If there was nothing to regret
there was nothing to desire.
- Vera Pavlova
वेरा पावलोवा ( जन्म : १९६३ ) ने बीस वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता तब लिखी जब वह लेबर रुम में प्रसव पीड़ा से गुजर रही थीं और उनकी बड़ी बिटिया का जन्म होने वाला था। उनकी उम्र का यह वह वक्त था जब संगीत में विधिवत शिक्षा - दीक्षा प्राप्त कर चुकी वेरा को लगने लगा था कि भीतर ही भीतर कुछ उफन रहा है जिसके बाहर आने का सबसे सशक्त माध्यम कविता और केवल कविता ही हो सकती है, इसके सिवा और कुछ भी नहीं। घर - गृहस्थी के राग - विराग - खटराग के बीच उन्होंनें आसपास की चीजों को अलग तरीके से देखना और उन पर अलग मुहावरे में रचना शुरू कर दिया । बत कुछ आगे बढ़ी और धीरे - धीरे वह बड़ी - बड़ी नामी गिरामी पत्र - पत्रिकाओं छपने लगीं। इसी के साथ यह भी हुआ कि रूसी साहित्यिक हलकों में यह माना जाने लगा कि कहीं यह अलग अंदाज की काव्यात्मक उपस्थिति अपनी निरन्तरता में कोई झाँसेबाजी तो नहीं है? खैर, अंतत: एक दिन यह सब झूठ साबित हुआ और आज पन्द्रह कविता संग्रहों के साथ वेरा पावलोवा रूसी साहित्य का एक बड़ा और समादृत- सम्मानित नाम है। संसार की बहुत सी भाषाओं में उनके कविता कर्म का अनुवाद हो चुका है जिनमें से स्टेवेन सेम्योर द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद 'इफ़ देयर इज समथिंग टु डिजायर : वन हंड्रेड पोएम्स' की ख्याति सबसे अधिक है। यही संकलन हमारी - उनकी जान - पहचान का माध्यम भी है। स्टेवेन, वेरा के पति हैं और उनकी कविताओं के ( वेरा के ही शब्दों में कहें तो ) 'सबसे सच्चे पाठक' भी। महाकवि राबर्ट फ्रास्ट भले ही कह गए हों कि Poetry is what gets lost in translation फिर भी सोचिए कि अगर अनुवाद न होता तो दुनिया भर की तमाम श्रेष्ठ कवितायें हम तक क्योंकर पहुँचती ! अनुवाद के बारे में अपने एक साक्षात्कार में वेरा पावलोवा क्या खूब कहती हैं - A good translation is a happy marriage of two languages, and it is just as rare as happy marriages are. ...और... a good translation is the same dream seen by two different sleepers. उनकी कवितायें कलेवर में बहुत छोटी हैं। उनमें कोई बहुत बड़ी बातें भी नहीं हैं । उनकी कविताओं में दैनंदिन जीवनानुभवों की असमाप्य कड़ियाँ हैं जो एक ओर तो दैहिकता के स्थूल स्पर्श के बहुत निकट तक चली जाती हैं और दूसरी ओर उनमें इसी निकटता के सहउत्पाद के रूप में उपजने वाली रोजमर्रा की निराशा और निरर्थकता भी है। उनकी कविताओं को ' स्त्री कविता' का नाम भी दिया जाता है लेकिन वह मात्र इसी दायरे में कैद भी नहीं की जा सकती है। कविताओं पर और बात फिर होगी ..यह क्रम चलेगा अभी कुछ दिन। आइए, आज और अभी वेरा पावलोवा की दो कवितायें देखते - पढ़ते हैं....
वेरा पावलोवा की दो कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
०१-
किरचें
मैंने तोड़ दिया तुम्हारा हृदय
अब चलना है मुझे
(जीवन भर )
काँच के टुकड़ों पर।
०२-
अनिद्रा के निदान हेतु एक नुस्खा
फिलहाल पहाड़ों से उतरकर
आ नहीं रही है कोई भेड़
न ही गिनने को बाकी रह गई हैं छत की दरारें
जिनमें तलाशी जा सकें उनकी निशानियाँ
जिनसे प्रेम किया गया था किसी वक्त।
सपनों के पिछले किराएदार भी नहीं
जिनकी स्मृति जगाए रक्खें सारी रात
और वह दुनिया भी तो नहीं
जिसके होने का खास अर्थ हुआ करता था कभी
अब उन बाँहों की जुम्बिश भी नहीं
जिनमें थर - थर काँपता था प्रेम....
आएगी , जरूर आएगी तुम्हें नींद
लेकिन तब
जब पूरब में उदित होगा सूर्य
और आँसुओं में डूब जाएगी यह रात।