गुम हो गई किताबों की याद बार-बार आती है। लगता है कि आज अगर वे होतीं तो उन्हें एक बार फ़िर पढा़ जाता। इसी बहाने यादें पुरानेपन के चोले से बाहर आकर उनकी उपस्थिति कुछ नया अहसास दे जातीं लेकिन वे तो गुम हो गईं अपने पीछे एक याद, कसक और टीस छो़ड़कर! मेरे निजी संग्रह में ऐसी ही एक किताब हुआ करती थी 'क्या कह कर पुकारूं'. यह सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की प्रेम कविताओं का एक संकलन था- पेपरबैक, कम दाम वाला लेकिन इसमें एक से बढ़कर एक उम्दा, बेशकीमती और 'असरदार' कवितायें थीं. असरदार इसलिये कह रहा हूं कि विद्यार्थी जीवन में नैनीताल के ब्रुकहिल छात्रावास के 'प्रेमी' भाई लोग इनमें से कुछ कविताओं ( जैसे 'नीली चिड़िया') को प्रेम निवेदन के नुस्खे के रूप में हमसे मांगकर आजमाया करते थे और अक्सर वह ( नुस्खा) कारगर होता देखा जाता था. इस बात को मजाक न समझा जाय , वे दिन सचमुच कविताप्रेमी प्रेमियों के थे .आज का क्या हाल है, यह तो पाठक ही बतायें. फ़िलहाल सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के उसी संग्रह 'क्या कह कर पुकारूं' से प्रस्तुत है एक कविता-'तुम्हारे साथ रहकर':
तुम्हारे साथ रहकर
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक की घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक की घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।
शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।