शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

जब तुम सोते समय गिन रहे होते हो ग्रह - नक्षत्र - तारकदल


विश्व कविता के प्रेमियों के लिए फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश ( १३ मार्च १९४१ - ०९ अगस्त २००८ )  कोई अपरिचित - अनचीन्हा नाम नहीं है। हिन्दी पढ़ने - पढ़ाने वालों की दुनिया में उन्हें खूब अनूदित किया गया है और खूब पढ़ा गया है / खूब पढ़ा जाता रहेगा। नेरुदा, लोर्का , नाजिम हिकमत की तरह उन्हें चाहने वालों की कतार कभी छोटी नहीं होगी।  आइए आज देखते - पढ़ते हैं उनकी एक प्रसिद्ध कविता : 'दूसरों के बारे में सोचो'।




महमूद दरवेश की कविता

दूसरों के बारे में सोचो
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

जब तुम तैयार कर रहे होते हो अपना नाश्ता
दूसरों के बारे में सोचो
( भूल मत जाना कबूतरों को दाने डालना )

जब तुम लड़ रहे होते हो अपने युद्ध
दूसरों के बारे में सोचो
( मत भूलो उनके बारे में जो चाहते हैं शान्ति )

जब तुम चुकता कर रहे होते हो पानी का बिल
दूसरों के बारे में सोचो
( उनके बारे में जो टकटकी लगाए ताक रहे हैं मेघों को )

जब तुम जा रहे होते हो अपने घर की तरफ
दूसरों के बारे में सोचो
(उन्हें मत भूल जाओ जो तंबुओं - छोलदारियों में कर रहे हैं निवास)

जब तुम सोते समय गिन रहे होते हो ग्रह - नक्षत्र - तारकदल
दूसरों के बारे में सोचो
( यहाँ वे भी हैं जिनके पास नहीं है सिर छिपाने की जगह )

जब तुम रूपकों से स्वयं को कर रहे होते हो विमुक्त
दूसरों के बारे में सोचो
( उनके बारे में जिनसे छीन लिया गया है बोलने का अधिकार )

जब तुम सोच रहे हो दूरस्थ दूसरों के बारे में
अपने बारे में सोचो
( कहो : मेरी ख्वाहिश है कि मैं हो जाता अँधेरे में एक कंदील)

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( चित्र : 'मेक सम नाएज' / गूगल सर्च से साभार )

बुधवार, 21 जुलाई 2010

राइम्स इन द रेन


* आज झमाझम , नहीं ..नहीं मूसलाधार बारिश का तीसरा दिन है। इतवार की शाम पाँच बजे से जो तेज बारिश शुरू हुई थी वह आज शाम पाँच बजे के आसपास बंद - सी  हुई है। बंद क्या हुई है , इसे स्थगित होना या थमना जैसा कह सकते हैं। आज शाम को थोड़ी देर के लिए धूप भी निकली , फिर जल्द ही गायब हो गई। लगा कि पेंसिल स्केच जैसे दीखने वाले पहाड़ों के ऊपर क्षितिज पर सहसा कोई इन्द्रधनुष उदित होगा किन्तु ऐसा न हुआ। शाम हुई , धीरे - धीरे अँधियारा उतरना आरंभ हुआ और आसमान में बादलों की ओट से चाँद झाँकने लगा । पश्चिम में एक चमकीला तारा भी दिखाई दिया जिसका भला - सा नाम है।...और सहसा बादलों का घनापन बढ़ने लगा और चाँद - तारा दोनो गायब। अभी बारिश नहीं हो रही है , होनी भी नहीं चाहिए। पिछले तीन दिनों में इतना पानी बरसा है कि निचले क्षेत्रों में बाढ़ आ गई है। जिधर देखिए जल ही जल है।

