार, 25 जून 2011

सितारों को सब पता है

पिछले कुछ महीनों से  लिखना - पढ़ना बहुत कम हुआ है। संगीत सुनना तो बहुत ही कम। बाहर बरामदे में बैठकर पेड़ - पौधों से बतियाना भी लगता है कि शायद इतिहास की बात हो। इधर गर्मी खूब पड़ रही है, खूब पसीना आ रहा है ;टपकता , चिन- चिन करता पसीना। लेकिन आज सुबह से फुरसत नसीब हुई है।झपकी ली, हल्की बारिश को देखा, निरुद्देश्य छत पर गया, कुछ पढ़ा , कुछ सुना और अब कुछ लिखा है - कविता के शिल्प में। आइए इसे देखें साझा करें...ये दो कवितायें..



तलाश -१

दूर तक जाते हैं दु:ख के तार
वहाँ भी
जहाँ हम नहीं होते साकार।

धुँधलके में कौंधता है
एक चेहरा अस्पष्ट
उधड़ती चली जाती हैं
रहस्य की तमाम सीवनें
और प्रकट होने लगता है एक अस्तित्व।

बात - बतकही की कामना से
भरी होती है हृदय की सुराही
फिर भी
गले में अटक जाती है कोई फाँस
और छलक नहीं पाता है
शब्दों का सादा जल।

इसी पृथ्वी पर
मैं हूँ और तुम भी
यहीं स्थापित है हमारा यथार्थ
और यहीं
पगलाए हिरन - सा
अनवरत दौड़ रहा है कोई स्वप्न।

हथेलियों की सतह पर
कोई अक्स उभरता है बार - बार
दु:ख उन्हें दुलारता है
और घटता जाता है
दूरियों का अंबार।

तलाश -२

रात में बात करते हैं सितारे
उन्हें सब पता है
किस्से हमारे - तुम्हारे।

वे सुनाते हैं
सदियों पुरानी कथायें
दिखाते हैं
कई प्रकाशवर्ष दूर के दृश्य
और खोज लाते हैं
वे गुमशुदा शिलायें भी
जिन पर कभी  बड़े जतन से
उकेरा गया था कोई नाम।

सितारों को सब पता है
उनके लिए कुछ भी नहीं है गोपनीय
दिक्काल  की सीमाओं के आरपार
बनी रहती है उनकी आवाजाही
तभी तो
नजूमियों और प्रेमियों को
खूब भाता है उनका सानिध्य।

चाँद की लालटेन थामे
हम अब भी गिनते हैं सितारे
क्योंकि वे जानते हैं
किस्से हमारे - तुम्हारे।
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( पेंटिंग : मरीना पेत्रो )


शनिवार, 18 जून 2011

कागज और मोमिया रंग : निज़ार क़ब्बानी की कवितायें

निज़ार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल1998) की कविताओं के मेरे किए अनुवाद आप 'कर्मनाशा' के अतिरिक्त कई अन्य  वेब ठिकानों और हिन्दी की कुछ प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं में पढ़ चुके हैं। मुझे खुशी है कि सीरिया के इस बड़े कवि को हिन्दी  कविता के प्रेमियों की बिरादरी में पसंद किया गया है। एक पाठक की हैसियत से मुझे बस इतना  भर कहना है  कि  प्रेम का यह अमर गायक  साधारणता  को साधारणता में ही उदात्त बनाता है ; वह भी इसी दुनिया में  , इसी दुनिया के इंसानों की बोली बानी और कहने  के अंदाज में। आइए आज  साझा करते हैं उनकी चार कवितायें :


निज़ार क़ब्बानी की चार कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- ज्यामिति

मेरे जुनून की चौहद्दियों के बाहर
नहीं है
तुम्हारा कोई वास्तविक समय।

मैं हूँ तुम्हारा समय
मेरी बाँहों के दिशासूचक यंत्र के बाहर
नहीं हैं तुम्हारे स्पष्ट आयाम।

मैं हूँ तुम्हारे सकल आयाम
तुम्हारे कोण
तुम्हारे वृत्त
तुम्हारी ढलानें
और तुम्हारी सरल रेखायें।

