शनिवार, 31 दिसंबर 2011

आएगा अच्छा समय विश्वास है

आज साल २०११ का अंतिम दिन..दिन भी कहाँ..अब शाम रात होने की ओर अग्रसर है। कल से नया साल..नए साल का पहला दिन। माना कि बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी फिर भी ..आएगा अच्छा समय विश्वास है..। नए साल पर 'कर्मनाशा' के सभी मित्रों को शुभकामनायें - मुबारकबाद !

                                                                (चित्र : एम०जी० क्रिएशंस के शुभकामना संदेश से साभार)
नए साल पर..

सर्दियां आ गईं सुस्ताइए,
धूप को ओढिए बिछाइए।

बर्फ़ के बेदाग़ सफे पर अपना,
नाम लिखिए और भूल जाइए.


माना सचमुच ज़िंदगी है रंजोग़म,
फिर भी खुशियां बांटिए ग़म खाइए।

आएगा अच्छा समय विश्वास है,
बस इसी विश्वास में रम जाइए।

प्यार का एहसास एक अलाव है,
आग अपने प्यार की सुलगाइए।

हो मुबारक आपको यह साल !
कम से कम इस साल मत भरमाइए।






गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

राह दिखायेंगे ढाई अक्षर

आज  ही अब से कुछ  ही देर पहले  कंप्यूटर पर कुछ खुटर - पुटर करते हुए कुछ - कुछ लिखा है....कविता की शक्ल में। यह जानते हुए कि 'कवित विवेक एक नहिं मोरे'। फिर भी , मन में कुछ आया। कुछ अच्छा लगा , कुछ भाया  तो जो भीतर था वह वह शब्द / पद की शक्ल में बाहर निकल आया। आइए , सोने से पहले इसे  सहेजते हैं  ...साझा करते हैं :

संग - साथ

अंधेरे में
जब सूझता न  हो
हाथ को हाथ
तब तुम रहो संग
चलो साथ -साथ।

हाथ में हो
तुम्हारा गर्म हाथ
डर जाए डर
भाग जाए भय
ठहर जाए
अदृश्य होने को आकुल
कोई टूटती - सी अधबनी लय।

भले ही
हो  बेहद बेतुका वक़्त
फिर भी
मिल जाए तुक से तुक
साँस की भाप का इंजन
देर तक दूर तक
चलता रहे छुक -छुक।

न दिखे राह
न हो निश्चित गंतव्य
अनवरत
अट्टहास  करता रहे गहन अंधकार
पर रहे यकीन
राह दिखायेंगे ढाई अक्षर
हर जगह  हर पल हर बार।
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गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

तुम्हारी आँखों में

निज़ार को जब पढ़ना शुरु किया तो नेरुदा की याद आती रही और अब  नेरुदा को पढ़ता हूँ  तो निज़ार याद आने लगते हैं। प्रेम  को इसी दुनिया में उपजते हुए देखने और  प्रेम के  स्पर्श से इसी दुनिया  सुन्दर होते हुए देखने की ललक , लालसा और लड़ाई दोनो कवियों के यहाँ है। नेरुदा के बारे में फिर कभी आज तो बस निज़ार की बात करने का मन है।

निज़ार क़ब्बानी (21 मार्च 1923- 30 अप्रेल 1998) की कविताओं के मेरे किए अनुवाद आप 'कर्मनाशा' के अतिरिक्त कई अन्य  वेब ठिकानों और हिन्दी की कुछ प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं में पढ़ चुके हैं।  प्रेम के रंग में रँगा - रचा  और प्रेम  को तरह - तरह से रँगने - रचने वाले इस कवि  को बार - बार  पढ़ने / पढ़वाने का मन करता है। 


दो कवितायें / निज़ार क़ब्बानी
(अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह)

०१- आँखें अथाह 

अपनी अथाह आँखों के साथ तुम !

तुम्हारा प्रेम
असीम
रहस्यमय
पावन।

जीवन और मृ्त्यु की भाँति
तुम्हारा प्रेम
अपुनरावृत।

०२- तुम्हारी आँखों में

जब मैं यात्रा करता हूँ
तुम्हारी आँखों में
लगता है सवार हूँ जादुई कालीन पर
जिसे उड़ाए लिए चले जाते हैं
वायलेट और गुलाब के बादल।

मैं परिक्रमा करता हूँ
पृथ्वी की तरह
तुम्हारी आँखों में।