सोमवार, 29 मार्च 2010

चलो अब घर चलें दिन ढल रहा है



* * *'कर्मनाशा' पर इधर कुछ समय से अपनी और अनूदित कविताओं की आमद अपेक्षाकृत अधिक रही है और यह भी कि अपनी कई तरह की व्यस्तताओं और यात्राओं के कारण बहुत कम पोस्ट्स लिख पाया हूँ। वैसे भी ब्लागिंग के वास्ते इतना ( ही / भी ) समय निकल पा रहा है यह कोई कम अच्छी बात नहीं है ! आज बहुत दिनों बाद कुछ संगीत साझा करते हैं आपके साथ । तो आइए सुनते हैं नासिर काजमी साहब की एक ग़ज़ल आबिदा परवीन के जादुई स्वर में ...





तेरे आने का धोका - सा रहा है।
दिया सा रात भर जलता रहा है।

अजब है रात से आँखों का आलम,
ये दरिया रात भर चढ़ता रहा है।

सुना है रात भर बरसा है बादल,
मगर वह शहर जो प्यासा रहा है।

वो कोई दोस्त था अच्छे दिनों का,
जो पिछली रात से याद आ रहा है।

किसे ढूँढोगे इन गलियों में 'नासिर',
चलो अब घर चलें दिन ढल रहा है।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

सर्वनाम /दून्या मिख़ाइल की कविता

विश्व कविता के पाठकों / प्रेमियों के लिए दून्या मिखा़इल कोई नया नाम नहीं है। १९६५ में जन्मी अरबी की इस युवा कवि को दुनिया भर में प्रतिरोध की कविता के एक महत्वपूर्ण स्त्री स्वर के लिए जाना जाता है। आज प्रस्तुत है उनकी एक छोटी किन्तु बेहद चर्चित कविता का अनुवाद...


सर्वनाम / दून्या मिख़ाइल
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

वह बनता है एक ट्रेन
वह बनती है एक सीटी
वे चले जाते हैं दूर।

वह बनता है एक डोर
वह बनती है एक वृक्ष
वे झूलते हैं झूला।

वह बनता है एक स्वप्न
वह बनती है एक पंख
वे उड़ जाते हैं उड़ान।

वह बनता है एक सेनाध्यक्ष
वह बनती है जनता
वे घोषित करते हैं युद्ध।
---------
"It's not the task of the writer to talk about her poem; it's the reader's."
-Dunya Mikhail

( दून्या के परिचय के वास्ते इस ठिकाने पर जाया जा सकता है )

रविवार, 21 मार्च 2010

कविता की रोटी की पाकविधि / रेसिपी

* इस ठिकाने पर अक्सर विश्व कविता के अनुवाद को प्रस्तुत किया जाता रहा है। इसी क्रम में आज प्रस्तुत है जापान के मशहूर कवि , अनुवादक और अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर नाओशी कोरियामा की एक बहुपठित और बहुचर्चित कविता जिसका शीर्षक है ' कविता की रोटी'। यह उनसठ शब्दों की , बिना विराम चिन्हों वाली एक छॊटी - सी कविता है जिसमें बेहद आसान शब्दों में और बेहद आसान तरीके से कविता की पाकविधि / रेसिपी को बताया गया है। पिछले कुछ दिनों से गरिष्ठ किस्म के काम में लगा हुआ हूँ , सो आज मन है कि कुछ स्वादिष्ट व सुपाच्य जैसा पकाया ,खाया जाय। तो लीजिए ..... अब आप ही बूझें व बतायें कि इसमें क्या कैसा है..। अनुवाद की प्रक्रिया में मैंने शब्दों की गिनती का मोह नहीं रखा है और यथास्थान विराम चिन्हों का प्रयोग भी किया है।

कविता की रोटी / नाओशी कोरियामा
( मूल अंग्रेजी से अनुवाद :सिद्धेश्वर सिंह )

इस लोंदे में
मिश्रित करो
अपनी प्रेरणाओं का ख़मीर।

इसे खूब गूँदो
प्यार के पानी संग।

अब
इसकी लोई बनाओ।
इस काम में खर्च कर दो
अपनी पूरी ताकत।

रख दो इसे कहीं भी
तब तक
जब तक कि फूल कर
बन न जाय यह एक बड़ा पिंड
अपने ही भीतर के बल को सहेज कर।

इसे फिर से गूँदो
आकार दो गोल - गोल
और अब सेंकते रहो इसे
अपने हृदय की भठ्ठी में।
------------
टिप्पणी : आज शाम एक अनौपचारिक ब्लागर मीट में इस अनुवाद के स्मरण पर आधारित पाठ को डा० रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' जी और श्री रावेन्द्र कुमार 'रवि' जी के साथ शेयर किया गया। इस अनुवाद के इन पहले दो श्रोताओं के प्रति हृदय से आभार !

