शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

'मधुशाला' के रचयिता के जन्मदिन पर 'मधुशाला'

आज अपनी कैसेटॊ के कबाड़ में से एक कैसेट निकाली गई है और उसकी गर्द पोंछकर उस दिन / उन दिनों को याद किया गया है जब उसे खरीदा गया था। कैसेट पर तारीख पड़ी है : अल्मोड़ा -२१ जून १९९३. यह भी तमाम तारीखों की तरह एक तारीख भर है- एक तिथि , एक दिनांक, बस और क्या? लेकिन अपने तईं यह दिन एक तिथि भर नहीं है। उस समय तीन सप्ताह पहले ही अपना विवाह हुआ था और अपन हिमालयी यात्रा पर थे. इस दिन को दो खास वजहों से याद करते हैं हम । पहला तो यह कि जिस होटल में अपन रुके थे वहाँ के खटमलों ने रात भर सोने नहीं दिया था और दूसरा यह कि लाला बाजार की एक छोटी - सी दुकान से एक कैसेट खरीदी थी : मधुशाला।

मधुशाला : हाँ यह वही किताब थी जिसे दसवीं में पढ़ते समय लगभग कंठस्थ कर लिया था और स्कूल की अंताक्षरी में अपनी धूम मची हुई थी। यह देख चाचा ने किताब छिपा दी थी कहीं लड़का बिगड़ न जाय , वैसे भी हाईस्कूल में है , खैर वह तो एक लम्बी कथा है। आज तो बस्द यही कहना है अब तो सारा संगीत कंप्यूटर और मोबाइल की मेमोरी में है सो कबाड़ में से कैसेट खोजी गई है और मधुशाला को याद किया गया है। ऐसा क्यों भला? आज ऐसा क्या खास है? आज अखबार में भी कोई जिक्र नहीं !

आज २७ नवम्बर को बच्चन जी को उनके जन्मदिन पर बहुत आदर के साथ याद करते हुए सुनते हैं 'मधुशाला'
मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?'
असमंजस में है वह भोलाभाला;
अलग-अलग पथ बतलाते सब
पर मैं यह बतलाता हूँ-
'राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जाएगा मधुशाला'।



स्वर : बच्चन जी और मन्ना डे
संगीत : जयदेव

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

मैं जेब में लिपस्टिक साथ लिए चलती हूँ


अभी कुछ देर पहले कुछ पढ़ते - पढ़ते मन हुआ कि इस कविता का अनुवाद अभी बस अभी किया ही जाय और हो गया। अब जैसा भी बन पड़ा है..आइए देखते - पढ़ते हैं पोलैंड की मशहूर कवयित्री हालीना पोस्वियातोव्सका (१९३५ - १९६७) की यह कविता ( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह ):

लिपस्टिक

मैं जबसे तुमसे मिली हूँ
अपनी जेब में एक लिपस्टिक रखने लगी हूँ
कितनी बेवकूफी से भरा काम है
लिपस्टिक साथ लेकर चलना.,
जब तुम मेरी तरफ संजीदगी से देखते हो
जैसे कि तुम मेरी आँखों में
कोई गॊथिक चर्च देख रहे होते हो.
लेकिन मैं कोई पूजा की जगह नहीं हूँ
बल्कि मैं तो कोई जंगल हूँ
या घास का मैदान .

मैं तुम्हारे हाथों में दबी पत्तियों की सरसराहट हूँ.
हमारे पीछे एक छुटकी नदी
लड़खड़ाती हुई बहती है
यह समय की नदी हो जैसे
और तुम इसे अपनी अंगुलियों के रास्ते बहने देते हो
इसके बहाव में कभी नहीं डालते हो जाल.