०२- पुरुष -  प्रकृति

किसी स्त्री को प्यार करने के लिए
एक पुरुष को चहिए होता है
एक मिनट

और
उसे भूल जाने के लिए
शताब्दियाँ।

०३- कप और गुलाब

कॉफीहाउस में गया
यह सोचकर
कि भुला दूँगा अपना प्यार
और दफ़्न कर दूँगा सारे दु:ख।

किन्तु
तुम उभर आईं
मेरी कॉफी कप के तल से
एक सफेद गुलाब बनकर।

०४- बालपन के साथ

आज की रात
मैं  नहीं रहूँगा तुम्हारे साथ
मैं नहीं रहूँगा किसी भी स्थान पर।

मैं ले आया हूँ बैंगनी पाल वाले जलयान
और ऐसी रेलगाड़ियाँ
जिनका ठहराव
नियत है केवल तुम्हारी आँखों के स्टेशनों पर।

मैंने तैयार किए हैं
कागज के जहाज
जो उड़ान भरते हैं प्यार की ऊर्जा से।

मैं ले आया हूँ
कागज और मोमिया रंग
और तय किया है
कि व्यतीत करूँगा संपूर्ण रात्रि
अपने बालपन के साथ।

बुधवार, 15 जून 2011

बाबा नागार्जुन की 'पंचायती डायरी' का एक पृष्ठ


आज ज्येष्ठ पूर्णिमा है। आज की शाम पूरब के आसमान में  पूरा - पूरा गोल - गोल चाँद दिखाई दे रहा है। आज की ही रात काफी लंबा चंद्रग्रहण होगा। आज कैलेन्डर बता रहा है कि कबीर जयन्ती है। कबीर की कविता और उनके किस्से बचपन से सुनता आ रहा हूँ। आज ही नागार्जुन की जन्मशती है। नागार्जुन हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार  यानि बाबा नागार्जुन ; जिनकी जन्मशती हिन्दी पट्टी में खूब जोर - शोर से मनाई जा रही है। आज शाम को अपने निवास पर एक गोष्ठी करने का मन था किन्तु कुछ अपरिहार्य व्यस्तताओं और तबीयत थोड़ी ढीली होने के कारण यह संभव नहीं हो पा रहा है। नागार्जुन - जन्मशती के आयोजनों के क्रम में ५ और ६ जून २०११ को रामगढ़ ,नैनीताल स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ में आयोजित 'नागार्जुन और समकालीन हिन्दी लेखन' शीर्षक कार्यक्रम में भाग लेकर  लौटा हूँ। इस आयोजन में बहुत सारे लोगों ने व्याख्यान दिया , बाबा के संस्मरण सुनाए और उनकी कविताओं का पाठ किया। सृजन पीठ के निदेशक प्रो० बटरोही के निर्देशन में संपन्न यह एक सादा और गरिमापूर्ण कार्यक्रम रहा। उद्घाटन सत्र के अतिरिक्त यह आयोजन तीन सत्रों 'नागार्जुन एवं समकालीन हिन्दी लेखन' , 'नागार्जुन की याद' और 'उत्तराखंड के रचनाकारों का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य' में बँटा था। सभी सत्र बढ़िया तरीके से संचालित व संपन्न हुए किन्तु आज  मैं दूसरे सत्र 'नागार्जुन की याद' का उल्लेख खास तौर पर करना  चाहता हूँ। इस सत्र की अध्यक्षता प्रो० वाचस्पति ने की उन्होंने  बाबा की 'पंचायती डायरी'  की चुनिन्दा प्रविष्टियों को पहली बार हिन्दी की लिखने - पढ़ने वाली बिरादरी के सामने  प्रस्तुत किया। 'पंचायती डायरी'  का किस्सा यह है कि  किसी समय बाबा को एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने एक नई नकोर एक्ज्क्यूटिव डायरी भेंट की थी जो उन्होंने वाचस्पति जी को  सौंप दी । जब वे जहरीखाल, काशीपुर और खटीमा में वाचस्पति जी के साथ रहने के लिए आते थे तो इसमें कुछ - कुछ लिखा करते थे और वहाँ आने - जाने - ठहरने वाले सभी लोगों  को छूट थी कि वे इस डायरी में लिख सकते थे। धीरे- धीरे यह एक पंचायती डायरी बन गई जो अभी वाचस्पति जी के पास सुरक्षित है। रामगढ़ में जब इसका खुलासा हुआ तो यह हम सबके लिए एक 'एक्स्क्लूसिव' खबर थी और आज जब देश - दुनिया में नागार्जुन जन्मशती की धूम है तो निश्चित रूप से इसका प्रकाशन होना जल्द होना चहिए। रामगढ़ में मैंने अपने मोबाइल कैमरे से इस डायरी के एक पृष्ठ की फोटो खींच ली थी जिस पर बाबा ने एक कविता लिखी है। आज नागार्जुन जन्मशती  के मौके पर 'जनता के कवि' के प्रति नमन  सहित इस अप्रकाशित कविता को 'कर्मनाशा' के पाठकों और प्रेमियों के लिए  यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ :

