शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

ब्लागावकाश के बाद कुछ बिखरा -सा...

* धनतेरस, दीपावली ,गोवर्धन पूजा और आज भैया दूज के साथ छुट्टियों के सिलसिले पर विराम लगा लगा है। इस बीच कई सारे काम किए - घर बाहर की सफाई से लेकर कबाड़ की छंटाई तक. कुछ फाड़ा,फेंका और पहले से भी बहुमूल्य लगा सो उसे जतन से संभाल लिया. इस किस्म के कबाड़ का एक नमूना देखने की इच्छा हो तो 'कबाड़खाना' का एक फेरा लगा लें.

*पिछला सप्ताह मेरे लिए दीपावली अवकाश के साथ एक तरह का ब्लगावकाश भी रहा। बहुत सारे मित्रों - शुभचिन्तकों ने शुभकामनायें - बधाई दीं- उन्हें धन्यवाद और आभार ! पता चला कि कुछ मित्रों का जन्मदिन पड़ा था और मैं देर से जान सका.खैर देर से ही सही बधाई हो बधाई !

*अब धीरे धीरे ब्लाग पर लिखना फिर शुरू -सा हो रहा है परंतु क्या लिखा जाय? क्या आप के साथ भी अक्सर ऐसा होता है कि उत्सव के बाद उदासी -सी उपजती है।अपने आसपास, देश - दुनिया - जहान की उठापटक के बीच उत्सवधर्मिता के जो चंद पल यथार्थ की अकुलाहट को अवरुद्ध कर देते हैं वे कितनी जल्दी व्यतीत हो जाते हैं. सुगंध की तरह उड़ जाती है उनकी उपस्थिति.

*खैर अपने इस ब्लागिस्तान में पिछले सप्ताह भर से विचरण नहीं-सा ही हुआ है।इस बीच निश्चित रूप से बहुत कुछ ऐसा आया होगा / आया है जिससे गुजरना है-पढ़ना , सुनना, देखना है और मन रमने पर अपनी राय भी जाहिर करनी है.

*आज बस इतना ही. हाँ, दीपावली पर मिले तमाम संदेशों के बीच एक बहुत प्यारा-सा ई-मेल बिलासपुर (छतीसगढ़) के शिवा कुशवाहा जी का मिला जिसे सबके साथ बाँटने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ -
Look at these enthusiastic little lamps!
They are determined to crush the arrogance of the moon
and
have come forward to fight against the darkest night of the month।
Hats off to this bubbly confidence !!!
Wish you and your family an illuminating Deepawali !

* 'कर्मनाशा' पर आने वाले और इसका लिंक देने वाले सभी मित्रों के प्रति आभार !

*चलते -चलते अर्ज है 'मोमिन' का यह शे'र -

ये उज्रे - इम्तहाने जज्बे -दिल कैसा निकल आया,
मैं इल्जाम उसको देता था कुसुर अपना निकल आया.

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2008

...कि तुझको सोते हुए चाँद देखता होगा.


.........अभी कुछ दिन पहले ही 'कबाड़खाना' पर फिल्म 'अंजुमन' से एक ग़ज़ल आप सबको सुनवाई थी. हम सब की ब्लाग की इस बनती हुई दुनिया में उत्कॄष्ट संगीत से सराबोर करने वाले भाई मीत का प्यार भरा आदेश था कि इसी अलबम से कुछ और सुनवाया जाय. सो बिना किसी टीका - टिप्पणी के प्रस्तुत है यह ग़ज़ल - मीत के लिए और सारे मित्रों के लिए.......

गुलाब जिस्म का यूं ही नहीं खिला होगा.
हवा ने पहले तुझे फिर मुझे छुआ होगा.

शरीर- शोख किरन मुझको चूम लेती है,
जरूर इसमें इशारा तेरा छुपा होगा.

म्रेरी पसंद पे तुझको भी रश्क आएगा,
कि आइने से जहां तेरा सामना होगा.

ये और बात कि मैं खुद न पास आ पाई,
प' मेरा साया तो हर शब तुझे मिला होगा.

