सोमवार, 27 अप्रैल 2009

बदल रहा है संसार









बादल से कहा
बदलो बन जाओ पानी
धूप में सीझ रही हैं वनस्पतियाँ
गला खुश्क है स्कूल से लौटते बच्चों का.

हवा से कहा
बदलो बन जाओ आक्सीजन
मृत्यु शय्या पर पड़े रोगी को
अभी कुछ और वसंत देखने की है ताब.

खुशबू से कहा
बहको बन जाओ उल्लास
कबाड़ होती हुई इस दुनिया में
फूलों के खिलने को बची रहनी चाहिए जगह.

बड़ी लम्बी है यह फेहरिस्त....
सबसे कहा
सबने मान ली सलाह
मगर खुद से कह न पाया एक भी बात
निष्क्रिय - निरर्थक से बीत रहे हैं दिन रात.

सोचता हूँ खुद से कहूँ -
भाषा के चरखे पर
इतना महीन न कातो
कि अदॄश्य हो जायें रेशे
कपूर - सी उड़ जाये कपास.
बचो !
तुम्हारे तलवों तले दब रही है
नन्हीं -नर्म घास.

बहुत हुई कविता
शब्दों का केंचुल उतार धरो
बदलो बन जाओं मनुष्य
बदल रहा है संसार .

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

आँखे तर हैं और हॄदय तरल


आज शाम एक तितली से मुलाकात हुई. अब जबकि गर्मी का मौसम अपने चरम की ओर है और चारों ओर चुनाव की गर्मी का जोर है तब तितली से मिलना भला -सा लगा. बाज़ार से लौटकर देखा की अपने नन्हें - से बगीचे में धूल -धक्कड़ से सने मिर्च के पौधे पर दो तितलियाँ मौज कर रही हैं . उनके पास जाते ही बड़ी वाली तो पड़ोसी के बगीचे की ओर उड़ चली किन्तु छुटकी जस की तस बैठी अपने पंख समेटे मौज में मशगूल रही . उसका नाम पूछा तो कुछ नहीं बोली , न ही पलटकर देखा. एक नन्हें सुंदर जीवधारी के जीवन व्यापार में खलल डालना उचित नहीं था. मन नहीं माना तो इस अनूठे क्षण को कैमरे में कैद कर लिया.

थोड़ी देर बाद छत पर जाकर गमलों का मुयायना किया तो रहस्य उजागर हुआ कि पहले जहाँ रूप व सौंदर्य का बोलबाला हुआ करता था अब उस जगह सूखापन है. यह गर्मी के मौसम की मार है अथवा जीवन - जगत के नश्वर व्यापार का मूर्त वर्तमान ? यह भी देखने को मिला कि अगर भरपूर जिजीविषा और उद्दाम जीवट है तो मौसम के मारक मिजाज के विरुद्ध अपने भीतर कोमलता तथा हरापन बचाया जा सकता है. प्रकॄति हिन्दी - अंग्रेजी के भाषायी विवाद में पड़े बिना कितना कुछ कह जाती है , यह भी आज शाम बखूबी देखा . छत पर मुँगौड़ियों की कलात्मक डिजाइन देखी - मानों धूप में सीझता हुआ स्वाद !

