अप्रेल को the cruellest month कहा जाता है लेकिन मैं प्राय: इसमें थोड़ा संशोधन - विस्तार करने की छूट लेते हुए मई माह को भी जोड़ लेता हूँ क्योंकि साल के ये दो महीने मेरे लिए सचमुच cruellest से हो जाते हैं। ऐसा इसलिए नहीं कि इन महीनों में ग्रीष्म अपने चरम पर होता है - गर्मी ही गर्मी पसीना ही पसीना। आज सुबह का अख़बार बता रहा है कि कल अपने गाँव - गिराँव -कस्बे का तापमान ४० डिग्री था। अप्रेल और मई मेरे लिए इसलिए cruellest हो जाते हैं कि इस समय काम का बोझ सबसे अधिक होता है। अब काम है तो है, उसे करना ही होता है और आदत इतनी खराब हो गई है कि चलताऊ तरीके से कुछ करना रास नहीं आता है। घर से अपने कस्बे के कार्यस्थल तक पहुँचने व आने के रास्ते में गुलमुहर के कई पेड़ हैं जो इस समय लकदक हैं लाल - लाल। पेड़ों की इन्हीं कतारों के मध्य अमलतास का एक अकेला पेड़ है - मझोले कद का जो दिनोंदिन लघुकाय - कृषकाय होता जा रहा है और इस साल तो इस पर बहुत कम फूल आए हैं - इतने कम गुच्छे कि उन्हें आसानी से गिना जा सकता है। अपना मन बावरा गुलमुहर को देखकर खुश होता है और अमलतास को देखकर उदास। दोपहर बाद चिलचिलाती धूप में जब घर लौटता हूँ तो अकेले अमलतास को देखकर लगता है कि शायद अगले साल यह रहे - न रहे !
अपना यह अमलतास इतनी गझिन छाँह भी नहीं देता कि उसके नीचे कोई पंथी जुड़ा सके , अपनी थकन मिटा सके और काम भर आक्सीजन पीकर , तरोताजा होकर बढ़ जाय अपनी मंजिल की तरफ। यह राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे खड़ा अपनी प्रजाति का एक अकेला - इकलौता पेड़ है जो अहर्निश तेज रफ़्तार गाड़ियों को देखता रहता है ; अपनी जगह पर स्थिर। इसके उल्टी तरफ की पटरी पर वाणिज्य कर कार्यालय है और उसके पार्श्व में चौपहिया वाहन बनाने - बेचने वाली एक नामी कंपनी का नया - नया खुला शोरुम। दिन भर इन दोनों ठिकानों पर खूब आवाजाही रहती है मानो रोज का कोई छोटा- मोटा मेला। ऐसे रेले - मेले में अपना यह अमलतास एक खोए हुए बच्चे की तरह लगता है। मन होता है कि उसका हालचाल पूछूँ , उसका मनबहलाव करूँ और यदि बाकी कुछ भी न भी करूँ तो कम से कम इतना तो कर ही लूँ कि अपने मोबाइल कैमरे से उसकी एक अदद तस्वीर ही उतार ले चलूँ किन्तु यह सोचकर रुक जाता हूँ कि देखने वाले क्या कहेंगे , क्या सोचेंगे। कहेंगे कि अजीब अहमक है जो भरी दुपहरिया में अपना आरामदेह वाहन रोककर लकलक करते गुलमुहर की फोटो खींचने की बजाय एक छीजते - खत्म होते अमलतास के अदने से लगभग पुष्पहीन पेड़ की फोटॊ खींच रहा है !
समय की अपनी चाल है ; दुनिया - जहान की अपनी। अगर यह अमलतास न भी रहे तो क्या फर्क पड़ जाएगा ? क्या घट जाएगा ? महाकवि कह गए हैं - 'ग़ालिबे खस्त: के बगैर कौन से काम बंद हैं'। महाकवि यहीं नहीं रुकते वे आगे कह गए हैं - 'कीजिए हाय- हाय क्यों रोइए जार - जार क्यों'। मैं न तो हाय - हाय कर रहा हूँ न ही जार - जार रो रहा हूँ। मैं तो बस उदास - सा हो जाता हूँ इस पेड़ को देखकर। यह पता है कि मेरे उदास होने से न तो समयचक्र रुक जाएगा , न ही दुनिया की गति थम जाएगी और न ही यह अमलतास इतिहास - अतीत की वस्तु बनने से बच जाएगा। यह भी भान है कि यह सब जो मैं सोच रहा हूँ वह एक निरर्थक उपक्रम है शायद ! क्या वास्विकता से मुँह चुराने का एक शरण्य है यह ? इसी बात को थोड़ा और विस्तार देकर कहूँ तो यह भी कहा जा सकता है निरर्थकता के उत्सव में जाया तो नहीं हो रहे हैं मेरे वे शब्द जो कहीं , किसी जरूरी और जायज मोर्चे पर सार्थक हस्तक्षेप भी कर सकते थे ?