ये सोच - सोच के कटती नहीं है रात मेरी,
कि तुझको सोते हुए चाँद देखता होगा.

मैं तेरे साथ रहूंगी वफ़ा की राहों में,
ये अहद है न मेरे दिल से तू जुदा होगा.
* गायक - भूपिन्दर और शबाना आजमी
* शायर - शहरयार
*संगीतकार - खय्याम

सोमवार, 20 अक्टूबर 2008

प्रेम कविताओं का कोई भविष्य नहीं है ( ?)


तुम्हारा सामीप्य
जैसे अभी-अभी कोई प्रेम कविता पढ़ी है
उगंलियों की छुवन से फिसल रहें है शब्द
संगीत के आरोह-अवरोह से परे है इसकी लय
रूके हुए समय के वक्षस्थल पर
मैं सुन रहा हूं इसकी पदचाप !

तुम्हारा सामीप्य
बहुत धीरे-धीरे मेरे पास आता है
और एकाएक चला चला जाता है
हवा में टंगे रह जाते हैं
स्वागत मुद्रा में उठे हुए हाथ।

आलोचक कहते हैं
प्रेम कविताओं का कोई भविष्य नहीं है
क्या सचमुच मेरे भविष्य से अलग है
तुम्हारे सामीप्य का सुंदर - सुकोमल वर्तमान !

बुधवार, 15 अक्टूबर 2008

ब्लागिंग के ३६६ दिन और कुछ 'टूटी हुई - बिखरी हुई'



आज एक बरस पूरा हुआ.

एक वर्ष, अनंत - अविराम समय का बहुत ही छोटा -सा हिस्सा है किन्तु मनुष्य के छोटे-से जीवन में यह इतना छोटा कालखंड भी नहीं है कि इसे अनदेखा - अनचीन्हा किया जा सके. स्वमूल्यांकन के हिसाब से यह 'क्या खोया - क्या पाया' को अवगाहने का अवसर तो है ही. आज से एक साल कुछ दिन पहले मैं 'ब्लागिंग' जैसी किसी किसी चीज से परिचित हुआ था और ठीक एक साल पहले 'कबाड़खाना' पर एक स्वतंत्र पोस्ट चढ़ाई थी. इस विधा / रूप / से परिचित कराने व प्रयोग करने का हौसला तथा हुनर देने का पूरा श्रेय मेरे मित्र अशोक पांडे को है जिनके साथ किसी जमाने में 'सॄजमीक्षा' नाम से एक त्रैमासिक पत्रिका निकालने के योजना बनाई थी. उस पत्रिका का विज्ञापन / फोल्डर आदि भी छप गया था. अच्छी - खासी रचनायें भी इकठ्ठी हो गई थीं परंतु वह पत्रिका न निकल सकी तो न निकल सकी. ब्लागिंग से जुड़ते हुए यही लोभ - लालच था कि पत्रिका न निकाल सकने की पुरानी कसक को शायद कोई नया किनारा मिल सकेगा लेकिन इससे जुड़कर कर तो ऐसा लगा कि यह काम पत्रिका निकालने से कहीं अलहदा, चुनौती भरा और कहीं आगे का काम है.

'हिन्दी ब्लागिंग' पर अभी एक लेख लिखने की तैयारी चल रही है. अभी तो इसका प्रारूप कच्चा - सा ही है, फिर भी इसके कुछ हिस्से इस उम्मीद के साथ प्रस्तुत हैं कि अपने एक बरस के ब्लागिंग ( जितनी भी - जैसी भी की है ) का आत्ममूल्यांकन हो सके और हमकदम- हमराह ब्लागर्स अगर इसको पढे़ और जरूरी समझें तो अपने बहुमूल्य सुझावों से 'बहुत कठिन है डगर ब्लागिंग की' पर चलने की राह सुझा सकें. तो प्रस्तुत है एक लिखे जा रहे लेख की कुछ 'टूटी हुई - बिखरी हुई' / बेतरतीब बातें -