 * इन तीन दिनों में बारिश को दूर चले जाने की हिदायत देने के लिए बार - बार बच्चों की किताबों में लिखी नर्सरी राइम - 'रेन रेन गो अवे, कम अगेन एनदर डे'  की याद आती रही। पता नहीं नर्सरी राइम्स कौन ,कैसे  बनाता होगा पर बारिश को दूर चले जाने की मनुहार के सिलसिले में 'रेन रेन गो अवे' की खूब याद आई और घर में बारिश में बंद होकर झींकने - खीझने- कलपने के बजाय हमने अपने परिवार में ही खूब मौज की क्योंकि जलभराव के कारण बच्चों का स्कूल बंद है। खाने - पीने की फरमाइशों और उनके सुस्वादु प्रस्तुतीकरण का दौर चल रहा है। इसी मौज में तीन नर्सरी राइम्स बन गई हैं जो एक तरह से बारिश को दूर चले जाने की मनुहार के मूड में ही लिखी गई हैं क्योंकि घर के पास वाले बूढ़े आम के पेड़ पर बैठने - बोलने वाली कोयल बारिश में गायब है और मेंढकों की कर्कश आवाज सुनाई देने लगी है, सड़क घूमने वाले छुट्टा जानवर भी कहीं दुबके पड़े हैं।  आप इन राइम्स को  देखें - पढ़ें -गुनगुनायें। वैसे ये इस अकेले नाचीज के  मौजपने  की उपज नहीं हैं बल्कि बिटिया हिमानी, बेटे अंचल और शैल का महत्वपूर्ण योगदान भी इसमें शामिल है। वैसे भी , सबको पता है कि अंग्रेजी में अपना हाथ बहुत तंग है। खैर , हमारे साथ बारिश से दूर चले जाने यानि 'रेन - रेन गो अवे' की तर्ज पर तैयार  की गईं राइमनुमा इन तीन अभिव्यक्तियों का अंग्रेजी में ही आनंद लीजिए ।आज इस बारिश के मौसम में अनुवाद का काम बंद है :




थ्री राइम्स इन द रेन
(Three Rhymes in the Rain )

01-

Cuckoo –cuckoo
come along.
I want to sing
a lovely song.

Let’s compare
who is sweet.
If you win
give me a treat.

02-

Rain - rain
leave the plain.

Go away
up the hillock.
Where is grazing
a bumpy bullock.

03-

Froggy – froggy
keep quite.
Why are you croaking
all the night?

Go to bed
bid good night.
Otherwise I ‘m
coming to fight.

रविवार, 18 जुलाई 2010

मेरठ से निकली हिन्दी बात




आज का अख़बार बता रहा है : 'नाथू ला पहुँची क्वींस बेटन। ७१ राष्ट्रंडल देशों से गुजरती हुई यह बेटन भारत में २० हजार  किलोमीटर का सफर तय करेगी।सब जानते हैं कि जल्द ही अपने देश में राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन होने जा रहा है और यह सब उसी की तैयारी / रस्म का एक  हिस्सा है। इन खेलों का आयोजन बढ़िया तरीके से हो, बाहर से आने वाले खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों को कोई कष्ट न हो , सब कुछ ठीकठाक हो साथ ही अपनी झोली में ढेर सारे पदक आयें ; यह कौन नहीं चाहता है ! लेकिन मेरठ के लोग  इससे कुछ अधिक भी चाहते हैं । वे चाहते हैं कि राष्ट्र मण्डल खेलों में हिन्दी प्रयोग को बढ़ावा दिया जाय। इस मुहिम को गति देने के लिए  राजभाषा समर्थन समिति का गठन किया गया है। यह समिति केवल कागजी नहीं वरन अपने उद्देश्य को पूरा करने के क्रम में जनसमर्थन  औत्र जन सहभागिता के काम को गंभीरता के साथ अंजाम भी दे रही है। इसमें चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ और उसके हिन्दी विभाग की सक्रिय भूमिका है।

हिन्दी लिखने - पढ़ने - बोलने वालों  की एक बड़ीजमात को पता है कि पिछले कुछ वर्षों में मेरठ विश्वविद्यालय और वहाँ के हिन्दी विभाग ने अपनी एक  विशिष्ट पहचान निर्मित की है तथा पठन - पाठन के साथ विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रमों की  निरंतरता बनाए रखी है। इसी क्रम में  07 जुलाई, 2010  विश्वविद्यालय के सुसज्जित सभागार बृहस्पति भवन में राजभाषा समर्थन समिति की बैठक का आयोजन किया गया जिसमें  मेरठ के सांसद तथा संसदीय राजभाषा समिति के सदस्य राजेन्द्र अग्रवाल , हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर नवीन चंद्र लोहनी, सेवानिवृत न्यायाधीश एस0 पी0 त्यागी, रासना कॉलेज के प्राचार्य डॉ0 नन्द कुमार, डॉ0 आर0सी0 लाल, डॉ0 शिवेन्द्र सोती , एडवोकेट मुनीष त्यागी, पत्रकार हरि शंकर जोशी , शिक्षा संकाय के संकायाध्यक्ष प्रो0 आई0 आर0 एस0 सिंधु , डॉ0 असलम जमशेदपुरी  व अन्य वक्ताओं ने हिन्दी के सर्थन में अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम के अध्यक्ष कुलपति प्रो0 एस0 के0 काक   ने कहा कि अगर आप अपनी भाषा का सम्मान करेंगे, गर्व करेंगे तो दूसरे लोग भी करेंगे। हिन्दी को हमें इस प्रकार विकसित करना होगा कि हम इसे अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करें।  इसे अर्न्तराष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए हमें  विस्तृत दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा। हिन्दी भाषा बोलने के लिए पहले अपनी भाषा में यकीन, अनुशासन, स्वयं का दृढ़निश्चय होना चाहिये। उन्होंने कहा कि मैं इस पूरे प्रस्ताव के साथ हूँ और इसके लिए जहाँ तक जाना होगा साथ दूँगा। 

