आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है.किसी समय यह हमारे लिए 'अट्टमी' या 'डोल धरना' हुआ करता था और एक दिन का नहीं पूरे सप्ताह भर का उत्सव हुआ करता था.भादों के महीने में जब बारिश की टिपिर - टिपिर झड़ी लगी होती थी तब यह आनंद का एक साप्ताहिक उत्सव हुआ करता था. पूरे टोले के घर - घर से रंग बिरंगी साड़ियाँ मांगकर तथा अपने गाँव-गिराँव व निकटवर्ती कस्बे में उपलब्ध सामग्री से झुलना सजाकर हम लोग अट्टमी मनाते थे. हर घर से चंदा होता था और आज की रात धनिया की पंजीरी के साथ आटे का चाँड़ा हुआ हलुआ प्रसाद के रूप में वितरित होता था. तब तक गाँव में बिजली नहीं आई थी इसलिए 'गेस' या पेट्रोमैक्स ( पंचलाइट ) के प्रकाश में यह सब संपन्न होता था. परंतु अब , आज के दिन मैं
यह सब क्यों याद कर रहा हूँ ?
नून तेल लकड़ी के जुगाड़ में अब उस भूगोल से दूर हूँ जहाँ का किस्सा ऊपर बयान किया गया है .अब तो बिजली है ( न हो तो छोटे - मोटे काम के लिए इनवर्टर बाबा की जय !), बिजली से चलने वाले उपकरण हैं, बिजली न हो तो लगता है कि ऊपर वाले का दिया हुआ - साँसों की गति पर चलायमान यह उपकरण भी मिस्त्री - मैकेनिक की माँग कर रहा है, अब कीचड़ - कादों भरी गलियों की जगह अपने आशियाने के सामने खुली पक्की सड़क है, हाट - बाजार में सामान अँटा -भरा पड़ा है , आज के दिन पास वाले मंदिर में खूब सजावट है, दिन भर के फलाहारादि के बाद अभी शाम को किचन में तरह- तरह के 'व्रती' पकवान की तैयारी चल रही है जिनकी सोंधी गंध नथुनों के रास्ते हृदय में प्रविष्ट हो रही है किन्तु मन का मृगछौना वहीं उसी जगह व उसी कालखंड में लौट जाना चाहता है जहाँ धनिये की पंजीरी की गमक और एक बड़े से कड़ाहे में बन रहे चाँड़े हुए आटे के हलुए की सुवास है.पर, ऐसा हो सकता है क्या? नहीं ! फिर भी , फिर क्यों ?
अपने तईं पहले त्योहार व उत्सव सार्वजनिक थे अब लगभग सब व्यक्तिगत हैं . क्या इसीलिए बार - बार स्मृतियों के गलियारे में डोलना पड़ता है? क्या इसीलिए अतीत की उज्जवलता को वर्तमान के तमस - पट पर सिनेमाई करतब की तरह अवतरित होते हुए देखना - निरखना पड़ता है ? कहीं पढ़ा था कि स्मृति इसीलिए स्मृति होती है कि वह वर्तमान से दूर होती है. आज दिन भर कुछ न कुछ पढ़ता रहा , पत्रिकाओं - किताबों का ढेर लगा है फिर भी बहुत कुछ अनपढ़ा - अनदेखा रह रह जाता है - फिर भी कहीं बाहर से लौटने पर बैग की जिप खोलते ही किताबें - पत्रिकायें क्यों झाँकने लगती हैं ? ऐसा नहीं है कि समय की रील को रिवाइंड करके एक टाइम मशीन बना ली जाय और व्यतीत में विचरण का निर्बाध आनंद लिया जाय , अगर ऐसा संभव है तो एक अदद टाइम मशीन भविष्य के भान के लिए भी होनी चाहिए. लगता है कि विकास के लिए कुछ न कुछ की बलि देनी ही पड़ती है. खैर , मन प्रान्तर में कहीं रागात्मकता की गूँज - अनूगूँज शेष है और देह व दिमाग काठ के नहीं हो गए हैं , आज के कठिन समय में यह कुछ कम तो नहीं !
आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है और कल स्वाधीनता दिवस - १५ अगस्त. एक साथ दो - दो त्योहार ! ( और तीसरे दिन इतवार की छुट्टी ) ये दोनो ही त्योहार अतीत की तरफ खींच ले जाते हैं. १५ अगस्त के दिन याद आने लगता है गाँव का वह टुटहा प्राइमरी स्कूल जिसकी छत उड़ गई थी और महुए के पेड़ के नीचे क्लास लगा करती थी- बारिश हो तो छुट्टी. उन दिनों के स्कूल का १५ अगस्त यानि सादे कागज पर उकेरा गया और सरकंडे की डंडी में खोंसा गया तिरंगा , प्रभात फेरी , पीटी, लेजिम, खेलकूद, भाषण और ..लड्डू ..साथ ही पूरे दिन की छुट्टी..रेडियो पर देशभक्ति के गानों की बहार..अगर बारिश हो गई तो 'बारी' ( बगीचा ) में 'बरगत्ता' ( कबड्डी ) का खेल..
अब तो अपने आसपास सबकुछ लगभग इनडोर है- खेल भी और खेल की स्मृति भी. पर्व - त्योहार छुट्टी या अवकाश के पर्यायवाची - से हो गए हैं. त्योहारों का एक अर्थ शायद यह भी रह / हो गया है कि यादों की जुगाली कर ली जाय , नून तेल लकड़ी के जुगाड़ में जुते हुए देह और दिमाग को थोड़ी छुट्टी दी जाय , भीतर - बाहर की कलुषता व गर्द - गुबार को स्मृतियों के रूईदार फाहे से पोंछ दिया जाय , अपने आसपास की धुँधुआती हुई आग के बीच से राग की ऊष्मा को उलीचकर अंतस तक उतार लिया जाय ताकि कुछ भला - भला लगे !
रात अब गहरा रही है , बाहर बारिश है . सावन, अरे नहीं , सावन तो लगभग सूखा ही बीत गया. अब तो भादों है , कल रात से झड़ी लगी हुई है. बारिश के गिरने की आवाज अंदर कमरे तक आ रही है और मैं त्योहारों के बहाने बह आई तरावट को महसूस करते हुए , रत्ना बसु की आवाज में 'सावन झरी लागेला धिरे - धीरे ' सुनते हुए , कल की डाक में आई एक पत्रिका के पन्ने पलटते हुए सोने का उपक्रम करने जा रहा हूँ क्योंकि कल सुबह जल्दी जागना है -कल १५ अगस्त है स्वाधीनता दिवस.
तो , मित्रों ! आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और कल स्वाधीनता दिवस - १५ अगस्त की बधाई !
अभी , इस क्षण ठीक से याद नहीं आ रहा है , यह किसकी कविता की पंक्ति है - ' अब सही जाती नहीं यह निर्दयी बरसात / खिड़की बन्द कर दो ' ! लेकिन क्या ईंट , गारे , सीमेंट, लोहा - लक्कड़ से बने मकान मे लगी काठ की शीशेदार खिड़कियों के बन्द कर देने से स्मृतियों की यह 'निर्दयी बरसात' थम जाएगी ? बाहर अब भी बारिश हो रही है - मद्धम, बाहर रोशनी कम है - मद्धम , मन में स्मृतियों का राग बज रहा है मद्धम - मद्धम !