हिन्दी ब्लाग : वैकल्पिक पत्रकारिता का वर्तमान और भविष्य

व्यक्तिगत अनुभवों तथा अभिरुचियों की निजी आनलाइन डायरी के रूप में आरंभ हुई ब्लागिंग ने एक दशक की यात्रा पूरी की है. हिन्दी में तो इसके विधिवत विकास का आधा दशक भी नहीं हुआ है फ़िर भी कंप्यूटर एवं इंटरनेट के त्वरित विकास , संचार प्राद्योगिकी की सहज - सस्ती सुलभता, देवनागरी फ़ांट प्रबंधन संबंधी समस्याओं का निराकरण आदि के कारण हिन्दी ब्लाग ने अपनी उपस्थिति की अनिवार्यता प्रस्तुत कर दी है . व्यक्तिगत संप्रेषण का यह माध्यम नया है और अभी अपने शैशवकाल में है किन्तु इसके विकास की संभावनायें अनन्त है. यह निजी डायरी लेखन से काफ़ी आगे बढ चुका है तथा वैकल्पिक पत्रकारिता या भविष्य की हिन्दी पत्रकारिता का एक निरंतर निर्मित हो रहा एक ऐसा रूप है जिसके विकास की दिशा और दशा तय की जानी है।

हिन्दी ब्लाग के समक्ष कोई सुदीर्घ पूर्ववर्ती परंपरा नहीं है और न ही भविष्य का कोई स्पष्ट खाका ही है अपितु इसकी व्युत्पत्ति और व्याप्ति का तंत्र वैश्विक और कालातीत होते हुए भी इतना वैयक्तिक है कि सशक्त निजी अनु्शासन के जरिए इसे साधकर व्यष्टि से समष्टि की ओर सक्रिय किया सकता है इसी में इसकी सार्थकता भी है और सामाजिकता भी. अतएव यह आवश्यक है कि हिन्दी ब्लाग ( जिसे अब 'चिठ्ठा' भी कहा जाने लगा है) की परम्परा,प्रस्तुति और प्रयोग का आकलन - विश्लेषण किया जाय ताकि इस बनते हुए माध्यम की मानवीय और तकनीकी बाधाओं को पहचान कर उन्हें दूर करने के प्रयास के साथ ही 'एक बार फ़िर नई चाल में ढ़ल रही हिन्दी' की सामाजिक भूमिका को दृष्टिपूर्ण तथा दूरगामी बनाया जाय.

एक अनुमान के अनुसार इस समय हिन्दी में( हिन्दी की बोलियों में लिखे जा रहे ब्लागों को छोड़कर) सक्रिय ब्लागों की संख्या दस हजार से अधिक है और रोजाना इस संख्या मे इजाफ़ा हो रहा है. एक ओर जहां अंग्रेजी में ब्लागिंग अपने शीर्ष पर है और लगभग स्थिरता के निकट है वहीं हिन्दी में यह निरंतर विकासमान है. इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया इसे अपना सहगामी और सहचर मानते हुए गंभीरता से इसके महत्व को स्वीकर करते हुए इसे मान दे रहा है. पत्र-पत्रिकाओं में न केवल इसकी उपस्थिति को रेखांकित किया जा रहा बल्कि ब्लाग्स पर प्रस्तुत सामग्री की पुनर्प्रस्तुति भी की जा रही है.

त्वरित लेखन, त्वरित प्रकाशन और त्वरित फ़ीडबैक की सुविधा के कारण हिन्दी ब्लाग जगत वहुविध और बहुरूपी है. इसमें लेखक ही संपादक है और उसके सामने देश काल की सीमाओं से परे असंख्य पाठक हैं जो चाहें तो तत्क्षण अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं. यह सत्य है कि गद्य की गंभीर और गौरवपूर्ण उपस्थिति के बावजूद जिस तरह अधिसंख्य लोगों के लिये हिन्दी साहित्य से आशय केवल कविता है वैसे ही हिन्दी ब्लाग पटल पर कवितायें सर्वाधिक हैं- स्वरचित, श्रेष्ठ हिन्दी कवियों की और विश्व कविता का अनुवाद भी.समाचार, हास्य-व्यंग्य, कहानी, लघुकथा, उपन्यास अंश,समस्या पूर्ति, पहेली,शेरो-शायरी,चित्रकथा, कार्टून,पेंटिंग, फ़ोटोग्राफ़ी आदि के साथ प्रचुर दृश्य-श्रव्य सामग्री भी विद्यमान है.