कार्यक्रम की सहयोगी संस्थाओं के रूप में दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, दैनिक अमर उजाला, फैज-ए-आम डिग्री कॉलेज, मेरठ, मानस सेवा संस्थान, सांस्कृतिक परिषद्, वरिष्ठ नागरिक मंच सहित कई संस्थाओं ने राजभाषा समर्थन समिति की इस पहल का समर्थन किया। कार्यक्रम का संचालन हिन्दी विभाग के शोध छात्र रविन्द्र राणा एवं डॉ0 विपिन कुमार शर्मा ने किया। अतिथियों का आभार कार्यक्रम के संयोजक डॉ0 नवीन चन्द्र लोहनी ने किया। इस अवसर पर सुमनेश सुमन ने हिन्दी के समर्थन में कविता भी सुनाई। कार्यक्रम में डॉ0 रवीन्द्र कुमार, डॉ0 गजेन्द्र सिंह, सीमा शर्मा, नेहा पालनी, डॉ0 आशुतोष मिश्र, अंजू, अमित कुमार, ललित सारस्वत, विवेक, सहित हिन्दी विभाग के छात्र-छात्राओं तथा शहर के वरिष्ठ नागरिकों पत्रकारों, वकीलों, शिक्षकों तथा विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने भाग लिया। इस महत्वपूर्ण बैठक में  वक्ताओं ने  'राष्ट्र मण्डल खेलों में हिन्दी प्रयोग को लेकर विचार विमर्श किया और अंततः प्रस्ताव पारित हुआ कि राष्ट्र मण्डल खेलों में अनिवार्यतः हिन्दी प्रयोग कराने के लिए सरकार और आयोजनकर्ता संस्थाओं को कहा जाएगा। इसके लिए प्रधानमंत्री,  राजभाषा विभाग तथा राष्ट्रपति से भी मिला जाएगा, संसद में सवाल उठेंगे और दिल्ली में यहाँ के आन्दोलन की दमक पूरी शिद्दत के साथ पहुँचाई जाएगी।'  इस कार्यक्रम की विस्तृत रपटें पत्र - पत्रिकाओं और वेब माध्यमों पर आ चुकी हैं और आ रही हैं।

मेरठ हिन्दी का मायका है , आधुनिक हिन्दी की की उत्स भूमि, हिन्दी की उर्वर भूमि।राष्ट्र मण्डल खेलों में हिन्दी प्रयोग को लेकर मुहिम छेड़ने वाली राजभाषा समर्थन समिति से जुड़े व्यक्तियों और संस्थाओं का मानना है कि यह काम केवल खेलों के आयोजन उनमें हिन्दी के प्रयोग तक ही सीमित नहीं है अपितु राजभाषा के रूप में हिन्दी की  भूमिका और स्थिति को वास्तविक  और सुदॄढ़ करने के काम में निरन्तर सक्रिय रहेगी और जब  , जहाँ , जैसी आवश्यकता होगी वहाँ अपनी भूमिका का सक्रिय निर्वाह करते हुए सार्थक हस्तक्षेप करती रहेगी। यह एक नेक काम है और हिन्दी की दुनिया से जुड़े लोगों के लिए जरूरी भी। इसके उद्देश्य को  अपने स्तर पर  प्रचारित - प्रसारित करने तथा इस इसमें अपना योगदान देने के लिए हिन्दी बिरादरी को आगे आना चाहिए। 
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* ( इस संदर्भ में अधिक जानकारी व जुड़ाव के लिए हिन्दी विभाग की वेब पत्रिका  मंथन'  पर जाया जा  सकता है)

