गुरुवार, 7 अगस्त 2008

उड़ न जाये गंध


अभी कुछ दिन पहले पुराने घर से लगभग दस-बारह साल से तालाबंद वह बक्सा उठाकर लाया हूं जिसमें किताबें भरी हुई थीं.कई पुरानी डायरियां भी उनमें थीं और डायरियों में काफ़ी पुरानी कवितायें भी. एक समय इफ़रात में छंदबद्ध कवितायें लिखी थीं . उस समय उम्र और अनुभव की जो समझ और सीमा थी वह सब कुछ इन डायरियों से गुजरते हुए दीख रहा है. आज अपनी ही रचनाओं को पढ़ना नया-नया जैसा लग रहा है. मैं इन कविताओं को डिसऒन कर पुराने दिनों की गमक से वंचित नहीं होना चाहता. प्रस्तुत है एक कविता या गीत या नवगीत ( चाहे जो कह लें) :-

उड़ न जाये गंध

मन की अधबनी
मटीली प्यालियों में
देखो तुम यूं नेह का चंदन न घोलो !

बह न जाये रंग
उड़ न जाये गंध
टूट न जाये कहीं
मौसमी अनुबंध


रहने दो अंकुश
नवागत स्वप्नों की दहलीज पर
उनसे ऐसी रसभरी बातें न बोलो !

मत करो एकान्त के
अवसान का आह्वान
गूंज जायेंगे समूचे प्राण में
देवताओं के मधुरतम गान

इसलिए तुम
उड़ने की इच्छा में भरकर
इस तरह अंगड़ाइयों के पर न तोलो!

6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह जी, बहुत उम्दा है-और निकालिये डायरी से. एक से क्या होगा!!

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  2. निर्मल प्रेम छे गुरुदेव !! - अब ताला खुल गया है तो समान सजाना जारी रहे - मनीष

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  3. मधुकर गाज़ीपुरी अमर रहें अमर रहें!

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  4. भाई, आप बहुत ही लगन से सार्थकता के शिखर पर हैं.सफलता तो कई हैं पर सार्थक एकाध ही नज़र आते हैं.कई बार सोचा इधर आऊं लेकिन शहर दिल्ली कि व्यस्त फिर ब्लॉग का नया-नया-चस्का आज आखिर पहुच ही गया.
    अफ़सोस हुआ, हाय हँसा हम न हुए की तर्ज़ पर कि हाय पहले क्यों न आया.
    कई पोस्ट देखी.तेवर वही पर अंदाज़ और कंटेंट में जुदागाना असर.
    हमारा भी ठिकाना है, जहां और भी भूले-भटके आ जाते हैं.गर आप आयें तो ख़ुशी ही होगी .
    लिंक है
    http://hamzabaan.blogspot.com/
    http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/
    http://saajha-sarokaar.blogspot.com/

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  5. मुझे समझ नहीं आई बात...ये आप ही के लिखी हुई हैं? ...और अगर ये आपको डिसओन करने लायक लगीं तो अब क्या कहें। बहुत सुंदर लिखा था उस वक्त भी आपने...

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