हिन्दी ब्लाग एक तरह से अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों पर उपलब्ध और निरंतर रचे जा रही विधाओं के दस्तावेजीकरण का एक ऐसा प्रयास है जो व्यक्तिगत होते हुए भी सामाजिक है. इंटरनेट की आभासी दुनिया मे यह एक नए संसार की रचना मे सन्नध है. हिन्दी भाषा का एक नया मुहावरा गढ़ते हुए यह गतिशील और गतिमान है तथा इसकी उपस्थिति और उपादेयता को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

शनिवार, 11 अक्टूबर 2008

सुनहरे वरक़' का एक वरक़ और : 'जाने वाली चीज का गम क्या करें'


दुनिया के देखने के लिए आँख चाहिए,
जन्नत की सैर से है सिवा इस मकाँ की सैर।


अभी कुछ ही दिन पहले मैंने 'कबाड़खाना' पर 'सुनहरे वरक़' का एक वरक़ पेश किया था. आज इसी अलबम से प्रस्तुत है एक दूसरी रचना.यह कलाम दाग़ देहलवी का है. नवाब मिर्ज़ा खाँ 'दाग़' देहलवी ( २५ मई १८८३१ - १७ फरवरी १९०५ ) के कई मिसरे लोकोक्तियों का रूप ले चुके हैं. उर्दू की परवर्ती दरबारी काव्य परम्परा का यह नायाब शायर ग़ज़ल गायकों का सबसे पसंदीदा रहा है. यही नहीं, माना जाता जाता है कि उनके शागिर्दों की संख्या दो हजार से अधिक थी. यह भी पढ़ने को मिलता है कि हैदराबाद, जहाँ उनके अंतिम दिन बीते, में उन्होंने इस्लाह (काव्य संशोधन) के लिए एक दफ़्तर ही खोल दिया था. एक शायर के रूप में दाग़ का सबसे बड़ा कारनामा यह है कि उन्होंने लखनवी और देहलवी शैली के सम्मिश्रण का एक ऐसा काव्य रोप प्रस्तुत किया जो न तो मात्र शब्द चमत्कार है और न ही कल्पना की ऊँची-वायवी उड़ान बल्कि वह समग्रतः अनुभूतिपरक व इहलौकिक है.

आज प्रस्तुत है - हमारे समय के संगीत के वैविध्य का एक उदाहरण बन चुके प्रख्यात गायक हरिहरन और साथियों के स्वर में एक ग़ज़ल. संगीत है सुमधुर धुनों के धनी खैयाम साहब का , जैसा कि पहले ही कहा चुका है-अलबम का नाम हैः 'सुनहरे वरक़' .

दिल गया तुम ने लिया हम क्या करें
जानेवाली चीज़ का ग़म क्या करें

एक सागर पे है अपनी जिन्दगी
रफ्ता- रफ्ता इस से भी कम क्या करें

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008

सोने के पहले

सोने से पहले
मै खूब थक जाना चाहता हूं
ताकि आ जाए गहरी नींद
-सपनों से खाली निचाट दोपहर -सी नींद.

सोने से पहले
मैं लिख लेना चाहता हूं प्रेम कविताऍ
आत्मा की तह तक
उतार लेना चाहता हूं प्रेम की सुगंध.

सोने से पहले
मैं पढ़ लेना चाहता हूं अपनी किताबें
जिन्हें अभी तक
सिर्फ उलट -पुलट कर देखा भर है।

सोने से पहले
मैं देख लेना चाहता हूं
सोते हुए बच्चे के चेहरे पर मुस्कराहट ।

सोने से पहले
मैं ओढ़ लेना चाहता हूं उस बच्चे का चेहरा
ताकि अगली सुबह जब वह उठे
तो पहचान सके
कि यह वही दुनिया है
जिसे कल रात
वह सोने से पहले वह देख रहा था।

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2008

हर दिन बदलता है पहाड़ अपनी परिभाषा

पहाड़-४

मार दिए जाने की
खत्म कर डाले जाने की
सैकड़ों - हजारों कोशिशों के बावजूद
खड़ा है पहाड़ -
हमारे
और आसमान के दरम्यान
हमारी बौनी छायायों पर
विशालता की परिभाषा लिखता हुआ.