और जब मैं तुम्हें
अपने अधबने होठों से कहती हूँ अलविदा
तो वे रह जाते हैं अनछुए
लेकिन जब से मैंने जाना है
कि बहुत सुन्दर है तुम्हारा मुखारविन्द
तब से मैं जेब में लिपस्टिक साथ लिए चलती हूँ।
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( हालीना पोस्वियातोव्सका की पाँच कवितायें यहाँ देखी - पढ़ी जा सकती हैं )

नैना मिलाइके..( एक बार फिर ) शामिलबाजे में..


* आज 'कर्मनाशा' के पिछले पन्नों को पलटकर देखते हुए याद आया कि बहुत दिन हुए अपना पसंदीदा संगीत आपके साथ साझा किए हुए.!
ऐसा क्यों हुआ होगा भला ?


* क्या इसलिए कि इस बीच काम अधिक रहा ? क्या इसलिए कि इस बीच यात्रायें बहुत रहीं ? क्या इसलिए कि संगीत और शायरी के लिए अलाटेड सुबह - सुबह का वक्त दूसरी चीजों की भेंट चढ़ गया ? क्या इसलिए कि इस बीच पढ़ने - लिखने के काम ने कुछ गति पकड़ी है ? क्या इसलिए कि आलस्य कुछ कम हुआ है ? क्या इसलिए कि मन दूसरी चीजों में उलझा रहा ?


* खैर , जो भी हो संगीत सुना भी कम गया और सझा भी कम ही किया गया। ऐसा ही कुछ शायरी के साथ भी हुआ है..।


* आज मन है कि अपना पसंदीदा संगीत एकाधिक बार आपके साथ साझा किया जाय। इस क्रम में सबसे पहले हिन्दी - उर्दू की साझी शायरी और संगीत के बाबा अमीर खुसरो साहब की रचना 'नैना मिलाइके..' की बात करते हैं। सभी जानते हैं कि यह एक ऐसी रचना है जिसे संगीतकारों ने संभवत: सबसे अधिक गाया है। इसके कई - कई रूप हमारे निकट प्रचलित हैं। कई - कई आवाजें इसे गा - गुनगुना कर धन्य हुई हैं और हमारे कानों को उनके होने की सार्थकता का अहसास कराया है।


* नैना मिलाइके..' के कई रूप हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में प्रस्तुत किए गए हैं। आज से कुछ समय पूर्व ' नैना मिलाइके..' का आबिदा परवीन का गाया वर्जन 'कबाड़खा़ना' पर प्रस्तुत किया गया था जो अब 'लाइफलागर' की कृपा से उड़ गया है। लाइव ट्रैफिक फ़ीड अक्सर बताता है कि इसको वहाँ तलाश किया गया था ( और नहीं पाया गया होगा !) सो , अब आज 'कर्मनाशा' के शामिलबाजे में अपने स्तर पर खोई हुई - सी चीज को सुनते हैं और मन ही मन कुछ बुनते - गुनते हैं...


* और क्या कहा जाय

बस सुनें

अमीर खुसरो की यह रचना (आबिदा जी कहाँ - कहाँ की, किन - किन कवियों की कविता की सैर कराई है इसमें! )
और ..

आबिदा परवीन का स्वर !





वैसे , आप की क्या राय है ? जल्द ही कुछ और स्वरों में ' नैना मिलाइके..


सोमवार, 23 नवंबर 2009

कितनी कसी हुई है यह प्यार के जाल की फाँस

खुशी और संतोष की बात है कि कुछ दिन पहले ही 'कर्मनाशा' पर पहली बार (निज़ार क़ब्बानी की कवितायें) अनुवाद प्रस्तुत किया और उसे पसन्द भी किया गया। इस ठिए पर आने वाले सभी साथियों के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करते हुए मन कर रहा है अनुवाद की पोस्ट्स को एक अंतराल बाद लगाया जाय। मित्रों और कविता प्रेमियों के उत्साहवर्धन से आलस्य टूटा है और अनुवाद का काम एक गति पकड़ चुका है । शुक्रिया दोस्तो !