बुधवार, 14 जुलाई 2010

बारिश और निज़ार क़ब्बानी की कविताओं की दो बूँदें


निज़ार क़ब्बानी (( 21 मार्च 1923 - 30 अप्रेल1998 )  की  कविताओं के अनुवाद आप पहले कई बार 'कर्मनाशा' और 'कबाड़खा़ना' पर तथा एकाधिक बार 'अनुनाद' पर पढ़ चुके हैं। कुछेक कवितायें अख़बारों - पत्रिकाओं में भी आई हैं / शीघ्र आ रही हैं।  सीरिया और अरब जगत के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवियों में से एक  इस कवि की कविताओं से गुजरना 'प्रेम में होना' है। इस कवि की कविताओं का अनुवाद करते हुए मुझे बहुत अच्छा लगा। यह क्रम अभी जारी है। आजकल बारिश का मौसम है। आइए , इस मौसम में निज़ार की इन दो प्रेम कविताओं की आर्द्रता अपने भीतर तलाशने का उपक्रम करें।

                         
                                                         

निज़ार क़ब्बानी की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

* बारिश-०१

हम दोनों पर
जब भी गिरती है बारिश
उगने लगते हैं हजारों पौधे
हमारी पोशाकों पर।

बिसरा दिया है तुमने
जबसे मुझको
बारिश अब भी गिरती है
अकेले मुझ पर।

लेकिन जन्म नहीं लेता है
नन्हा - सा भी बिरवा कोई एक
मेरे कोट पर।

* * बारिश-०२

बारिश से भरी रात की तरह
हैं तुम्हारी आँखें
जिनमें डूबती जाती है मेरी नाव।

अपनी ही प्रतिच्छाया में
लुप्त होती जाती है
मेरी तहरीर।

नहीं होती
होती ही नहीं
आईनों के पास
याददाश्त जैसी कोई चीज।
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* निज़ार क़ब्बानी की कुछ कवितायें 'सबद' पर भाई अनुराग वत्स ने बहुत प्रेम से प्रकाशित की हैं। उनके प्रति आभार। यदि आपके पास समय हो और मन करे तो वहाँ भी हो आयें!
* चित्र डेनियल वाल की कलाकृति। साभार: गूगल सर्च।

सोमवार, 12 जुलाई 2010

ब्लागिंग की बनती दुनिया में बड़े - बड़े लिक्खाड़ पड़े हैं


यह शुद्ध मौज है। एक घरेलू मस्ती। चार दीवारों और एक छत के नीचे ऊष्मा बिखेरती एक आम चुहल। इसी चुहल से बनी रहती है घर के बीच चहल - पहल। अंचल जी ( क्लास फ़ोर्थ - बी) ने कल शाम को जब आम का चित्र बनाया और उसके नीचे पोएम लिखने की बात कही तो ..कुछ हमने कही ..; कुछ उसने कही .. और मिल - मिलाकर पोएम बन ही गई। आज अभी जब शाम हो रही है , अंचल जी अपना होमवर्क कर रहे हैं, बिटिया नींद का आनंद ले रही है , शैल हल्की फुल्की झपकी के बाद अंचल जी का होमवर्क चेक कर रही  हैं और अपन कंप्यूटर जी पर खटर - पटर कर रहा हूँ तो मन हुआ कि कुछ तुक मिला  लिया जाय। तो , मिले तुक मेरा तुम्हारा..आइए देखें आम और अमरूद के साथ एक आनलाइन आशुकविता या कवितानुमा कविता  का नज्जारा...




आम और अमरूद के बहाने...

अंचल जी ने चित्र बनाया
एक अमरूद और एक आम
बीच में लिख दी कविता छोटी
यह तो हो गया अच्छा काम।

कंप्यूटर पर करता रहता
मैं तो खटर - पटर अविराम।
थोड़ा लिखता ज्यादा पढ़ता
मचता अंतर में कोहराम।

पर क्या बच्चों की खातिर भी
लिखता हूँ कोई अच्छी चीज?
सोच सोचकर मन झुँझलाता
खुद पर आती अक्सर खीज।

पर अब यह सोचा है मैंने
लिखना है बच्चों की खातिर।
उनसे ही जग में रौनक है
वर्ना तो यह दुनिया शातिर।

अंचल जी की फल महिमा ने
भीतर के कवि को उकसाया ।
तभी तो मैंने आज प्रेम से
तुक से तुक को है भिड़वाया।