ऊपर दी गई यह छोटी -सी 'बड़ी' कविता उन पन्द्रह कविताओं में से एक है जो आज से कई बरस पहले रची गई थीं और स्वयं इसके रचनाकार ने इन पर / इनके बहुत ही जानदार कविता पोस्टर बनाए थे. ये कवितायें वार्षिक पत्रिका 'पहाड़' सहित कई जगह प्रकशित हुईं और इनके पोस्टरों की प्रदर्शनी भी गांव-गांव,शहर - शहर घूमती रही, सराहना पाती रही तथा १९९२ में ये कवितायें 'देखता हूं सपने' नामक संग्रह का हिस्सा बन गईं.इन कविताओं के कवि का नाम है अशोक पांडे.अभी हाल ही में जिस 'कबाड़खाना' नाम्नी ब्लाग ने एक बरस पूरे किए हैं , अशोक उसके मुखिया हैं किन्तु यह तो बेहद आधा-अधूरा परिचय है. कवि ,चित्रकार,गद्यकार,अनुवादक,यायावर, ब्लागर आदि-इत्यादि रूपों में कौन -सा रूप प्रमुख है इस शख्स का? यह सवाल मेरे लिए हमेशा से पेचीदा और परेशानी भरा रहा है.वैसे भी ,इस तरह का सवाल बेमानी और बेतुका है -खासकर उसके लिए, जिसके लिए मेरे निजी शब्दकोश में एक बहुत छोटा-सा शब्द है - 'मित्र'. मैं तो आज अपने मित्र की 'पहाड़' सीरीज की कविताओं की बात कर रहा था. दरअसल ' कर्मनाशा' पर पिछली दो पोस्ट्स प्रस्तुत करते समय ये कवितायें लगतार मेरे भीतर गूंज रही थीं.
अशोक पांडे द्वारा रचित 'पहाड़' सीरीज की पन्द्रह कवितायें एक साथ देना तो फिलहाल संभव नहीं दीख रहा है अत: केवल दो कवितायें - एक ऊपर दी गई है , अन्य नीचे दी जा रही है. आप देखे- पढ़ें :

पहाड़ - १०

पहाड़ के
इस ओर उगाया जाता है
जहर -
पहाड़ के उस ओर
देवता उगाते हैं संजीवनी

पहाड़ के इस ओर से
पहाड़ के
जब उस ओर का
रास्ता मिल जाएगा
तब खदेड़ दिए जायेंगे देवता
नीचे रेगिस्तान की ओर

तब पहाड़ के
उस ओर भी उगाया जाएगा जहर

पहाड़
सब जानता है
पर निश्चिन्त चुपचाप रहता है
क्योंकि
पहाड़ के इस ओर से
पहाड़ के उस ओर का रास्ता
बस
पहाड़ ही जानता है !

सोमवार, 6 अक्टूबर 2008

सिर्फ सपनों में

मेरे सपनों में आते हैं
आड़ू , सेब , काफल और खुमानी के पेड़
पेड़ों के नीचे सुस्ताई हुई गायें
और उनके थनों से निकलता हुआ दूध .

मेरे सपनों में आते हैं
सीढ़ीदार खेत , रस्सियों वाले पुल
और पुल से गुजरते हुए स्कूली बच्चे .

मेरे सपनों में आते हैं
जंगल , झरने , शिखर
घास काटती हुई स्त्रियां
और बोझा ढोते हुए मजदूर .

मेरे सपनों में आते हैं
पहाड़ से आने वाले लोग
मेरे सपनों में आते हैं
पहाड़ को जाने वाले लोग .