अन्ना अख़्मातोवा की मेरे द्वारा अनूदित कुछ कवितायें आप 'कबाड़ख़ाना' पर
पहले पढ़ चुके हैं । रूसी की इस बड़ी कवि को बार - बार पढ़ना अच्छा लगता है और जो चीज अच्छी लगे उसे साझा करने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए।

सो ,आज बिना किसी विस्तृत पूर्वकथन के प्रस्तुत है अन्ना अख़्मातोवा एक कविता ( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह ):

आखिर कितने तकाज़े कर सकता है कोई महबूब

आखिर कितने तकाज़े कर सकता है कोई महबूब
स्त्री किसी एक का भी नहीं करती है प्रतिवाद.

कितनी खुश हूँ मैं आज के दिन
रंगहीन बर्फ के तल में जल है गतिहीन
और नरम चमकदार कफ़न के बगल में
खड़ी मैं
पुकार रही हूँ - मदद करो मेरे ईश.

कोई है, जो मेरी चिठ्ठियों को बचा ले !
ताकि हमारे परवर्ती कायम कर सकें कोई राय
कि तुम कितने बहादुर और बुद्धिमान थे
उन्हें पूरी स्पष्टता के साथ
यह तो पता चले
कि तुम्हारी शानदार जीवनी में
शायद छोड़ दिए गए हैं कई अंतराल.

कितनी मीठा है यह दुनियावी मद्य
कितनी कसी हुई है यह प्यार के जाल की फाँस
ऐसा हो कि बच्चे किसी समय
अपनी पाठ्य पुस्तकों में पढ़ सकें मेरा नाम
और कुछ सीख सकें
इस दुखान्त कथा के बहाने
और मुस्कुरायें मंद - मंद....

चूँकि तुमने मुझको
न तो प्यार दिया है न ही शान्ति
इसलिए
बख्शो मुझे कड़वा ऐश्वर्य.

बुधवार, 18 नवंबर 2009

'पृथ्वी पर एक जगह' को मंडलोई सम्मान / शिरीष कुमार मौर्य को बधाई !



युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य के कविता संग्रह 'पृथ्वी पर एक जगह' को प्रतिष्ठित लक्षमण प्रसाद मंडलोई सम्मान देने की घोषणा की गई है और यह खबर बहुत प्रमुखता से भाई बोधिसत्व ने अपने ब्लाग 'विनयपत्रिका' पर बहुत महत्व के साथ प्रकाशित की है। शिरीष मेरे पसंदीदा कवियों में हैं और उनके ब्लाग 'अनुनाद' का भी मैं नियमित विजिटर हूँ उनके इस प्रशंसित , सम्मानित कविता संग्रह पर एक समीक्षात्मक आलेख मैंने कुछ माह पूर्व लिखा था जो पाक्षिक पत्र 'नैनीताल समाचार' के १४ - ३१ मई २००९ के अंक में प्रकाशित हुआ था। उसे आज इस खुशी के मौके पर पर यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ हो सकता है कि इससे 'पृथ्वी पर एक जगह' को देखने , पढ़ने और सराहने में हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के सथियों को किंचित मदद मिल सके। यदि ऐसा भी हो तो शिरीष और उनकी कविता के पाठक इसे एक सूचना का परिशिष्ट भर मान लें।


आज अपने इस साथी , कवि, ब्लागर, रेखाचित्रकार, अनुवादक और शिक्षक की किताब को सम्मानित होते देखना सुखकर है।