देर तक झुका रहा

देर तक झुका रहा
अपनी परछाईं देखता रहा देर तक
उसके अन्दर
झु
का

हा

देर तक...

अगले ही क्षण
नदी गायब थी
वो झरना
हो
थी !

सोमवार, 13 जून 2011

हम अवतरित हुए हैं एकान्त और चमत्कार से



इस बीच पिछले दो - ढाई महीनों से काम के आधिक्य और यात्राओं के चलते लिखना - पढ़ना, संगीत सुनना - सुनाना बहुत कम ही हो सका। यात्राओं में कुछ ऐसी किताबें पढ़ डालीं जिनको पढ़ा जाना काफी लंबे समय से टल रहा था। स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा करते हुए दो - चार अनुवाद भी कर डाले। इधर खूब गर्मी झेली और ठंड का भी खूब आनंद लिया। अल्मोड़ा, जागेश्वर, मुक्तेश्वर,रामगढ़ की सर्दी का आनंद लेते हुए व लखनऊ , सतना , दिल्ली और बिलासपुर की तपन और उमस को झेलते हुए बार - बार अरुणाचल को याद किया जहाँ प्राय: दो ही मौसम देखे मैंने - जाड़ा और बरसात। आजकल मेरे लिए अरुणाचल को याद करना वहाँ बिताये अपने जीवन के साढ़े आठ बरसों के साथ ममांग दाई की कविताओं को भी याद करना होता है। आइए आज देखते - पढ़ते हैं उनकी ये कवितायें :


ममांग दाई की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

०१- जन्म स्थान

हम बारिश के बच्चे हैं
बादल - स्त्री की संतान
पाषाणों के सहोदर
पले है बाँस और गुल्म के पालने में
अपनी लंबी बखरियों में
हम शयन करते हैं
जब आती है सुबह तो पातें है स्वयं को तरोताजा।

हमारी उपत्यका में
कोई नहीं अजनबी - अनचीन्हा
तत्क्षण प्रकट हो जाता है परिचय
हम बढ़ते जाते है वंश दर वंश।
बहुत साधारण है हमारा प्रारब्ध।
किसी हरे अँखुए की तरह
अपनी दिशा में तल्लीन
हम अग्रसर होते हैं अपने पथ पर
जैसे चलते हैं सूर्य और चंद्र।

जल की पहली बूँद ने
जन्म दिया मनुष्य को
और रक्तिम आच्छद से हरित तने तक
विस्तारित करता रहा समीरण।

हम अवतरित हुए हैं
एकान्त और चमत्कार से।

०२- मुझे चाहिए

मेरे प्रियतम
मुझे चाहिए
प्रात:काल का महावर
मुझे चाहिए
ढलती दोपहर की स्वर्णिम सिकड़ी
मुझे चाहिए
चन्द्रमा की पायल
ताकि मैं नृत्य कर सकूँ
पुन: तुम्हारे संग।

मुझसे साझा करो
अपने हृदयंगम रहस्य
अपनी साँसें दो मुझे
फिर से।
कथायें सुनाओ मुझे मानवीय भूलों की
और बतलाओ
कि क्यों परिवर्तित नहीं होता है प्रतिबिंब।