मेरे सपनों में
अब नहीं आता है पहाड़
जबकि अब...
सिर्फ
सिर्फ
सिर्फ
सपनों में ही आ सकता है पहाड़ !


( यह कविता वेब पत्रिका : http://www. hindinest.com के अंक - March 14‚ 2003 में प्रकाशित हो चुकी है.साथ लगा चित्र http://www.pahar.org से साभार )

शनिवार, 4 अक्टूबर 2008

बहुत दिनों बाद




पहाड़ बहुत दिनों बाद उठा
पेड़ों ने आसमान छूने की होड़ लगाई
और नुकीली पत्तियों पर
जमने लगी उजली-उजली बर्फ़.

पहाड़ बहुत दिनों बाद हंसा
चटख गए कलियों के अधखुले होंठ
सहसा दहक गया रक्तिम बुरांश
और झील के पानी में उठी एक छोटी-सी लहर.

पहाड़ फ़िर गुमसुम हो गया
उसकी नसों में दौड़ने लगीं
धुआं उगलती गाड़ियां
और पीठ पर उचकने लगे नौसिखिए घुड़सवार.

पहाड़ बहुत दिनों बाद रोया
मैं ने बहुत दिनों बाद लिखी
पहाड़ पर एक कविता
पहाड़ ने बहुत दिनों बाद पढ़ी
पहाड़ पर एक कविता
और मेरे मुंह पर थूक दिया.

पहाड़ ने ऐसा क्यों किया
मैं सोचता रहा बहुत दिनों बाद तक।

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2008

'गांधी जी कहां रहते हैं?'

आज २ अक्टूबर है . आज ईद है. आज गांधी जयंती है. आज शास्त्री जयंती है. आज इतवार है. आज नवरात्रि का तीसरा दिन है. आज छुट्टी है. आज सुबह - सुबह बेटे ने प्रश्न किया था कि 'गांधी जी कहां रहते हैं?' थोड़ी देर के लिए तो मैं हतप्रभ रह गया था - 'गांधी जी कहां रहते हैं?' छोटे से बच्चे को तो गांधी जी की जन्मतिथि और देहावसान तिथि बताकर समझा दिया कि आज गांधी जी का हैपी बर्थ डे है. यह तो सुबह की बात थी. अभी आधे से अधिक दिन बीत गया है. टी.वी. पर रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म 'गांधी' दिखाई जा रही है. किचन में लंच की तैयारी चल रही है. मैं कंप्यूटर पर कुछ खुटर -पुटर कर रहा हूं. सबकुछ कितना सामान्य , कितना सहज चल रहा है लेकिन पता नहीं क्या कारण है कि स्वयं से अभी तक पूछ रहा हूं कि 'गांधी जी कहां रहते हैं?'

आज से दो बरस पहले गाधी जयंती के दिन एक छोटा -सा आलेख लिखा था जो बाद में ई पत्रिका 'अभिव्यक्ति' ( http://www.abhivyakti-hindi.org ) के 16 जनवरी 2007 के अंक में 'गाँधीगिरी के आश्चर्यलोक में' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. आज २ अक्टूबर गांधी के अवसर पर पर प्रस्तुत है उसी आलेख का किंचित संशोधित रूप -

गाँधीगिरी के आश्चर्यलोक में


अभी हाल ही में हिन्दी भाषा को एक नया शब्द मिला है- गाँधीगिरी। यह अलग बात है कि भाषा के जानकार और जिज्ञासु इस शब्द के निर्माण और निहितार्थ पर लंबी बहस कर सकते हैं लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस एक अकेले शब्द ने आज के समय और समाज में गाँधीवाद की प्रासंगिकता और प्रयोग पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है। यह सभी को मालूम है कि इस बहस का कारण एक आम बंबइया हिंदी फ़िल्म 'लगे रहो मुन्ना भाई' और उसके कथ्य के साथ निरंतर हो रहे प्रयोगों की नई- नई कड़ियाँ हैं। इधर पत्र-पत्रिकाओं में इस फ़िल्म की जो समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं उनमें इसकी रेटिंग काफ़ी ऊँची है। बाक्स ऑफ़िस का ग्राफ़ भी इसे रोज़ाना ऊपर दर्शा रहा है। मीडिया में इसकी बूम है और आम जनता में धूम। दूसरी ओर गाँधीवादियों की नज़र में यह सब कुछ एक मज़ाक़, मनोरंजन और मसाला मात्र है। फिर भी यह सवाल ज़रूरी और जायज़ है कि आज गाँधीगिरी की ज़रूरत है तो आख़िर क्यों?