पृथ्वी पर एक जरूरी जगह

* सिद्धेश्वर सिंह

यह सुखद है कि पिछले एक - दो वर्षों से हिन्दी की युवा कविता के कई महत्वपूर्ण संग्रह सामने आए हैं. केवल परिमाण की दृष्टि से अपितु गुणात्मकता से भी युवा कविता की एक महत्वपूर्ण उपस्थिति से हिन्दी समाज रू- - रू हुआ है. यहां पर यह भी देखा जाना आवश्यक है कि जब हमारा लगभग समूचा परिवेश अपने ही रचे हुए हाहाकार से हैरत में है हलकान है, तब कविता जीवन और जगत में कितना कोलाहल मचाने में सक्षम हो सकने की स्थिति में है? फिर भी इसमें कोई दो राय नहीं कि समय , समाज और सत्ता के निरन्तर गझिन होते दुराग्रह -दुष्चक्र में व्यक्ति के भीतर संवेदनशीलता , तरावट, तरलता नमी को बचाए रखने की प्रक्रिया में कविता की भूमिका कम नहीं हुई है वरन वह लगातार बढती ही जा रही है. इसी बात को युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य के शब्दों में कुछ इस तरह कहा जा सकता है -

सुन लें वे जिन्हें सुनाई देता है
समझ आता है जिन्हें वे समझ लें अच्छी तरह
कि बोलना
और बोलना सही समय पर सही बात का
बेहद जरूरी है

'पृथ्वी पर एक जगह' शिरीष कुमार मौर्य का नया और क्रम के लिहाज से उनका तीसरा संग्रह है जिसमें कुल इक्यासी कवितायें संग्रहीत है. ऐसे समय में जब आमतौर पर हिन्दी के कविता संग्रह कृशकाय होते जा रहे हैं तब २१५ पृष्ठों की यह किताब धैर्य से पढ़े जाने की मांग करती है. इन इक्यासी कविताओं में अण्तिम हिस्से की तेरह कवितायें विभिन्न रागों पर / रागों से प्रभावित होकर लिखी गई हैं जो एक विलक्षण अनुभूति की अभिव्यक्त छवियाँ हैं.आज की युवा पीढ़ी जब सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने के शार्टकट के रास्ते पर दौड़ लगा रही दीख रही है और अल्पकाल में ही सब कुछ समेट लेने की जल्दबाजी के प्रति मोहग्रस्त है तब एक युवा कवि की कविता में संगीत की समझ और उसकी संवेदना का सहज , सरल और सान्द्र प्रकटीकरण बहुत बड़ी बात है -

सचमुच गाए बिना भी सुना जा सकता है गीत
जरूरी नही
कि हर चीज़ दे सिर्फ़ कानों से
सुनाई.

शिरीष केवल कवि भर नही हैं उन्होंने विश्व कविता के पटल से येहूदा आमीखाई, ओटो रैने, क्रू सेंग, हंस मानूस एजेंत्सबर्गर टामस ट्रान्सटोमर आदि कवियों की कविताओं के महत्वपूर्ण उल्लेखनीय अनुवाद भी किए हैं. निश्चित रूप से इन अनुवादों से उनकी भाषा और भावाभियक्ति की उर्वरता में वृद्धि हुई है. हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया में कविता और कविता के अनुवाद पर केन्द्रित अपने ब्लाग 'अनुनाद डाट ब्लागस्पाट डाट काम' के माध्यम से अभिव्यक्ति के इस नए माध्यम पर वे अपनी सक्रिय उपस्थ्ति निरन्तर बनाए हुए हैं. साथ ही 'अनुनाद' पत्रिका के संपादक और विश्विद्यालय के प्राध्यापक के रूप में तो वे विद्यमान हैं ही. २००४ में मिले प्रथम अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार ने अपने समकालीनों में उन्हें नई पहचान दी है. ऊँचे पहाड़ों से उर्ध्वगामिता , समतल मैदानों से सहजता और ऊबड़ - खाबड़ पठारों से बहुविध विविधता- बहुलता से निर्मित कवि का जीवन उसकी कविताओं में स्पष्ट दिखाई देता है. अपने परिवेश , अपने परिवार, अपने दोस्त -मित्र और अपने निकट के संसार से कवि का गहरा राग यहाँ सतत विद्यमान है . 'गालियाँ' , 'रानीखेत से हिमालय' , 'सौराल', 'बारह बरस बाद अपने गाँव में', 'दोस्तों के डेरे पर एक शाम' , 'गैरसैंण' , 'इटारसी भुसावल पैसेंजर', 'दादी की चिठ्ठियाँ', ' बेटे की स्कूली किताबें देखते हुए' जैसी कवितायें कवि के अनुभव जगत का एक ऐसा कोलाज़ पेश करती हैं जो कि दरअसल हमारे हिस्से की वह दुनिया है जिसके सबसे निकट रहते हुए भी हम सब उसी के बारे में शायद सबसे कम जानते हैं और अगर जानते भी हैं तो सबसे कम बात करते हैं. जिन चीज़ों से हमारी दुनिया बनती है उसी दुनिया के एक - एक रेशे को उधेड़कर दोबारा बुनना एक यंत्रणादायक - यातना भरी प्रक्रिया है , वैसे देखा जाय तो रचना एक यातना ही तो है , बाहर से भीतर और भीतर से बाहर के संसार के बीच अव्यक्त को व्यक्त करने का एक पुल या सेतु. इस संग्रह से गुजरते हुए निस्संकोच कहा जा सकता है कवि ने अपने अपने परिवेश को बखूबी जिया है , उसे शाब्दिक अभिव्यक्ति में अवतरित करने की यंत्रणा झेली है साथ यह भी कहा जाना जरूरी है उसकी अभियक्ति में ईमानदारी की गहरी छाप देखी जा सकती है