बुधवार, 17 मार्च 2010

हिन्दी , भूमंडलीकरण ,अनुवाद , कविता ,ब्लागिंग और मेरठ विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय सेमीनार की याद

पिछले माह की १२ - १४ तारीख को चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग द्वारा 'भूमंडलीकरण और हिन्दी' विषयपर आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सेमीनार सफलता पूर्वक संपन्न हो गया जिसकी विस्तृत रपटें समाचार पत्रों , पत्रिकाओं , वेबसाइट्स और ब्लाग्स पर प्रकाशित हुई हैं / हो रही हैं। हिन्दी भाषा के हृदय - स्थल मेरठ में संपन्न इस महत्वपूर्ण आयोजन में शामिल होकर लौटने के एक महीने से अधिक समय के बाद जब कुछ लिखने बैठा हूँ तो यह अच्छी तरह पता है कि मुझे रपट नहीं लिखनी है अर्थात किस सत्र में किसने क्या कहा आदि - इत्यादि का उल्लेख भी नहीं करना है, नाम भी नहीं गिनाना है। रिपोर्टिंग की भाषा और उसके शिल्प में ये सारी सूचनायें मंथन, हिन्दी भारत , अशोक विचार हिन्द युग्म पर प्रमुखता से छप चुकी हैं। मुझे तो वह कहना है जो एक प्रतिभागी के रूप में अनुभव हुआ। हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में इस उम्मीद के साथ अपने अनुभव को साझा कर रहा हूँ कि किसी / किन्हीं समानधर्मा / समानधर्मियों को मेरी बात कुछ अपनी - सी लगे शायद ...

* हिन्दी लगातार 'नई चाल' में ढ़ल रही है और उस नए को रेखांकित / लिपिबद्ध भी किया जा रहा है। तकनीक का दामन थाम कर उसने अपनी गति को तीव्र किया है। राष्ट्रीय - अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी अवश्यकता व स्वीकार्यता बढ़ी है किन्तु यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि बदलते / निरन्तर बदल रहे समय व समाज में हम हिन्दी वालों ने स्वयं उस अनुपात में और उस तेजी से खुद को नहीं बदला है जैसे कि संसार की बहुत - सी भाषाओं ने कर दिखाया है। हिन्दी का प्रश्न आते ही अंग्रेजी का प्रश्न उठ खड़ा होता है। भारत की भाषा समस्या पर बात होने लगती है। राजभाषा और राष्ट्रभाषा के सवाल को उठाया जाता है। उर्दू को अपना ही दूसरा भाषायी चेहरा मानने में एक हिचक - सी दीखती है और तो और तकनीक का सवाल आते ही कुछ यों लगता है यह सब तामझाम हमारे लिए नहीं हैं।आशंका व्यक्त की जाती है इससे 'निज भाषा' की पवित्रता नष्ट हो रही है और कहीं वह अपनी पहचान खो न दे, 'हिंगलिश' न बन जाय।। दूसरी ओर एक ऐसी दुनिया है जो रोज बन रही है। देशों , भाषायी समाजों के बीच की दूरियाँ घट रही हैं और विश्वग्राम की बात जोरों पर है तब किसी कोटर में बैठ कर अपने ही आईने में अपनी शक्ल देखकर मुग्ध - मुदित होने की बजाय संसार के साथ कदम से कदम मिलाना ही समझदारी की बात होगी । हाँ , इस समझदारी में यह सावधानी जरूर होनी चाहिए कि हमें क्या , कैसा , कितना और किस तरह क काम करना है। मेरठ के सेमीनार में यह बात खुलकर सामने आई कि हिन्दी बोलने - बरतने वालों की संख्या क्या है , संसार के किन - किन देशों में हिन्दी पढ़ाई जाती है , किन - किन देशों में कौन - कौन से साहित्यकार रचना कर रहे हैं और भारतीय विश्वविद्यलयों के हिन्दी पाठ्यक्रम में प्रवासी साहित्य कि शामिल करने में अब देरी नहीं करनी चाहिए। यह सब तो ठीक है लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि हिन्दी के उन्न्यन के लिए हम लोग अपने स्तर पर क्या कर रहे हैं? हम लोग हिन्दी की गढ़ी हुई छवि से बाहर निकल कर तकनीक के क्षेत्र कौन - सा काम कर रहे हैं? इस काम की वर्तमान दशा क्या है? इसकी दिशा क्या होनी और हमारा लक्ष्य क्या है ? ये सारी बातें सेमीनार के विभिन्न सत्रों में आईं। देश - विदेश के विद्वानों ने व्याख्यान दिए।मल्टीमीडिया प्रस्तुतियाँ हुईं और कुल मिलाकर यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह सेमीनार सिर्फ़ एक हिन्दी मेला या हिन्दी वालो का जमावड़ा भर न होकर उससे आगे की चीज था, एक गंभीर विचार - विमर्श का उत्कृष्ट नमूना जो भारत के अन्य विश्विद्यालयों , कलेजों व संस्थाओं को सेमीनार आयोजित करने के लिए दिशा देने का काम भी करेगा। इस काम के लिए हिन्दी विभाग , चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के अध्यक्ष प्रो० नवीन चंद्र लोहनी और उनकी पूरी टीम बधाई की पात्र है।