गुरुवार, 2 जून 2011

चाँद और साइकिल : दो कवियों का शहरनामा

शहरनामा लिखने की वैसी सुदीर्घ और प्रौढ़ परम्परा के दर्शन हिन्दी में नहीं होते हैं जैसी कि वह उर्दू साहित्य में दिखाई देती है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी साहित्य में 'नगर शोभा वर्णन' के संदर्भ-प्रसंग नहीं हैं और न ही यह कि नगरों-शहरों की स्मृति - विस्मृति में हिन्दी वालों ने कोई कम आंसू बहाए हैं फिर भी पहली नजर में ऐसा लगता है कि शहर दर शहर भटकने, उजड़ने, बसने, बिखरने और बनने की जो जद्दोजहद आरम्भ से ही उर्दू भाषा और साहित्य से जुड़े तमाम घटकों के अनुभव जगत का यथार्थ बनी लगभग वैसा ही 'कितने शहरों में कितनी बार' का वाकया या हादसा हिन्दी के हिस्से में शायद कम आया है। अपनी पुस्तक 'उर्दू भाषा और साहित्य' में काव्य-शास्त्र संबंधी कुछ बातों का उल्लेख करते हुए फिराक़ गोरखपुरी लिखते हैं- 'शहर आशोब (में) किसी शहर के उजड़ने या बरबाद हो जाने पर उसके पुराने वैभव को दुःख के साथ याद किया जाता है। इस प्रकार की कविता अत्यन्त मार्मिक होती है'उर्दू काव्य में शहरे-चराग़ां, शहरे-ख़ामोशां, शहरे-आरजू वगैरह का न केवल जिक्र आया है या कि किसी शहर के तसव्वुर में फकत 'वाह्-वाह् या 'हाय-हाय' ही की गई है बल्कि उसके समुचित वैविध्य,विस्तार और वर्णन के साथ यादगार कलात्मक प्रस्तुति भी की गई है। नास्टैल्जिया शहरनामे का केन्द्रीय सूत्र है जिसके रेशे-रेशे को उधेड्ना ही उसे दोबारा बुनना है। महाकवि ग़ालिब के शब्दों में कहें तो यह 'जले हुए जिस्म और दिल की जगह की राख को कुरेदने की जुस्तजू' है। शहरनामा न तो संस्मरण है और न ही यात्रा वृतांत अपितु मुझे लगता है कि यह किसी खास शहर से जुड़ी स्मृतियों के कबाड़खाने को खंगालते हुए एक-एक चीज को उलट-पुलट कर जस का तस रख देने का कलात्मक कारनामा है।



'चाँद तो अब भी निकलता होगा' राही मासूम रज़ा की एक तवील नज़्म है जिसे राही का 'शहरनामा अलीगढ़' भी कहा जा सकता है। वही अलीगढ़ , वही राही का 'शहरे-तमन्ना' जिसकी गोद में अवस्थित अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को उन्होंने दूसरी माँ का दर्जा दिया है। गंगौली,गाजीपुर और अलीगढ़ राही के व्यक्तित्व - निर्माण की उर्वर भूमि हैं। अलीगढ़ में उन्होंने 'छोटे आदमी की बड़ी कहानी' शीर्षक से परमवीर अब्दुल हमीद की जीवनी लिखी,'आधा गांव' जैसा कालजयी उपन्यास लिखा और अपने 'पूरे दोस्त कुंवर पाल सिंह' को समर्पित किया। इसी अलीगढ़ को उन्होंने अपने उपन्यास 'टोपी शुक्ला' में अमर कर दिया और यह वही अलीगढ़ है जिसके 'कूए यार' से रुस्वा होकर उन्हें बंबई या मुंबई के 'सूए दार, की जानिब चलना पड़ा जहां फिल्मी दुनिया के चकाचौंध में अपनी कलम के बूते अपनी एक सम्मानित जगह बनाकर रहते हुए भी वे निरंतर अपने शहरे-तमन्ना को याद करते रहे। प्रस्तुत हैं राही मासूम रज़ा की तवील नज़्म 'चाँद तो अब भी निकलता होगा' के कुछ चयनित अंश : 