कुछ भी हो मगर वे होती है
और हम भी बसायें उन्हें तो वे होंगी
जैसे हम ना भी करें प्रेम तो वह होगा
हमारे लिए जीवन में कहीं कहीं

'पृथ्वी पर एक जगह' में अधिकतर बड़े कलेवर की कवितायें हैं जिन्हें हिन्दी की प्रचलित शब्दावली में लंबी कवितायें कहे जाने की परिपाटी है. अब यह भी क्या खूब है कि समय के हमारे इस हिस्से में चीजें जितनी सूक्ष्म और सूक्ष्मतर होती जा रही हैं उसी के विपर्यय अनुपात उनके बारे में कहे जाने की जरूरत विस्तृत और विस्तीर्ण होती जा रही है. कवि अपने समय के इस विपर्यय को पहचानने , परखने और प्रस्तुत करने के काम में सन्नध दिखाई देता है उसका मानना है कि दुनिया सिर्फ वही नहीं है जो दिखाई देती है , एक वह दुनिया है जिसमें हम सब रहते भी हैं और उससे बाहर और परे होने का भ्रम भी पाले हुए हैं.कविता का एक बड़ा काम है भ्रमभंग और उसके भग्नावशेषों पर एक निर्मल , निष्कलुष, साफ , सहज, संवेदनशील,सरल दुनिया की निर्मिति के पथ का अन्वेषण. कवि शब्दों के संसार में विचरण करते हुए एक ऐसी ही दुनिया के निर्माण का रास्ता तलाश करता हुआ दिखाई देता है. वह दुनिया को बदलने के लिए उतना आतुर - आकुल नहीं दीखता है जितना कि आज से कुछ समय पहले की हिन्दी कविता दिखाई देती थी और अक्सर ( बकौल गोरख पांडेय ) 'अक्षर -अक्षर शब्द -शब्द से छापामार' करती हुई नजर आती थी .वह उस समय का मुहावरा तो था , उस समय बदलते हुए वैश्विक परिवेश में बदलाव की उपस्थिति सतह पर आनी जरूरी भी थी किन्तु आज के गुंफित समय में बदलाव का बहाव तल में अधिक है तट सतह पर प्राय: कम और बहुत कुछ गोपन, अनिर्वच तथा अगोचर भी. गोपन को अगोपन, अनिर्वच को व्यक्त और अगोचर देखने की समझदारी में हस्तक्षेप करती हुई इस महापृथ्वी पर गतिमान एक दुनिया है जो इन कविताओं के माध्यम से प्रकट होती है