हर वर्ष 02 अक्तूबर के हम सब लगभग रस्मी तौर बापू को याद करते हैं। स्वाधीनता आंदोलन में उनके योगदान को याद करने के साथ उनके दिखाए रास्ते पर चलने का संकल्प दोहराने के साथ बाकी बचे दिन को अवकाश और आनंद में गुज़ार देते हैं।

दो अक्तूबर है गाँधी
एक दिन स्कूल-दफ्तर से छुट्टी है गाँधी
फ़ुरसत में
परिवार के साथ
गरमागरम पकौड़े खाना है गाँधी
ऑस्कर जीतने वाला बेन किंग्सले है गाँधी
(अशोक पांडे :' देखता हूँ सपने', )

रिचर्ड एटनबरो द्वारा निर्देशित और बेन किंग्सले द्वारा अभिनीत फिल्म 'गाँधी' ने अपने समय में काफ़ी कोलाहल मचाया था और रिकार्ड ऑस्कर अवार्ड भी जीता था किंतु यदि हम याद करें तो फिल्म 'गाँधी' को लेकर भारत में भक्ति भाव ही ज़्यादा प्रकट हुआ था। उस फ़िल्म ने हमारे समय और समाज में कोई ख़ास उथल-पुथल नहीं मचाई थी। उस समय हम भारतीय लोग अपने महात्मा के महत्व का महिमामंडन सिनेमा के परदे पर देखकर मुग्ध और मुदित थे। फिल्म 'गाँधी' को देखकर तब के भारतीय भावुक होते थे और 'साबरमती के संत तू ने कर दिया कमाल' की कथा के क़ायल होने तक ही सीमित थे। आज का समय भावुक होने का समय नहीं है। यह भय, भाग-दौड़ और भंडार भरने का समय है।

लुभावने विज्ञापन हैं और सूक्ष्म प्रविधियाँ
पहले विज्ञान को बदला और अब बदला जा रहा है कला को
संवेदना नष्ट करने के माध्यम में
कि मनुष्य को बदला जा सके औजार में।
सबसे अवांछित हैं वे लोग
जो बात-बात में हो जाते हैं भावुक।
(कुमार अंबुज : 'क्रूरता', )

ऑस्कर पुरस्कार के लिए भारत की प्रविष्टि की दौड़ में 'लगे रहो मुन्ना भाई' शामिल थी किंतु अंतत: 'रंग दे बसंती' भेजी गई। 'लगे रहो मुन्ना भाई' भी स्वतंत्र प्रविष्टि के रूप में भेजे जाने की की खबर आई थी। कथ्य, शिल्प और कुल मिलाकर कलात्मक प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से 'रंग दे बसंती' एक बेहतर और बेजोड़ फ़िल्म है। आज की युवा पीढ़ी के भटकाव और भविष्य को यह बेहद बारीकी और बेबाक तरीके से बयान करने के साथ ही सिनेमा की कला का पूरा निर्वाह भी करती है जबकि 'लगे रहो मुन्ना भाई' में एक खिलंदड़ापन है। कथ्य और शिल्प, दोनों स्तरों पर यहाँ सब कुछ बिंदास है। एक आम बंबइया हिंदी फ़िल्म में जो कुछ दिखाया जाता है वह मौजूद है, बावजूद इसके 'लगे रहो मुन्ना भाई' की मास अपील का मामला इतना मामूली नहीं है। यह एक अयथार्थवादी फ़िल्म होते हुए भी यथार्थ को इतने सशक्त तरीके से रखती है कि बॉलीवुड के बिज़नेस गुरुओं की कयासगिरी का कचूमर निकल जाता है। वे इस बात पर दोबारा सोचने को मजबूर होते दिखाई दे रहे हैं कि यहाँ सिर्फ़ शाहरूख और सेक्स बिकता है! दोनों ही फ़िल्मों में केवल यही एक समानता नहीं है कि इनमें न शाहरूख है न सेक्स बल्कि औज़ार के रूप में मीडिया का इस्तेमाल दोनों ही फ़िल्मों की एक उल्लेखनीय समानता है। यह मीडिया की शक्ति का नहीं बल्कि उसकी अनिवार्यता का उदाहरण है। साथ यह भी सच है कि दोनों ही फ़िल्मों की अधिकाधिक चर्चा का कारण मीडिया के मुख्य समाचारों में बने रहना भी है। दोनों ही फ़िल्में फ़िल्म सें इतर वजहों से चर्चित हो रही हैं। कम से कम 'लगे रहो मुन्ना भाई' के बारे में तो यह साफ़ दिखाई दे रहा है।