* इस सेमीनार में मुझे 'अनुवाद और हिन्दी' वाले सत्र में बोलना था। मैंने अपना विषय चुन रखा था 'कविता के अनुवाद की समस्यायें'। इस पर कुछ लिखा भी था किन्तु उसे यथावत / अक्षरश: न पढ़कर यह सही लगा कि हिन्दी की दुनिया में अनुवाद , अनुवादक और अनूदित सहित्य की परम्परा तथा अनुवाद व अनुवादक की छवि पर कुछ कहने के साथ ही भूमंडलीकरण और अनुवाद की भूमिका पर कुछ शेयर किया जाय। यह एक व्यापक विषय है निर्धारित / नियत/ आवंटित संक्षित समय सीमा में सूत्र व संकेत स्वरूप ही कुछ कहा जा सकने का ही अवकाश था और उसका लाभ लेते हुए कुछ कहा भी । क्या अपको नहीं लगता कि भूमंडलीकरण के इस दौर में भाषा ज्ञान - सूचना - जानकारी और उत्पादन - उपभोग - वितरण के तंत्र की ( यह अलग बात है कि इस तंत्र के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कह जा सकता है !) की एक अनिवार्य व सक्रिय कड़ी है। अगर सब कुछ बाज़ार में है , बाज़ार के लिए है , एक तरह से बाज़ार द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है तो तमाम अच्छाइयों और बुराइयों के साथ हिन्दी के संदर्भ में बकौल अकबर इलाहाबादी 'बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ' कह कर तटस्थ नहीं रहा जा सकता। इस बदलते हुए भूगोल में हमें हिन्दी की भूमिका को परखते , पहचानते हुए अनुवाद को एक द्विभाषी कवायद या शौकिया औज़ार से आगे बढ़ कर एक सृजनात्मक सांस्कृतिक कर्म के साथ ही ट्रांसलेशन इंडस्ट्री जैसी किसी चीज को मूर्तिमान व गतिमान करने के बाबत गंभीर होना पड़ेगा और अपनी कीमत तय करते हुए इस परिवर्तन के लाभ के एवज में कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।
* इस अंतरराष्ट्रीय सेमीनार में कविता पाठ का एक सत्र भी था। मुझे उम्मीद नहीं थी अपनी कविताओं के जिक्र से बचने वाले मेरे जैसे व्यक्ति को कवि मान लिया जाएगा और उसे एक अंतरराष्ट्रीय कवि गोष्ठी में अपनी कवितायें सुनानी पड़ेंगीं। खैर, कविता केन्द्रित यह आयोजन बहुत ही बढ़िया रहा। इसमें वे कवि भी थे जो विदेश रहकर हिन्दी मॆं अच्छी कवितायें लिख रहे हैं और वे भी जो हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं। इसमें वे कवि भी थे जो अपनी सुमधुर अदायगी और कंठ के जादू से मुशायरा लूट लेते हैं और वे भी जो कविता और उसका शास्त्र पढ़ते - पढ़ाते हैं।हाँ , उन श्रोताओं , पाठको को कैसे भुलाया जा सकता है कविता से प्रेम करते हैं।उसे सुनते हैं, पढ़ते हैं , सराहते हैं। यह कविता उत्सव बहुत देर तक और बहुत ही सुन्दर माहौल में संपन्न हुआ।