समझदार लोग कहते हैं कि जिस संसार में हम जी रहे हैं उसमें गुलमुहर की जानिब देखने - ताकने का कोई अवकाश नहीं है और न ही अमलतास से बोलने - बतियाने का मौका ही बचा है। ये सब पुराने खेवे के दस्तूर हैं। समय व संसृति के बड़े हिस्से ने इनसे दोस्ती करके देख लिया और अब वे अपने पर ही झींक रहे है। यह नई - नई दुनिया है। इसका सौन्दर्यबोध नया- नया है। इसके पटल पर जो उपयोगी है वही आवश्यक है। यह अलग बात है कि कविता , किस्सों - कहानियों में कुछ - कुछ लिखा - पढ़ा जा सकता है जो रागात्मक हो , जो लिरिकल रिजोनेंस पैदा करता हो लेकिन वह आभासी हो, वह उत्पादकता में बाधक न बने। यह नई दुनिया का नया करतब है। संतुलन साधने का एक नया उपक्रम; ऐसा उपक्रम जो सफल होने की निरंतरता में क्रमभंग का कारण न बने।
क्या करूँ , एक मन बावरा वास करता है इस तन में जो गुलमुहर की कतार को देखकर खुश होता है और अकेले अमलतास को देखकर उदास। ये गर्मियों के दिन हैं; धूप, घाम, उमस , पसीना और काम के आधिक्य से अवकाश को तरसने - तड़पने वाले दिन। पिछले सप्ताह इसी व्यस्तता में चार - पाँच दिन के लिए बाहर , बसेरे से दूर जाना हुआ। तीन हजार से अधिक किलोमीटर की यात्रा कर के वहीं, उसी जगह लौटने का उछाह था जिस जगह को घर कहते हैं। वापसी में पाँच घंटे लेट अपनी गाड़ी किसी कारणवश एक ऐसे छोटे से स्टेशन पर रुक गई जो उसका स्टापेज था ही नहीं।ट्रेन की कुंडली इस जगह का कोई 'घर' ही नहीं था। खिड़की से बाहर झाँका तो एक नई दुनिया सामने थी। एक नया संसार अपने पास बुला रहा था। प्लेटफार्म पर शान से खड़ा था एक मँझोले कद का अमलतास - फूलों से लदा एक भरापूरा पेड़। अमलतास, जिसे वानस्पतिक स्वर्ण पुष्प कहने का मन होता है। इसे देखकर अपने रोजमर्रा के रास्ते के छीजते अकेले , उदास अमलतास की याद हो आई। डिब्बे की कृत्रिम सुशीतल दुनिया से बाहर आकर धूप में उस लहलह करते अमलतास को अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर लिया। क्षणांश में मनुष्य निर्मित एक छोटे से यंत्र की काया में एक समूचा सचमुच का पेड़ समा गया।
इस समय मध्यरात्रि है। नीरवता व्याप्त है। की-बोर्ड की हल्की खटपट भी साफ सुनाई दे रही है। कंप्यूटर के स्क्रीन पर अमलतास का एक खूबसूरत छतनार वृक्ष उग आया है। सोच रहा हूँ - प्रकृति भी क्या गजब है ; कहीं किसी चीज का खत्म होना वैसी ही किसी दूसरी चीज की शुरुआत होने की एक गतिशीलता है ; एक क्रम है, एक निरन्तरता। देखिए तो इसी पृथ्वी पर एक अमलतास का वृक्ष लगभग खत्म होने को है और इसी पृथ्वी पर एक दूसरा अमलतास यौवन की दीप्ति से उन्मत्त चिलचिलाती धूप, तपन और गर्मी को ठेंगा दिखा रहा है। लगता है कि नए सिरे से से सोचना पड़ेगा कि क्या अप्रेल और मई सचमुच मेरे लिए cruellest months हैं ?