यह सच है कि 'लगे रहो मुन्नाभाई' एक सफल आम बंबइया हिंदी फ़िल्म है लेकिन इसकी ख़ास बात यह है कि यह गाँधीवाद के साथ एक नए प्रयोग का ऐसा काल्पनिक प्रस्तुतीकरण है जो यथार्थ में घटित हो रहा है। टेलीविज़न और अख़बारों में रोज़ाना इस फ़िल्म से प्रभावित और प्रेरित होकर किए जा रहे प्रयोगों के समाचारों की एक श्रृंखला-सी चल पड़ी है। छोटे बड़े-मँझोले सभी तरह के शहरों से न्यूज़ और ब्रेकिंग न्यूज़ की झड़ी-सी लग गई दीख रही है। लोगबाग अपने विरोधियों और सरकारी तंत्र के प्रति ग़ुस्से का इज़हार फूल देकर कर रहे हैं। सुना है कि कुछ जगहों पर गुलाब के फूलों की बिक्री बढ़ गई है। साथ ही यह भी ख़बर है कि गाँधी जी की आत्मकथा सत्य के साथ मेरे प्रयोग की बिक्री में भी इज़ाफ़ा हुआ है। आज जबकि पढ़ने की संस्कृति का क्षरण हो रहा है ऐसे में यह एक सुखद आश्चर्य नहीं तो और क्या है! इस बीच गाँधीगिरी को लेकर इतने आलेख इत्यादि छपे हैं कि कई किताबें तैयार हो सकती हैं, शायद हो भी गई हों। इंटरनेट पर कुछ जालघर और चिट्ठे भी चल रहे हैं। कुल मिलाकर गाँधीगिरी की हवा है लेकिन सवाल यह है कि इस हवा में कितनी हवा है और इसमें नया क्या है?

खोलता हूँ खिड़कियाँ
और चारों ओर से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल-भरी तसली-सा हिलाती।

मुझ से बाहर
मुझ से अनजान जारी है जीवन की यात्रा अनवरत
बदल रहा है संसार।
(अरुण कमल: 'उर्वर प्रदेश', )

मीडिया मुन्ना भाई के बहाने गाँधीवाद के नए अवतार या रूप के आगमन की बात कर रहा है। गाँधीवादी विचारकों के लिए यह एक मज़ाक़ और मनोरंजन जगत का खेल भर लग रहा है जो कुछ दिनों बाद तिरोहित हो जाएगा। कुछ व्यक्तियों और संगठनों के लिए यह प्रचार पाने तथा समाचारों में बने रहने का शगल भी हो सकता है। फ़िल्मी दुनिया के लिए यह नए विषयों के नए द्वार खोलने का एक सुनहरा अवसर भी हो सकता है। अकादमिक जगत के लिए यह बहस-मुबाहसे का एक नया मौका भी है और मीडिया के लिए तो काम और कमाई दोनों ही है। सच पूछिए तो गाँधीगिरी ने सबको कुछ न कुछ दिया है और सब उसे अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं।

( ऊपर लगा चित्र इसी साल दिल्ली में संपन्न विश्व पुस्तक मेले में खीचा गया था.)