कविता क्या है मैं क्या जानूँ!
बच्चों में कविता दिखती है।
बस इसलिए लेखनी अक्सर
अपने घर पर कुछ लिखती है।

ब्लागिंग की बनती  दुनिया में
बड़े - बड़े लिक्खाड़ पड़े हैं।
हम तो हल्का - फुल्का लिखकर
कोने में चुपचाप खड़े हैं।

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

महत्वहीन चीजों में व्यस्त रखता हूँ मैं स्वयं को


I write poetry.
I write poetry and buy old clothes.
I sell old clothes and buy music;
If I could also be a fish in a bottle of booze...

- Orhan Veli

तुर्की कवि ओरहान वेली (१९१४ - १९५०) की एक कविता का अनुवाद कल 'कबाड़ख़ाना' पर प्रस्तुत किया था और यह लिखा था कि कवि का परिचय और कुछ अन्य कवितायें शीघ्र ही.. आज इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए उनका परिचय देने के बजाय उचित यह लग रहा है कि क्यों न ओरहान की आत्मकथात्मक / आत्मपरिचयात्मक कविता 'मैं , ओरहान वेली' को हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के बीच विश्व कविता के प्रेमियों के मध्य  साझा  किया जाय। एक तरह से यह ठीक लग रहा है कि उनके 'संक्षिप्त जीवन परिचय' के तंतुओं और रचना प्रक्रिया को इस कविता के माध्यम से समझते हुए एक कवि जिसने ३६ वर्षों का लघु जीवन जिया ,एकाधिक बार बड़ी दुर्घटनाओं का शिकार हुआ , कोमा में रहा और जब तक जिया सृजनात्मक लेखन व अनुवाद का खूब सारा काम किया , के काव्य संसार में उसके द्वारा दिए गए अंत:साक्ष्यों का सिरा थामकर चुपके से प्रविष्ट हुआ जाय व देखा जाय कि अपनी ही कविता की काया में एक कवि का अंतरंग व बहिरंग कैसा दिखाई देता है। तो लीजिए प्रस्तुत है यह कविता.....

मैं,ओरहान वेली
( तुर्की कवि ओरहान वेली की कविता / अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)


मैं,ओरहान वेली
प्रसिद्ध रचनाकार
'सुलेमान एफांदी को शान्ति मिले'शीर्षक कविता का।
सुना गया है कि सबको उत्सुकता है
मेरे निजी जीवन के बारे में जानकारी की।

अच्छा, तो मुझे कह लेने दो:
सबसे पहले तो यह कि मैं एक मनुष्य हूँ , सचमुच का
नहीं हूँ मैं; सर्कस का जानवर या ऐसा ही कुछ और
मेरी एक नाक है
कान भी हैं
हालांकि वे बहुत सुघड़ नहीं हैं।

मैं एक घर में रहता हूँ और कुछ कामधाम भी करता ही हूँ।
मैं अपने सिर पर बादलों की कतार लिए नहीं फिरता हूँ
न ही मेरी पीठ पर चस्पां है भविष्यवाचन का इश्तेहार
मैं इंगलैंड के राजा जार्ज की तरह नफासत वाला नहीं हूँ
और न ही अभिजात्य से भरा हूँ
सेलाल बायार के अस्तबल के हालिया मुखिया की भाँति।

मुझे पसंद है पालक
मैं दीवाना हूँ पफ़्ड चीज़ पेस्ट्रीज का
दुनियावी चीजों की मुझे चाह नहीं है
बिल्कुल नहीं दरकार।

ओकाते रिफात और मेली वेदे
ये हैं मेरे सबसे अच्छॆ दोस्त
मैं किसी से प्यार भी करता हूँ
बहुत ही सम्मानित है वह
लेकिन मैं बता नहीं सकता हूँ उसका नाम
चलो, साहित्य के आलोचकों को ही करने दो यह गुरुतर कार्य।

महत्वहीन चीजों में व्यस्त रखता हूँ मैं स्वयं को
बनाता रहता हूँ योजनायें
और क्या कहूँ?
शायद और भी हजारों आदतें हैं मेरी
लेकिन उनको सूचीबद्ध करने से क्या लाभ
वे सब मिलती जुलती हैं एक दूसरे से -
एक से होता है दूसरे का भान
और दूसरे से पहले का।
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मंगलवार, 6 जुलाई 2010

पत्तों पर ठिठका है जल


* आज दिन भर ठीकठाक बारिश हुई।धूप , तपन, लू  और गर्मी की जगह नमी , तरावट और आर्द्रता ने हथिया ली।जब बारिश हुई तो मन -मस्तिष्क के भीतर भी कुछ न कुछ बरसा है। खैर , सबको बारिश मुबारक ! हैप्पी बारिश ! अब इस गीले मौसम में यह कविता या कवितानुमा जो भी है ,जैसा भी बन पड़ा है - अनायास ..वह सबके सामने है:





बारिश : चार मन:स्थितियाँ

01-

कविता में क्या है-
शब्द ?
रूप ?
गंध ?