बच्चो !
गाय पर निबन्ध लिखना
तो दूध का ज़िक्र करना
डाकिए पर निबन्ध लिखना तो चिठ्ठी का जिक्र करना
लेकिन कभी लिखना पड़े
मुल्क के सबसे अच्छे शहर के बारे में कोई निबन्ध
तो पन्ना खाली छोड़ देना
क्योंकि वो
अभी बसा ही नही है कहीं

इस किताब के ब्लर्ब पर हमारे समय के प्रमुख कवि और उभरते हुए समर्थवान आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने एक जगह लिखा है - ' शिरीष की रचनाओं में ताजा , स्वस्थ, निर्मल और अकुंठित सौन्दर्य है , जो चीज़ों के निकटस्थ निरीक्षण और आत्मीय अनुचिंतन से जन्मा है. उनमें बिम्बों के अंतराल की काफी अच्छी समझ है, मात्रा और अनुपात की अचूक और संतुलित दृष्टि है और एक उमड़ता हुआ भावुक आवेग , पर वह उसी समय वैग्यानिक चेतना से अनुशासित है.' आज की हिन्दी युवा कविता पर प्राय़: यह आरोप लगाया जाता है कि वह भाषा के चरखे पर बहुत महीन कताई करती हुई दिखाई देती है , संभवत: इसीलिए पढ़ने लिखने वालों की व्यापक दुनिया का हिस्सा बनने में कहीं पीछे भी रह जाती है लेकिन यह सच है कि ऐसा कहते हुए हम कविता के भाव और शिल्प जगत के साथ ज्यादती तो करते ही हैं , कविता से कुछ अधिक - अतिरिक्त माँग भी कर जाते हैं. प्रत्येक कवि अपनी आँख से अपनी दुनिया को देख - परख - पहचान रहा होता है और चूँकि उसकी आँख समय की प्रतिनिधि आँख होती है, सबको [पता है कि समय कोई रुकी हुई चीज़ नहीं है, इसलिए कविता की काया में तात्कालिकता के लक्षण तलाश करना बहुत वाज़िब नहीं होता. इस आलोक में शिरीष के प्रस्तुत संग्रह की कुछ कवितायें अगर किंचित गूढ़ और तनिक गुरु - गंभीर - गहरी लगती हैं तो यही कहा जा सकता है समय की बहती हुई अविराम नदी में उनका जल उलीचने के लिए हथेलियों का जुड़ाव होना अभी शेष है .साथ ही यह भी कि यदि कुछ कवितायें जैसे 'शनि', ' बनारस से 'निकला हुआ आदमी', 'टीकाराम पोखरियाल की वसंत कथा' आदि को पढ़ते हुए यह लगे कि इनके कलेवर को कुछ समेटा जा सकता था तो एक पाठक के नाते कम से कम मुझे तो यही लगता है कि हर एक छोटे -से बीज के के भीतर एक छतनार वृक्ष छिपा हुआ होता है , कवि उसकी जड़ों के साथ तने -टहनियों ,पत्तियों को ही नहीं देख रहा होता है बल्कि उसकी छाया में सूखती -छीजती पत्तियों की ओट तले अपने जगह बनाती हुई चींटियों पर भी पैनी और आत्मीय निगाह बनाए रखना कवि होने की अनिवार्य शर्त है


'पृथ्वी पर एक जगह' एक ऐसा कविता संग्रह है जिसपर केवल वाह और आह कहकर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है. मेरी अल्पबुद्धि के हिसाब से एक अच्छी कविता का गुण यह भी है कि एक संवेदनशील- सहृदय-सजग पाठक के निकट पहुँचकर वह दोबारा और बार -बार निर्मित होती है, पाठक उसका आस्वादक -भावक भी होता है और पुनर्सर्जक भी.एक पाठक की हैसियत से मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि जिन लोगों के लिए कविता मन बहलाव की चीज़ भर नहीं है और जीवन - जगत की तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद जो लोग अपने भीतर नमी , तरलता और तरावट बचाए रखने के लिए सदैव बेचैन - से रहते हैं उन्हें इस संग्रह की कवितायें कतई निराश नहीं करेंगी.
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पुस्तक : पृथ्वी पर एक जगह / कवि : शिरीष कुमार मौर्य / प्रकाशक : शिल्पायन ,१०२९५, लेन नं -१ ,वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा , दिल्ली-११००३२ / मूल्य : २५० रुपये
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( समीक्षा से पहले छपा रेखांकन शिरीष जी का ही बनाया हुआ है )