एक ही शाम में कितना - कितना- कितना देख लिया. सूरज को डूबते और क्षितिज को लाल होकर क्रमश: कालिमा में विलीन होते तो रोज ही देखता हूँ. अँधेरे के खिलाफ़ इंसानी जानकारी के जीवंत कारनामे बिजली की जगमग में नहाई हुई यह रात अब गाढ़ी हो चली है. आज जो देखा वह क्या मेरा निजी मामला भर था ? शायद नहीं, कुदरत और कायनात का यह करिश्माई अंदाज भीतर दुबकी हुई संवेदनशीलता को सतह पर उभार कर अभी भी विद्यमान है- आँखे तर हैं और हॄदय तरल. कुछ इसी मन:स्थिति में आज अपने नन्हें - से बगीचे और छोटी - सी छत पर धूल - धक्कड़ , धूप - घाम झेल रहे गमलों में लगे फूल पत्तियों तथा खानपान के उपादानों से हुए साक्षात्कार को चित्रों व कवितानुमा अभिव्यक्तियों के साथ हाजिर हूँ . देखते हैं 'कर्मनाशा' के पाठकों को यह रंग भाता है कि नही !
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मिर्ची की कलियों पर फूलों की रानी ,
चाहिए यह तीतापन क्या है परेशानी ?
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मीठी इस नीम के हरे - हरे पात,
स्वाद और सुगंध दोनो इक साथ !
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धूप के खिलाफ़ यह छतरी छतनार ,
अड़े रहो दोस्त कुछ भी कहे संसार !
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सूख गए फूल उड़ गया रूप रीता सौंदर्य ,
फिर भी हो तने खड़े क्या गज़ब का धैर्य !
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छत पर हैं सूख रहीं ताजी मुँगौड़ियाँ ,
मिर्च रखवाली में खुशबू की लड़ियाँ.
अभी तो तपन है धूप का है राजपाट,
आएगी बारिश तो खायेंगे पकौड़ियाँ !
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शनिवार, 18 अप्रैल 2009

शैलेय के कहानी संग्रह 'यहीं कहीं से' का लोकार्पण



शैलेय हमारे समय के समर्थवान और संभावनाशील कवि है. अभी कुछ ही महीने पूर्व उनका कविता संकलन 'या' आया हो जो कि साहित्यिक हलको और कविता प्रेमियों के बीच खासा चर्चित हुआ है. पिछले एक साल से विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में उनकी कई कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं जिन्हें पाठक बिरादरी ने पसंद किया है। अभी कुछ ही दिन पहले शैलेय का पहला कहानी संग्रह 'यहीं कहीं से' शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह में कुल दस कहानियाँ ( रौखड़ , भंवर, प्रतिघात, यहीं कहीं से,नासूर, यह कोई लीला नहीं है, जेब, ढलान, मैं द्रौपदी नहीं हूँ, कोई है? ) संग्रहीत हैं.'एक तूफान की आस में' शीर्षक से इसकी जो भूमिका प्रसिद्ध कथाकार विद्यासागर नौटियाल जी ने लिखी है उसके कुछ अंश दॄष्ट्व्य हैं -

* शैलेय के इस कथा संग्रह 'यहीं कहीं से' में दी जा रही कहा कहानियों को पढ़ते हुए मैंने अपने को किसी दूसरे ही लोक में विचरण करते हुए पाया.
** इसमें कई कहानियाँ ऐसी लगीं जिनके विषयों से , मेरे खयाल में हिन्दी कथा जगत अभी तक करेब - करीब अनभिज्ञ है. कुदरत ने जहाँ कहीं भी प्रलय मचाई या समाज में जहाँ कहीं भी शोषण हुआ , उसी ओर लेखक की पैनी निगाह जा लगी. इसलिए ये कहानियाँ एक निश्चित स्थान से जुड़ी हुई नहीं हैं. पहाड़ से मैदान तक फैली हुई हैं.
*** शैलेय प्रतिभा के धनी एक समर्थ कवि हैं. कहानी के क्षेत्र में वे उसी कवि हृदय को लेकर प्रवेश कर रहे हैं. मुझे विश्वास है कि हिन्दी कथा जगत के पाठक उनका खुले दिल से स्वागत करेंगे.