प्रकृति के कोरे कागज पर
बारिश लिख रही है छंद।

02-

बारिश आई
याद आई छतरी
याद आए तुम
याद आया घर।

ओह ! कितनी देर से
भटक रहा हूँ बाहर
इधर - उधर।

03-

 भीगा
नम हुई देह
आर्द्र हुआ मन।

बरसने को व्यग्र हैं
नभ में छाए घन सघन।

04-

पत्तों पर
ठिठका है जल।

वह भी देख रहा है
शायद तुम्हें
अपलक - एकटक - अविचल।

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

नहीं चाहिए हमको ब्लॉग ! बिल में ही गाना है राग !


* आज जुलाई माह की पहली तारीख है। आज से स्कूल री-ओपेन। छूट्टी खतम। मस्ती खतम। पढ़ाई चालू। सुबह जल्दी उठो। जल्दी से रेडी -शेडी। स्कूल को निकलो। टाटा - बाय। थके हारे आओ। कुछ खाओ - पीओ। थोड़ा रेस्ट। शाम को थोड़ी खेल - कूद। फिर होमवर्क , असाइनमेंट, प्रोजेक्ट एस्सेट्रा। थोड़ी देर टीवी - गेम। खाना। चलो जल्दी सो जाओ। सुबह जल्दी उठना है । स्कूल जाना है.....ओके..गुड नाइट.....

** सचमुच बच्चों के पास कितना काम है। और (अब) कितना कम आराम है। छुट्टियाँ क्या खत्म हुईं। बच्चों की मौज खत्म हो गई। खैर, फिर छुट्टियाँ आयेंगी - बहारें फिर से छायेंगीं। फिर से जी भर टाम - जेरी देखने के दिन आयेंगे।

*** अक्सर मुझे लगता है बच्चों के लिए प्राय: कुछ नहीं लिख पाता हूँ। आज यूँ ही शाम को जब बच्चे डिनर के बाद टीवी देख रहे थे और शैल किचन में कुछ कर रही थीं तब बैठे - बैठे कुछ लिख मारा। तीनों को सुनाया और जब लिखा हुआ पास हो गया तब सबके साथ साझा करने के उद्देश्य से 'कर्मनाशा' के पन्नों पर प्रस्तुत कर रहा हूँ । आप इसे चाहे जो समझें - एक कविता  / कवितानुमा मस्ती या फिर बाल कविता :


बिल में ही गाना है राग !


चूहे जी ने ब्लॉग बनाया।
तरह- तरह से उसे सजाया।

प्रोफ़ाइल बढ़िया दे मारा
चित्र लगाया प्यारा - प्यारा।

पहली पोस्ट लगाई अच्छी।
कविता एक सीधी और सच्ची।

उसमें अपना हृदय उँड़ेला।
लगने लगा टिप्पणी -मेला।

कहा किसी ने 'अच्छी रचना'।
'नाइस' कह कोई चाहे पढ़ना ।

'उत्तम' , 'बढ़िया' , 'अद्भुत' , 'अच्छा'।
बना प्रशंसक बूढ़ा - बच्चा।

फ़ालोअर्स की लगी कतार।
सबने खूब लुटाया प्यार।

लिंक लगे जब चारो ओर।
'चूहा -ब्लॉग ' का मच गया शोर।

चर्चाकारों ने अपनाया।
टीप - टीप कर मान बढ़ाया।

बिल्ली जी तक पहँची बात।
लैपटाप पर फ़ेरा फिर  हाथ।

आकर टीपा 'म्याऊँ - म्याऊँ'।
डर कर चूहा चला बदाय़ूँ।

बोला यह दुनिया अनजानी ।
बाय - बाय टाटा बिल्ली रानी।

नहीं चाहिए हमको ब्लॉग !
बिल में ही गाना है राग !