शनिवार, 14 नवंबर 2009

न भाषा की जरूरत और न ही लिपि की दरकार


आज बाल दिवस है
बच्चों का एक पूरा दिन
आज कुछ लिखना है बच्चों के बारे में
जिसे बड़े पढ़ सकें
कुछ लिखना है बच्चों के लिए
जिसे बच्चे पढ़ सकें।

दुनिया में तरह - तरह की भाषायें हैं
लिपियाँ हजारों - हजार
सुना है रोज मर जाती हैं कुछ भाषायें
रोज गायब हो जाते है कई अक्षर - कई वर्ण।

भाषायें नियत करती हैं पहचान
लिपियों से पहचाने जाते हैं मनुष्य
अभिव्यक्ति के जाने पहचाने शाब्दिक प्रतीक
व्यक्ति और व्यक्ति के बीच
सदैव सेतु नहीं बनते
अक्सर
बन जाते हैं कभी न मिलने वाले नदी के दो पाट।


बच्चों के लिए
बच्चों के बारे में
मैं किस भाषा में लिखूँ दो शब्द
किस लिपि चिह्न में उकेरूँ अपनी बात
जिसे समझ सके
इस पृथ्वी के कोने - कोने में विद्यमान समूचा बचपन
एक वह जो जाता है स्कूल
एक वह भी जो हसरत से देखता है स्कूल को
एक वह जो कंप्यूटर पर पढ़ सकेगा यह सब
एक वह भी
जो कूड़े में तलाश रहा है काम की चीज
इस सिलसिले को
बहुत आगे तक बढ़ाया जा सकता है
और देखा जा सकता है उन्हें भी
जो जन्म से पहले ही पा जाते है मृत्यु का स्पर्श..

आज बाल दिवस है
बच्चों का एक दिन
मैं खोज रहा हूँ कोई नई भाषा
गढ़ रहा हूँ किसी नई लिपि के प्रतीक
जानता हूँ इस काम में मदद करेंगे बच्चे ही
बच्चे ही साफ करेंगे सारा कूड़ा - कबाड़।

खुशी होगी
बच्चे अगर बुहार दें मेरा आलेख
कविताओं को चिन्दी - चिन्दी कर
हवा में उड़ा दें तत्काल
और निकल पड़ें खेलने कोई खेल
आलोचक भकुआए- से देखते रहें यह चमत्कार
जहाँ न भाषा की जरूरत हो और न ही लिपि की दरकार !

* ऊपर लगा चित्र बिलासपुर (छ०ग०) की सजल कुशवाहा ने अपने घर की दीवार पर बनाया है।

बुधवार, 11 नवंबर 2009

तुम्हारा सौन्दर्य और मेरा पागलपन.


निज़ार क़ब्बानी की कुछ कवितायें 'कबाड़ख़ाना' पर प्रस्तुत कर चुका हूँ जिसे पसंद भी किया।गया'हरा कोना' वाले भाई भाई रवीन्द्र व्यास का इसरार था कि कि इस कवि की कुछ और कविताओं को प्रस्तुत किया किया, सो कुछ और अनुवाद इस बीच किए हैं जिनमें से दो कवितायें पेशा कर रहा हूँ। 'र्मनाशा' पर अपने अनुवादों को लगाने का यह पहला प्रयास है , देखें पाठक क्या कहते हैं। निज़ार को मूलत: प्रेम और दैहिकता का कवि माना जाता है किन्तु उसमें कहीं से भी हल्कापन नहीं आ पाया है , उनके यहाँ अगर कुछ है तो प्रेम की उदात्तता और सौन्दर्य की जी भर तारीफ का एक अटूट सिलसिला...तो लीजिए अरब जगत के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवियों में से एक निज़ार क़ब्बानी (1923-1998) की दो कवितायें ( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह ) :