अभी पिछले दिनों महिला समाख्या , उत्तराखंड और महादेवी सॄजन पीठ , कुमाऊँ विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में देहरादून में 'लोकगीतों में स्त्री' तीन दिवसीय ( २८ , २९ एवं ३० मार्च २००९ ) राष्ट्रीय संगोष्ठी हुई जो अपने आप में इसलिए अलग और विलक्षण मानी जाएगी कि इसमें आम सेमिनारों की तरह शोधपत्र वाचन जैसा कुछ भी नहीं था . यह आयोजन पूरी तरह उत्तराखंड और देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोकगीतों के गायन और उनके माध्यम से स्त्री स्वर की अभिव्यक्ति व अनुगूँज का आकलन -विश्लेषण था। इस आयोजन में साहित्यकारों , लोक गायकों, संगीत प्रेमियों और सामाजिक कर्यकर्ताओं की उल्लेखनीय उपस्थिति थी. इस सुअवसर का लाभ लेते हुए सोचा गया कि क्यों न शैलेय के सद्य: प्रकाशित कहानी संग्रह 'यहीं कहीं से' का लोकार्पण भी हो जाय तो क्या कहने किन्तु 'लोकगीतों में स्त्री' का आयोजन शिड्यूल इतना व्यस्त था कि २९ मार्च की दोपहर में किताब का लोकार्पण सभागार के बाहर कार्यक्रम स्थल अकेता होटल के हरे - भरे प्रांगण में कथाकार विद्यासागर नौटियाल,आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी , आलोचक मैनेजर पांडेय, कवि लीलाधर जगूड़ी, कथाकार मैत्रेयी पुष्पा , निदेशक महिला समाख्या , उत्तराखंड गीता गैरोला , 'बया' पत्रिका के संपादक गौरीनाथ, कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव, कथाकार नवीन नैथानी , शोधार्थी प्रदीप व अन्य मित्रों द्वारा द्वारा संयुक्त रूप से किया गया. इस अवसर पर कवि , कथाकारों , संपादकों , संस्कृति कर्मियों , पाठको की गरिमामयी उपस्थिति लंबे समय तक याद रहेगी. सबने शैलेय को बधाई दी और उन्होंने अपनी प्रति पर सबके हस्ताक्षर लिए. महत्वपूर्ण यह नहीं है कि इस अवसर पर किसने क्या - क्या किन शब्दों में कहा अपितु महत्वपूर्ण यह है कि यह पुस्तक विधिवत और समारोह पूर्वक लोक को समर्पित हुई. मुझे यह सौभाग्य मिला कि कि मैंने इस पूरे कार्यक्रम को अपने कैमरे में कैद किया जिसमें से कुछ चुनिंदा तस्वीरें यहाँ दी गई हैं.

शैलेय का का कहानी संग्रह ' यहीं कहीं से' अब लोक को अर्पित हो चुका है। मैं इसे पूरा पढ़ चुका हूँ ,इसलिए एक पाठक की हैसियत से निस्संकोच यह कह सकता हूँ कि यदि किसी को समकालीन हिन्दी कहानी के मिजाज को पकड़ने की मंशा है तो अवश्य ही 'यहीं कहीं से' के पन्नों से गुजरना चाहिए.

बहरहाल, शैलेय को दस अच्छी कहानियों के एक उम्दा और याद रखने लायक संग्रह के लिए बधाई !
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पुस्तक : यहीं कहीं से / लेखक : शैलेय / प्रकाशक : शिल्पायन , १०२९५ , लेन नं. १, वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा दिल्ली - ११००३२ / मूल्य : १७५ रुपये
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मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

जानवरों के बारे में पाँच कवितायें


आज शाम पुराने कागज -पत्तर तलाशते हुए पुरानी फाइलों में जानवरों पर लिखी अपनी पाँच कविताओं की एक सीरीज मिली. ये सब कभी किसी मौज में लिखी गई थीं.तब का समय और था -आज का समय और है फिर भी लगता है कि आज से कई बरस पहले के जीवन व जगत के अनुभव कमोबेश आज भी वैसे ही हैं .जिन कागजों पर ये लिखी गईं थी वे पीले पड़ चुके हैं लेकिन बात अब भी उजली और साफ -सी लगती है.अपने तईं यही सोचकर इन कविताऒं को प्रस्तुत कर रहा हूँ. शायद इनके जरिए 'कर्मनाशा' के पाठको से रुका हुआ संवाद गतिमान हो सके. तो प्रस्तुत हैं - जानवरों के बारे में पाँच कवितायें...

१. गधा

यह जो कहें
वही है भाषा
यह जो दिखायें
वही तमाशा
यह जो गायें वही गीत
जो इस कोरस में शामिल
उसके दुर्दिन गए बीत.