* हिन्दी में पढ़ने - लिखने - पढ़ाने वालों की दुनिया से जुड़े लोगों के लिए ब्लागिंग अब कोई नई और चौंकने या अनदेखा किए जाने वाली चीज नहीं रह गई है। हिन्दी पत्रकारिता ने सबसे पहले इसके को स्वीकार किया और मान / स्थान दिया और अब अकादेमिक दुनिया में भी इसकी महत्ता को स्वीकार किया जाने लगा है। हिन्दी लिखने - पढ़ने वालों के बीच ब्लागर्स के कार्य को स्वीकर किए जाने व उसे पर्याप्त सम्मान दिए जाने का स्पष्ट उदाहरण मेरठ के इस सेमीनार में दिखाई दिया। यहाँ कई सत्रों में इस पर / इसके बाबत बात हुई और वक्ताओं के परिचय में बहुत ही सम्मान के साथ कविता वाचक्नवी जी तथा इन पंक्तियों के लेखक का एक परिचय ब्लागर के रूप में दिया गया। इच्छा तो यह थी कि इसी बहाने ब्लागिंग पर कुछ बातचीत हो जाय किन्तु शिड्यूल इतना बिज़ी था कि इसके लिए औपचारिक रूप से समय निकालना संभव नहीं था। उम्मीद है कि मेरठ विश्वविद्यालय या कोई अन्य विश्वविद्यालय /संस्था/ संस्थान भविष्य में हिन्दी ब्लागिंग पर अलग से किसी कार्यशाला/ संगोष्ठी का आयोजन करेगा ( जो निश्चित रूप से 'ब्लागर मीट' से कुछ अलग हटकर होगी ! ) तब इस नए बनते हुए माध्यम पर गंभीर विमर्श संभव हो पाएगा।

* और अंत में यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि 'भूमंडलीकरण और हिन्दी' विषय पर आयोजित यह अंतरराष्ट्रीय सेमीनार इस एक कुशल प्रबंधन / संचालन का एक अच्छा उदाहरण रहा क्योंकि इसके प्रबंधन / संचालन में किसी तरह की कोई अफरातफरी नहीं थी और कामचलाऊ जैसी चीज नहीं दिखी। सब कुछ अपनी गति से सुचारु रूप से चलता रहा। उद्घाटन - समापन और तकनीकी सत्रों के साथ विभिन्न सत्र समय से सम्पादित होते रहे । बाहर से आए अतिथियों को आवास व भोजन संबंधी कोई परेशानी नहीं हुई और वे अपने साथ तमाम खूबसूरत यादें लेकर अपने - अपने घर को लौटे । यह मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। इस यकीन के साथ कि इसी तरह की बात दूसरों से भी सुनने को मिली / मिल रही है। एक बार फिर डा० नवीन चन्द्र लोहनी और उनकी पूरी टीम को बहुत - बहुत बधाई !

सोमवार, 15 मार्च 2010

एक पक्षी के साथ सुबह


* आज की सुबह एक पक्षी के साथ हुई। अपनी बैठक का परदा जब धीरे से सरकाया तो खिड़की के बाहर गमले का निरीक्षण करते हुए एक पाखी को पाया। रूप - रंग का क्या करूं बखान ! कमरे के भीतर से ही मोबाइल से खींची गईं दो तस्वीरें हाजिर हैं श्रीमान !
*मन में आया है अभी कुछ - कुछ...कविता या कवितानुमा कोई चीज...आइए देख - पढ़ लेते हैं..



किस चिड़िया का नाम

मुझे पता नहीं इस चिड़िया का नाम
मैं यह भी नहीं जानता
कि पक्षी विज्ञान है किस चिड़िया का नाम।
बस इसे देखा तो
'सुन्दर' शब्द के कई पर्यायवाची याद आ गए
- जैसे : रमणीय, मोहक , अभिराम ...

