मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कि बहुत व्यस्त आदमी हूं।कभी-कभार मौका मिलने पर आलस्य का आनंद उठाने से भी बाज नहीं आता हूं.कभी-कभी दीवार पर चढ़ती चींटी को देर तक देखने का आनंद भी ले लेता हूं.लेकिन लिखने-पढ़ने का काम तो पिछड़ ही रहा है.ऐसा नहीं है कि विषयों की कमी है, ऐसा भी भी नहीं है कि शब्द फिसल जा रहे हों लेकिन कहीं तो कुछ है कि सुई अटक जाती है.समकालीन साहित्यिक परिदृष्य के मुख्य पटल पर सक्रिय मित्र कहते हैं कि तुम व्यावहारिक नहीं हो- यू आर नाट प्रेक्टिकल.तुम्हारा मुहावरा पुराना पड़ गया है, बाजार में उसकी कोई कीमत नहीं हैं.अपने आप को प्रेजेंटेबल और सेलेबल बनाओ,तभी कद्र है ,कीमत है ,काबिलियत है.
हमारे हाईस्कूल की हिन्दी की किताब 'गद्य संकलन' में आधुनिक हिन्दी के निर्माताओं में से एक पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का एक निबंध था-'क्या लिखूं?'वहां सवाल विषयों के चुनाव का था किन्तु यहां तो सवाल कुछ और है विषय भी हैं उन्हें व्यक्त करने भाषा भी लेकिन फिर भी काम है कि सध नही रहा है।क्या जाने मेरी रचना प्रक्रिया में ही कहीं कोई गड़बड़ है.जब कोई अंतरंग कविताओं की डायरी / फाइल देखता है तो कविताओं के नीचे लिखे समय / तारीख को देखकर चौंकता है.वजह- अधिकतर कवितायें आधी रात के बाद लिखी गई हैं, ऐसे वक्त जब सोने का वक्त होता है!
पस्तुत है 'पीढ़ी प्रलाप' शीर्षक अपनी एक पुरानी कविता जो दो पत्रिकाओं में(एक साथ नहीं) प्रकाशनार्थ स्वीकृत हुई थी लेकिन छपी एक जगह भी नहीं ।पता नहीं इसमें कविता जैसा कुछ है भी कि नही? यह अपने विद्यार्थी जीवनकाल का एक कोलाज भी है और पीछे मुड़कर देखने का उपक्रम भी.चलिए लगे हाथ यह तो बता ही दिया जाये कि यह रात के एक बजकर पचपन मिनट पर लिखी गई थी... खैर॥ देखते हैं इसके बारे में ,अब इतने दिनों बाद पाठकों की क्या राय है!
पीढ़ी प्रलाप
मैं एक साथ कई काम करता हूं
अच्छा लगता है
एक साथ कई कामों को निपटाना.
किताबों की दुकान पर
एक ही दिन
'वर्तमान साहित्य','डेबोनेयर','इंडिया टुडे'और 'रोजगार समाचार' खरीदते
कोई संकोच-कोई आश्चर्य नहीं होता.
लोकसेवा आयोग के आवेदन पत्रों पर
अपना फोटो चिपकाते हुए
पत्र-पत्रिकाओं से काटता रहता हूं
नेताओं,भिखारियों और औरतों की तस्वीरें
ताकि 'माई लाइफ' शीर्षक कोलाज बना सकूं.
फिल्म देखते हुए
नाटक के बारे में सोचता हूं
और नाटक करते हुए
जिन्दगी के बारे में - दार्शनिक की तरह.
कमरे का उखड़ता हुआ पलस्तर
गारा-मिट्टी ढ़ोने वाले मजदूरों की तस्वीर नहीं उकेर पाता
और न ही आंखों में चुभती हैं
देर रात गए तक
मेस की किचन में बरतन साफ करने वाले
पहाड़ी किशोर की ठंडी उंगलियां.
बलात्कार की शिकार औरतों की सहानुभूति में
तख्ती उठाकर जुलूस में शामिल होते हुए
मैं देखना चाहता हूं प्रेमिका का शारीरिक सौन्दर्य.
परिचित-अपरिचितों की शोकसभा में
सिर्फ दो मिनट का मौन मुझे अशान्त कर देता है
लाईब्रेरी में बैठते ही
किताबों के शब्द निरर्थक लगने लगते हैं
मैं भाग जाना चाहता हूं
एवरेस्ट या अंटार्कटिका की तरफ़
दिन भर खटने के बाद
लगता है कि आज कुछ भी नहीं किया
प्रभु!
मुझे जीने का बहाना दो
अब तक मैंने कुछ भी नहीं जिया.