२. शेर
अब वह
गरजता नहीं , बरसता है
और
सारा जंगल
पानी के लिए
तरसता है.

३. कुत्ता

वे प्यार से मिले
और हालचाल लिया
मैंने माँगा आशीष
उन्होने दिल खोल दिया
मैंने चाही विदा
वे द्वार तक छोड़ने आए
मैंने किया प्रणाम
वे मुस्कुराए
रास्ते भर मैं रहा परेशान
बार - बार याद आती रही
उनके फाटक पर टँगी तख्ती-
कुत्ते से सावधान !

४. बकरी
जानकारों ने बतलाया है
यह जग मिथ्या है माया है
अत: स्वत:
मिमियाती रह
घास खा
मांस कर दान
इसी में तेरा उद्धार
तेरा जीवन महान.

५. सियार

यह जो इंद्रधनुष है
मनुष्यों के कोलाहल में शोभायमान
यह सबकी छाया है
सबका रंग.
कौन नकली - कौन नक्काल
सबका एक -सा जीवन
एक जैसा ढंग.
हम सब सीधे - हम सब होशियार
तनी रहे नफरत
बना रहे प्यार
सब दुश्मन - सब यार।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

ये कैसा गोरखधंधा है, ये कैसा ताना -बाना है ?

ब्लाग से कुट्टी तो कभी थी ही नहीं , हाँ लंबी छुट्टी जरूर मार ली । अब इधर आना हुआ है तो लग रहा है सबसे पहले गाना होना चाहिए शायरी और संगीत आपस में मिल जायें तो क्या कहने ! मेरे पसंदीदा शायर हैं - इंब्ने इंशा (१९२७-१९७८) . आज सुनते हैं उनकी एक बेहद लोकप्रिय नज्म ' ये बातें झूठी बातें हैं' । स्वर है आबिदा परवीन का ।

अब इस अद्भुत शायरी और अद्भुत आवाज के बारे में क्या कहा जाय - बस्स सुना जाय -

ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं .
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं ?

हैं लाखों रोग ज़माने में, क्यों इश्क़ है रुसवा बेचारा
हैं और भी वजहें वहशत की, इन्सान को रखतीं दुखियारा
हाँ बेकल -बेकल रहता है, हो पीत में जिसने जी हारा
पर शाम से लेकर सुबह तलक, यूँ कौन फिरे है आवारा ?
ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं ?

वो लड़की अच्छी लड़की है तुम नाम न लो हम जान गए
वो जिसके लाँबे गेसू हैं पहचान गए पहचान गए
हाँ साथ हमारे इंशा जी उस घर में थे मेहमान गए
पर उससे तो कुछ बात न की अनजान रहे अनजान गए
ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं ?

जो हमसे कहो हम करते हैं, क्या इंशा को समझाना है ?
उस लड़की से भी कह लेंगे, गो अब कुछ और ज़माना है
या छोड़ें या तकमील करें, ये इश्क़ है या अफ़साना है ?
ये कैसा गोरखधंधा है, ये कैसा ताना -बाना है ?
ये बातें झूठी बातें हैं, जो लोगों ने फैलाई हैं
तुम इंशा जी का नाम न लो, क्या इंशा जी सौदाई हैं ?

इस नज्म को गुलाम अली साहब स्वर में मेरी ब्लाग-बाजीगरी के उस्ताद अशोक पांडे 'सुखनसाज़' पर लगभग एक बरस पहले सुनवा चुके हैं । एक बार वहाँ का फेरा लगा लेने में हर्ज क्या है ! आबिदा जी नज्म के कुछ हिस्से ही गाए हैं, पूरी नज्म के लिए 'प्रतिनिधि कवितायें : इब्ने इंशा (राजकमल प्रकाशन ) देखा जाना चाहिए।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

कुट्टी नहीं छुट्टी

आजकल
ब्लाग
से
कुट्टी
तो
नहीं
पर
छुट्टी
जरूर
चल
रही
है।