जल्दी से उसे बुलाया
और एक सुन्दर संसार से
साक्षात्कार कराने का सुख पाया।

बच्चे अभी नींद में थे
इस दुनिया के कोलाहल से दूर
उनके सपनों में तैर रहे थे
इस दुनिया को
सुन्दर बनाने वाले खग -मृग - पुष्प।

बाहर चढ़ रही थी धूप
शुरू कर दिया था सबने अपना कामकाज
हम खुश थे
दिख गया था कुछ नया - नया आज।



'सुबह उठने के कितने फायदे हैं'
कानों पड़ा एक स्वर
यह उलाहना भी थी और सेहत के लिए सीख भी
ओह !
तो ऐसी ही अभिव्यक्तियों को
'कान्ता सम्मित उपदेश' कहते हैं संस्कृत के काव्याचार्य !

प्यारे पाखी ! जो भी है तुम्हारा नाम
ऐसे ही रोज आ जाओ
और हर दिन मेरी सुबह में नए - नए रंग भर जाओ।

गुरुवार, 11 मार्च 2010

एक लड़की / पालतू बिल्ली : एज़रा पाउंड की दो कवितायें

तारीख : ११ मार्च / रात ( या प्रभात ! / ? ) १२: २८ ए० एम०

आज याद आया कि फरवरी २०१० में कई - कई कुछ छोटी कुछ लम्बी यात्राओं की वजह से लिखना - पढ़ना बस यूँ ही - सा रहा है। मार्च का एक सप्ताह भी कुछ ऐसा ही... यह भी याद आया कि बहुत दिनों से किसी कविता का अनुवाद नहीं किया । सो, आज अभी कुछ देर पहले एज़रा पाउंड ( १८८५ - १९७२ ) की दो छोटी कविताओं को अनुवाद की शक्ल दे डाली। अब ये जैसी भी बन पड़ी हैं हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के बीच विश्व कविता के प्रेमियों के वास्ते प्रस्तुत करने का मन है :

एज़रा पाउंड की दो छोटी कवितायें
( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

एक लड़की

मेरी हथेलियों में समा गया है वृक्ष
और बाहों में उर्ध्वगामी है उसकी रसधार
मेरे सीने में उग आया है वृक्ष
नीचे की ओर बढ़ता हुआ अनवरत।
मुझमें फूट रहीं है उसकी शाखायें
-बाहों की तरह।

तुम वृक्ष हो एक
काई हो तने पर जमी हुई
और उस पर पुष्पित बनफशा का फूल हो तुम
हवाओं में दोलायमान।

तुम - एक बच्ची
ऊपर - सबसे ऊपर है तुम्हारा स्थान।
और यह सब कुछ
यह समूचा कार्य - व्यापार
इस दुनिया के लिए
कुछ नही फ़क़त मूर्खता के सिवा।

******

पालतू बिल्ली

यह मुझे
सुन्दर स्त्रियों में रमाए रखती है
इसलिए क्यों बोले कोई झूठ?
क्यों रखे कोई भ्रम ?

मैं फिर कहता हूँ
यह मुझे रमाए रखती है
सुन्दर स्त्रियों से वार्तालाप में।
तब भी
जब हम कुछ नहीं कर रहे होते हैं
निरर्थक बकवास के सिवाय।

इसके अदृश्य रोओं की घुरघुराहट
उकसाती है
और अस्तित्व में
भर देती है उत्तेजना जैसा कुछ आवेग।

********
( चित्र : एज़रा का पोर्ट्रेट : विंढेम लेविस की कृति
********
और इस पोस्ट का अंत - एज़रा पाउंड एक के खास कथन की याद करते हुए :
A great age of literature is perhaps always a great age of translations।

सोमवार, 8 मार्च 2010

वह अब भी पत्थर तोड़ रही है

आज पुरानी डायरी से अपनी एक पुरानी कविता ...





