सोमवार ०४ मई को 'कर्मनाशा' पर मैंने एक 'पक्षी पहेली' पूछी थी कि - जंगल में मोर नाचा किसने देखा ? ऐसा करने के पीछे किसी की जानकारी को परखने - बूझने की मंशा नहीं वरन मन की मौज थी और ब्लाग पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का एक बहाना भर था. बहुत खुशी हुई कि हिन्दी ब्लाग की बनती हुई दुनिया के सम्मानित मित्रों ने इसमें भरपूर रुचि ली और तरह - तरह से अपनी अभिव्यक्ति दी. सीमा गुप्ता जी, दिनेशराय द्विवेदी जी, पारुल जी, अरविन्द मिश्र जी, उड़न तश्तरी जी,मनीश कुमार जी, रंजन जी, पं.डी. के .शर्मा 'वत्स' जी, मुनीश जी, एस. बी . सिंह जी, रावेंद्रकुमार रवि जी और चन्द्र मोहन गुप्त जी की टिप्पणियॊं ने इस पोस्ट / प्रश्न के इतने आयाम / उत्तर प्रस्तुत किए कि सोच की सीमाओं और संभावनाओं की ऊँची उड़ान देख कर मन प्रसन्न हो गया , सभी मित्रों के प्रति हृदय से आभार !
यह ' कर्मनाशा' की सौवीं पोस्ट है. मुझे अच्छी तरह से पता है कि इसमें कोई खास बात नहीं है. नवम्बर २००७ से लेकर मई २००९ के १९ महीनों में १०० पोस्ट्स का आँकड़ा पार कर लिया तो कौन सा ( कद्दू में) तीर मार लिया ! अंग्रेजी में में स्लो ब्लागिंग के लिए कोई एक शब्द है शायद जो फिलहाल याद नहीं आ रहा है. मुझे अपने इस स्लो होने पर कोई मलाल भी नहीं है क्योंकि ब्लाग पर लिखने / पढ़ने के काम का होलटाइमर मैं स्वयं को नही मानता और न ही अपने रोजमर्रा के कामकाज और नून -तेल लकड़ी के जुटाव / जुगाड़ के बीच इतना अवकाश ही मिल पाता है, फिर भी 'कर्मनाशा' पर अब तक जो कुछ भी आ पाया है और मित्रों को तनिक भी रुचिकर लगा है तो मैं आभारी हूँ- सभी के प्रति धन्यवाद !
सोचा था कि इस सौवीं पोस्ट में बस धन्यवाद - आभार प्रदर्शन ही रखा जाएगा लेकिन अभी लिखते -लिखते दीख रहा है की बोर्ड पर चलती हुई उँगलियों में से एक के नाखून और पोर पर अमिट स्याही लगी हुई है - आज सुबह किए गए मतदान के प्रमाणपत्र की तरह , यानि मैं मैं पप्पू बनने से बच गया. हमारे बचपन में पप्पू एक आधुनिक , शहरी और फैशनेबल नाम था किन्तु आज ? ..... खैर .......
आज का दिन कई तरह के कामों में बीता. मतदान करना एक बहुत जरूरी काम था . खाने- पीने ,सोने , लिखने -पढ़ने के कामों के अलावा पेड़ पौधों के निरीक्षण का दैनिक काम भी आज खूब फुरसत से किया. आज मौसम बहुत ही खुशगवार था, पौधे प्रसन्न लगे - सिर्फ बाहर से ही नहीं भीतर से भी हरियाए हुए . कनेर में अब गुलाबी फूलों के दो गुच्छे आ गये हैं. धूप और तपन के बीच घर में घुसते हुए उन्हें देखना भला लगता है. हैन्डपम्प के पास कद्दू या कुम्हड़े का एक औधा कुछ दिन पहले अपने आप उग आया था जो अब ठीकठाक -सी बेल के रूप में आकार ले चुका है और बरबस ही
कनेर के पौधे पर लिपटते हुए लड़ियाने की जुगत में लगा रहता है. इन दोनो वनस्पतियों की आपसी मोहब्बत के मुजाहिरे को देखना आजकल मेरा प्रिय कौतुक है- लगभग रोजाना शाम का टाइमपास. जब सारी दुनिया अपने काम में लगी रहती है तब पता नहीं कब कद्दू की बेल अच्छी खासी बढ़ जाती है और कनेर तथा रात -रानी के झाड़ से बतियाने के काम में लग जाती है, उसे उठाकर नया रास्ता दिखाना ही पड़ता है की भाई इधर चलो फिर भी अगली सुबह वही खेल ! अब इस खेल में मुझे आनंद आने लगा है. एक दिन एक तुकबंदी भी कर डाली थी ( अर्ज किया है ) -
चढ़ रही कनेर पर कद्दू की बेल.
अद्भुत अपूर्व है प्रकृति का खेल.
धूप है घाम है गर्द है गुबार है
फिर भी इन दोनों में
क्या ग़ज़ब का प्यार है
एक हमीं हैं जिनको
वायुशीतित कमरों में
लग रहा है यह मौसम बोझिल -अझेल.
इसके आगे और भी कुछ है लेकिन शायद वह आपके लिए ' बोझिल -अझेल' हो जाए इसीलिए अपनी काव्य प्रतिभा ( ! ) को यहीं विराम देना श्रेयस्कर रहेगा. अभी तो लगभग आधी रात है पौधे गहरी नींद में सो रहे अतएव उन्हें जगाकर फ्लैश चमकाते हुए कोई तस्वीर खींचना अपराध -सा लग रहा है. यह काम कल सुबह करेंगे. आज सौवीं पोस्ट के बहाने आपसे बतियाते हुए यह उम्मीद है जिस तरह तमाम दबावों और मौसम की प्रतिकूलताओं के बावजूद कद्दू की बेल जल्दी - जल्दी बढ़ जा रही है कुछ उसी तरह की निरंतरता की कोशिश 'कर्मनाशा' पर अब मौजूद रहेगी !
रात के एकांत में
बढ़ जाती हैं वनस्पतियाँ
सुबह -सुबह
टूटे सितारों की तरह मिलते हैं
पेड़ों के नीचे फूल.
खिलते ही रहेंगे गुलमुहर और अमलतास
चाहे कितनी भी तेज धूप हो
चाहे मौसम हो कितना ही प्रतिकूल.