०१-जब मैं प्रेम करता हूँ

जब मैं प्रेम करता हूँ
तो अनुभव करता हूँ
कि सम्राट हूँ अपने समय का
मेरी अधीनता में है समूची पृथ्वी
इस पर विद्यमान तमाम चीजें
और मैं सूर्य की ओर दौड़ाए जा रहा हूँ अपना अश्व ।
जब मैं प्रेम करता हूँ
तो बन जाता हूँ तरल प्रकाश
असंभव है जिसे आँखों से देख पाना
और मिमोसा व पोस्त के पौधों में रूपायित हो जाती हैं
मेरी कविताओं की पांडुलिपियाँ ।
जब मैं प्रेम करता हूँ
तो उंगलियों से फूट निकलती है जलधार
मेरी जिह्वा पर उगने लगती है घास
जब मैं प्रेम करता हूँ
तो बन जाता हूँ समय के बाहर बहता हुआ समय ।
जब मैं करता हूँ
किसी स्त्री से प्रेम
तो नंगे पाँव दौड़े चले आते हैं
जंगल के तमाम पेड़॥ मेरी ही ओर।

०२- दीपक से अधिक मूल्यवान होता है प्रकाश

दीपक से अधिक मूल्यवान होता है प्रकाश
पांडुलिपियों से अधिक मूल्यवान होती हैं कवितायें
और अधरों से अधिक मूल्यवान होते हैं
उन पर रचे गए चुंबन ।

तुमसे ...
मुझसे...
हम दोनों से....
बहुत अधिक मूल्यवान हैं मेरे प्रेमपत्र ।
वे ही तो हैं वे दस्तावेज
जिनसे आने वाले समय में
जान पायेंगे लोगबाग
कि कैसा रहा होगा तुम्हारा सौन्दर्य
और कितना मूल्यवान रहा होगा मेरा पागलपन।

मंगलवार, 3 नवंबर 2009

रामगढ़ से हिमालय


रामगढ़ ( जिला : नैनीताल ) उत्तराखंड महादेवी वर्मा सृजन पीठ में आयोजित 'हिन्दी कहानी और कविता पर अंतरंग बातचीत' के दो दिवसीय आयोजन ( ३० एवं ३१ अक्टूबर २००९ ) से लौटा हूँ वहाँ के प्रवास में खूब चहल-पहल रही फिर भी इसी में अपने लिए तनिक एकान्त तलाशते हुए कुछ कवितायें बन गईं जिनमें से दो प्रस्तुत हैं -
रामगढ़ से हिमालय : दो चित्र

१-
पहाड़ों के माथे पर
बर्फ की सफेदी है
और मेरे बालों में
उतर रहा है
बीतते जाते वक्त का उजलापन।

अडिग
अचल
खड़ा है नगाधिराज...
मैं ही क्यों होता रहता हूँ
प्रतिकूलताओं से दोलायमान।

थोड़ी - सी हिम्मत मुझे भी बख्शो
मेरे हिमालय !
मेरे हिमवान ! !

२-

तिरछी ढ्लानों पर
सीधे तने खड़े हैं देवदार
आकाश के नीले कैनवस पर
कुछ लिखना चाहती हैं
उनकी नुकीली फुनगियाँ..

यह हिमालय है
हिम का घर
यहाँ कौन नहीं है कवि
कौन नहीं बनना चाहता है चित्रकार !
*******
( रामगढ़ पर कुछ यहाँ भी है। मन करे तो देख लें )