वह अब भी
इलाहाबाद के पथ पर
पत्थर तोड़ रही है।
और अब भी
ढेर सारे निराला उस पर कविता लिख रहे हैं।
अब भी
नहीं उगा है कोई छायादार वृक्ष
जिसके तले
उसका बैठना किया जा सके स्वीकार।
उसके हाथ का गुरु हथौड़ा
अब भी प्रहार किए जा रहा है बार - बार।

लेकिन एक अन्तर है
जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता
धीरे - धीरे
ऊपर उठ रहे हैं उसके नत नयन
और समूचे इलाहाबाद को दो फाँक करते हुए
कहीं दूर देख रहे हैं।
अपने खुरदरे हाथों के जोर से
वह कूट - पीस कर एक कर देना चाहती है
दुनिया के तमाम छोटे - बड़े पत्थर ।

गुरुवार, 4 मार्च 2010

दिन : वे दिन , ये दिन ( बरास्ता निर्मल वर्मा के शीर्षक)

आज सुबह - सुबह निर्मल जी की याद आ गई - निर्मल वर्मा (३ अप्रैल १९२९- २५ अक्तूबर २००५) की। यह शायद इसलिए हुआ हो कि बहुत दिनों से उन पर लिखना टल रहा है। लिखना, मतलब लिखना । अपने पेशे की माँग और पुर्ति के बीच संतुलन साधने की कवायद में बहुत कुछ लिखा है उनके बारे में जो इधर - उधर छपा भी हुआ है किन्तु उनकी रचनाओं से और उनसे किए गए एक अनौपचारिक साक्षात्कार के नोट्स डायरी में बंद हैं। आज नींद खुलते ही सोचा कि कुछ लिखना है - गद्य .... लिखा भी किन्तु वह न लिख सका जो लिखने बैठा था । आज की डायरी में जो भी दर्ज हुआ है- कविता जैसा कुछ व मेरा बिल्कुल निजी आब्जर्वेशन है। अपने प्रिय लेखक की रचनाओं का नामोल्लेख तो संयोगवश अपनी बात को कहने का माध्यम भर हैं , एक पाठकीय स्मरण जैसा कुछ... । बहरहाल, आज की डायरी का इन्दराज जो भी है, जैसा भी उसे हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के सहृदय सहचरों व निर्मल वर्मा जी पाठकों के साथ साझा करते हैं... उन्ही के शब्दो में यह कहते हुए कि 'बीतता कुछ भी नहीं है' और 'समय वहाँ - वहाँ है , जहाँ - जहाँ हम बीते हैं'.........









०४ मार्च २०१० / सुबह ०५ : ४५
दिन : वे दिन , ये दिन
( बरास्ता निर्मल वर्मा के शीर्षक)

वे दिन सचमुच थे 'वे दिन'
जब 'लाल टीन की छत' से
दिखाई देती थी 'चीड़ों पर चाँदनी'
जबकि 'बीच बहस में'
हुआ करती थी दुनिया की 'जलती झाड़ी'
व 'शब्द और स्मृति' पर मँडराते दीख जाते थे
'कव्वे और काला पानी'।

तब
'ढलान से उतरते हुए' हम
अपने ही एकान्त में
तलाश रहे होते थे 'एक चिथड़ा सुख'
ये वे दिन थे
जब 'रात का रिपोर्टर'
'हर बारिश में' सुना करता था
'धुन्ध से उठती धुन'
क्या सचमुच
वे दिन और दिन थे - एक 'दूसरी दुनिया' ?

अब
कोई नहीं कहता कि सुनो 'मेरी प्रिय कहानियां'
अब
'शताब्दी के ढलते वर्षों में'
तय नहीं है
किसी का कोई 'अंतिम अरण्य'
सबके पास सुरक्षित हैं - 'सूखा तथा अन्य कहानियाँ'
अपने - अपने हिस्से के 'तीन एकान्त'
और 'पिछली गर्मियों में' की गईं यात्राओं की थकान।
अब
कलाकृतियों के जख़ीरे में सब है
बस नहीं है तो 'कला का जोखिम'
और न ही कोई 'इतिहास स्मृति आकांक्षा'

यह कोई संसार है
अथवा एक संग्रहालय उजाड़ !
पहाड़ अब भी उतने ही ऊँचे है
हिम अब भी उतना ही धवल
कहीं वाष्प बन उड़ तो नहीं गए निर्मल जल के प्रपात
रात के कोटर से अब भी झाँकता है सूर्य कपोत
परित्यक्त बावड़ी में अब भी खिलती है कँवल पाँत।
घास की नोक पर ठहरी हुई
ओस की एक अकेली बूँद से बतियाते हुए हम
बुदबुदाते हैं - वे दिन , वे दिन
और अपने ही कानों तक
पहुँच नहीं पा रही है कोई आवाज।