*
कुछ उस शहरे-तमन्ना की कहो
ओस की बूंद से क्या करती है अब सुबह सुलूक
वह मेरे साथ के सब तश्ना दहां कैसे हैं
उड़ती-पड़ती ये सुनी थी कि परेशान हैं लोग
अपने ख्वाबों से परेशान हैं लोग !
*
जिस गली ने मुझे सिखलाए थे आदाबे-जुनूं
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं
शहरे रुसवाई में चलती हैं हवायें कैसी
इन दिनों मश्गलए-जुल्फे परीशां क्या है
साख कैसी है जुनूं वालों की
कीमते चाके गरीबां क्या है !
*
कौन आया है मियां खाँ की जगह
चाय में कौन मिलाता है मुहब्बत का नमक
सुबह के बाल में कंघी करने
कौन आता है वहाँ
सुबह होती है कहाँ
शाम कहाँ ढ़लती है
शोबए-उर्दू में अब किसकी ग़ज़ल चलती है !
*
चाँद तो अब भी निकलता होगा
मार्च की चांदनी अब लेती है किन लोगों के नाम
किनके सर लगता है अब इश्क का संगीन इल्जाम
सुबह है किनके बगल की जीनत
किनके पहलू में है शाम
किन पे जीना है हराम
जो भी हों वह
तो हैं मेरे ही कबीले वाले
उस तरफ हो जो गुजर
उनसे ये कहना
कि मैंने उन्हें भेजा है सलाम !



राही मासूम रज़ा के महाकाव्य '१८५७' (बाद में 'क्रांति कथा' नाम से प्रकाशित) की भूमिका 'गीतों का राजकुमार' कहे जाने वाले नीरज ने लिखी थी। कवि सम्मेलनों ,किताबों, कैसेटों के माध्यम से हिन्दी कविता को आम आदमी की जुबान तक पहुंचाने वाले कवि नीरज ने अपार लोकप्रियता हासिल की है। वे कविता की लोकप्रियता के जीवित कीर्तिमान है लेकिन उनकी यही लोकप्रियता हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों की दृष्टि में 'शाप' बन गई । 'लोकप्रियता बनाम साहित्यिकता' के मुद्दे को हिन्दी के साहित्यिक विमर्श का विषय कभी बनने ही नहीं दिया गया और यदि कभी ऐसा हुआ भी तो उस पर कोई गंभीर चर्चा शायद ही कभी हुई हो । हां, 'पापुलर कल्चर' के अध्येता अब इस पर बात जरूर कर रहे हैं। राही अलीगढ़ छोड़कर मुंबई गये और नीरज कानपुर छोड़कर अलीगढ़ आ गए। राही फिल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाकर वहीं के हो गये और नीरज फिल्मी दुनिया का फेरा कर "कारवां गुजर गया गुबार देखते' हुए अलीगढ़ लौट आए पर कानपुर को भूल नहीं पाए। अपने शहरे तमन्ना को कोई भूलता है भला ! प्रस्तुत हैं नीरज के शहरनामा 'कानपुर के प्रति' के कुछ चयनित अंश :

*
कानपुर ! आह!आज तेरी याद आई फिर
स्याह कुछ और मेरी रात हुई जाती है
आंख पहले भी यह रोई थी बहुत तेरे लिये
अब तो लगता है कि बरसात हुई जाती है।
*
और ऋषियों के नाम वाला वह नामी कालिज
प्यार देकर भी न्याय जो न दे सका मुझको
मेरी बगिया की हवा जो तू उधर से गुजरे
कुछ भी कहना न,बस सीने से लगाना उसको।
*
बात यह किन्तु सिर्फ जानती है 'मेस्टन रोड'
ट्यूब कितने कि मेरी साइकिल ने बदले हैं
और 'चित्रा' से जो चाहो तो पूछ लेना यह
मेरी तस्वीर में किस किसके रंग धुंधले हैं।
*
शोख मुस्कान वही और वही ढीठ नजर
साथ सांसों के यहां तक रे! चली आई है
तीन सौ मील की दूरी भी कोई दूरी है
प्रेम की गांठ तो मरके भी न खुल पई है।
*
कानपुर ! आज जो देखे तू अपने बेटे को
अपने 'नीरज' की जगह लाश उसकी पायेगा
सस्ता कुछ इतना यहाँ मैंने खुद को बेचा है
मुझको मुफलिस भी खरीदे तो सहम जायेगा।